बड़े परदे पर लीड हीरो बने शाहिद कपूर को अगले साल 20 साल हो जाएंगे। इन दो दशकों में शाहिद कपूर ने सिनेमा के सारे उतार चढ़ाव नाप लिए हैं। और, फिल्म 'कबीर सिंह' के बाद से वह अब अभिनय की नई लीक बनाने निकले हैं। इस सफर में शाहिद कपूर खुद अपने भरोसे हैं। वह दमदार कहानियां चुन रहे हैं। इनके किरदारों के हिसाब से अपने को ढाल रहे हैं और, निर्देशक ऐसे चुन रहे हैं जिनको इन कहानियों पर सौ फीसदी भरोसा है। संदीप रेड्डी वांगा के बाद अब उन्होंने खुद को गौतम तिन्ननूरी के हवाले किया है। काबिल निर्देशक पर भरोसा करके कोई कलाकार क्या कमाल कर सकता है, इसका लगातार दूसरा उदाहरण शाहिद कपूर ने फिल्म 'जर्सी' में पेश किया है। दक्षिण भारत के निर्माता निर्देशकों की इस फिल्म में लो एंगल कैमरा नहीं है। जोर जोर से बजता शोर नहीं है। हर सीन में स्पेशल इफेक्ट्स के जरिये आंखों को चकाचौंध करने की कोशिश नहीं है और ना ही इसमें है आम इंसानों से अलग दिखने वाली किसी काल्पनिक दुनिया का वैभव, विलास और वीभत्सता। फिल्म 'जर्सी' स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्म भी नहीं है जैसा कि इसकी मार्केटिंग टीम शुरू से गाती रही है। ये एक इंसान के खुद से जूझने की कहानी है। ये एक बाप और बेटे के आपसी दुलार की कहानी है। और, ये एक उस्ताद के अपने शागिर्द पर भरोसे की कहानी है।
'जर्सी' में एक संवाद है, 'आपने मुझे मारा, किसी से कहूं भी तो ये बात कोई मानेगा ही नहीं!' सात साल के एक बच्चे का अपने पिता के स्नेह पर ऐसा विश्वास देख आपकी भी आंखें भर आएंगी। एक बेटे और उसके पिता के आपसी विश्वास की इतनी भावुक कहानी 'जर्सी' का महीनों से स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्म के तौर पर प्रचार जारी है। लेकिन, एक लाइन का जो संदेश दर्शकों तक इसकी कहानी के असल तत्व को लेकर पहुंचना चाहिए था, वह पहुंचा ही नहीं। ये फिल्म शुरू होती है इसी बेटे से जो अब 32 साल का हो चुका है। अपने पिता की कहानी पर लिखी किताब खरीदने पहुंचता है और बातों ही बातों में शुरू हो जाती है कहानी अर्जुन तलवार की। वह कोच माधव शर्मा का अर्जुन है। कहीं से उन्होंने उसे तलाशा। फिर तराशा और फिर ऐसा बल्लेबाज बना दिया जिस पर जमाने को नाज हो न हो, उन्हें बहुत नाज है। फिर अर्जुन क्रिकेट छोड़ देता है। घर छोड़कर चली आई माशूक से ब्याह कर लेता है। बाप भी बन जाता है। सरकारी नौकरी कर लेता है। और, फिर एक दिन पैसे पैसे को मोहताज हो जाता है...
फिल्म 'जर्सी' देखने जाने की मेरे लिए वजह ये थी कि 'कबीर सिंह' की कामयाबी का शाहिद कपूर ने क्या किया है। वह बहुत संवेगी कलाकार रहे हैं। रफ्तार उनसे कम ही संभल पाई। लेकिन फिल्म देखकर अच्छा लगा कि शाहिद में स्थायित्व आ चुका है। ये नायक जैसे दिखने वाले नायकों के लिए तरसती हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए शुभ संकेत है। अर्जुन तलवार के किरदार को शाहिद ने जिस शिद्दत से जिया है, उसे लिख पाना तो मुश्किल होगा लेकिन कोच के सामने, दोस्तों के सामने, बेटे के सामने, प्रेमिका के सामने या फिर पत्नी के सामने, शाहिद ने अर्जुन तलवार के जिस दर्द, खुशी, अपनेपन और बेगानेपन को जिया है, वह काबिले तारीफ है। शाहिद कपूर के अभिनय से लबरेज़ ज़बर्दस्त फिल्म है, 'जर्सी'। और, फिल्म के बाकी कलाकार भी कम नहीं हैं।
अरसे बाद बड़े परदे परदे पर पंकज कपूर को देखना ही सुखद है। अपने बेटे शाहिद कपूर के कोच बने पंकज कपूर हर फ्रेम में लाजवाब हैं। अर्जुन तलवार के कोई 10 साल के सफर और फिर उसके 25 साल बाद के समय में पंकज कपूर ने सिर्फ अपनी आवाज के जरिये उम्र के अलग अलग पड़ाव जी दिये हैं। दिखते वह 'ब्यूटीफुल' हैं ही। अभिनय उनका उससे ज्यादा खूबसूरत है। मृणाल ठाकुर की छवि अब छोटे छोटे रोल करने वाली हीरोइन से आगे निकल रही है। एक पंजाबी लड़के पर मर मिटी दक्षिण भारतीय लड़की के किरदार से लेकर अकेले घर चलाने वाली बीवी और मां तक का किरदार मृणाल ने मेहनत से जिया है। और, एक नंबर काम है फिल्म में रोनित कामरा का भी, जो अर्जुन और विद्या के बेटे बने हैं। अपने पिता के पूछने पर कि आखिर वह क्या करे? जिस सरलता से किट्टू अपने बाप को अपना हीरो बता जाता है, वह कमाल है। हां, उनको कहीं कहीं संवाद बहुत किताबी मिले।
निर्देशक गौतम तिन्ननूरी के करियर की कुल जमा तीसरी फिल्म है 'जर्सी'। पिछली फिल्म भी उन्होंने इसी कहानी पर इसी नाम से बनाई थी तेलुगू में। उस फिल्म की गलतियां उन्होंने इस हिंदी फिल्म में सुधारी हैं। कलाकारों के साथ साथ तकनीकी टीम भी उन्होंने इस बार बेहतर चुनी है। गौतम इंसानी जज्बात और ख्यालात की ऐसी ही कहानियां चुनते रहे और हिंदी सिनेमा के कलाकार बिना नखरों के उनके साथ काम करने को तैयार होते रहे, तो उनसे आने वाले दिनों में बेहतर सिनेमा की उम्मीद बंधती है। अनिल मेहता की सिनेमैटोग्राफी में उनका तीन दशक का अनुभव झलकता है। नवीन नूली ने अपने संपादन में कहीं कोई कमजोर कोना छोड़ा नहीं है। और, इस फिल्म में सोने पर सुहागा है सचेत-परंपरा का संगीत और अनिरुद्ध रविचंदर का पार्श्वसंगीत। किसी फिल्म की कहानी से जुड़कर संगीत बनाने का मौका संगीतकार को मिले तो वह 'जर्सी' जैसा संगीत बनाता है। बहुत ही मधुर, कर्णप्रिय और याद रह जाने वाला संगीत है इस फिल्म का।
और, अब बात वही कि फिल्म देखें कि न देखें। इस फिल्म को आप भी देखिए। अपने बेटे को दिखाइए। उसकी मां को साथ ले जाइए। और, हो सके तो अपने पिता को भी साथ ले जाइए। उनको तो ये फिल्म ज़रूर दिखाइए जो हर मोड़ पर आपके हौसले और जुनून पर सवालिया निशान लगाते रहते हैं।