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सरकारें वास्तविकता को समझने के लिए काम करें तथा उनके अनुसार आगे के नियम और नीतियां बनाएं।
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति को लेकर आरक्षण पर उच्चतम न्यायालय द्वारा दिया गया फैसला कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। इनकी प्रोन्नति के मामले में केंद्र और राज्य सरकार की अनेक याचिकाएं उच्चतम न्यायालय में लंबित हैं। शीर्ष न्यायालय ने साफ किया है कि वह किसी भी लंबित याचिका के गुण-दोष पर कोई विचार प्रकट नहीं कर रहा है। यानी उन याचिकाओं पर उनके गुण-दोष के आधार पर आगे सुनवाई होगी, जिसकी तारीख 24 फरवरी तय की गई है।
इस फैसले में न्यायालय ने मूलतः चार बातें कहीं हैं। एक, उसने प्रोन्नति में आरक्षण के मात्रात्मक आंकड़े एकत्र करने के लिए कैडर की बात तो की ही है, यह भी कहा है कि कैडर एक इकाई के तौर पर होना चाहिए। दो, संग्रह पूरे वर्ग या वर्ग समूह के संबंध में नहीं हो सकता। यह उस पद के ग्रेड/श्रेणी से संबंधित होना चाहिए जिस पर प्रोन्नति मांगी गई है। तीसरा, यदि आंकड़ों का संग्रह पूरी सेवा के लिए किया जाएगा, तो यह अर्थहीन होगा। चार, आधार और मानक तय करना राज्य का काम है, न कि न्यायालय का। उसने अपने दिए गए पहले के फैसलों एम. नागराज, जरनैल सिंह और बी.के. पवित्रा द्वितीय का जिक्र करते हुए साफ कह दिया कि कैडर की जगह समूहों के आधार पर आंकड़ों के संग्रह को मंजूरी वास्तव में इन फैसलों में दी गई व्यवस्था के विरुद्ध है। ध्यान रखने की बात है कि केंद्र एवं राज्य सरकारों ने प्रोन्नति में आरक्षण से संबंधित वर्ष 2006 के नागराज फैसले को आधार बनाकर दलील दी थी कि इनमें जो मानक तय किए गए थे, उनके कारण उच्च न्यायालयों की स्क्रूटनी आरक्षण पर इतनी सख्त हो गई है कि कोई राज्य प्रोन्नति में आरक्षण ठीक से नहीं लागू कर पा रहा है।
न्यायालय ने सरकारों की इन दलीलों को खारिज कर दिया है। उसने कहा है कि प्रोन्नति में आरक्षण देने के लिए और पर्याप्त प्रतिनिधित्व की बात तथ्यात्मक रूप से तभी सही होगी, जब इसके आंकड़े जुटाए जाएं तथा समय-समय पर इनकी समीक्षा हो। इस तरह फिर से पूरा दारोमदार सरकारों पर आ गया है। राज्य अपर्याप्त प्रतिनिधित्व की बात अवश्य करते थे, लेकिन जो आंकड़े देते थे उनकी पुष्टि करना कठिन था। वास्तव में न्यायालय का यह कहना उचित है कि हमारा काम मानक तय करना नहीं है। वर्ष 2006 के नागराज और 2018 के संविधान पीठ के फैसले के बाद प्रोन्नति में आरक्षण के लिए अपर्याप्त प्रतिनिधित्व का आंकड़ा जुटाना कार्यपालिका की जिम्मेदारी है। वह कैसे जुटाए, यह उनके विवेक पर छोड़ दिया गया है।
केंद्र और राज्य, दोनों की चाहत थी कि उच्चतम न्यायालय ही आरक्षण का पैमाना बना दे, लेकिन न्यायालय ने इससे इनकार कर दिया। सरकारों द्वारा कठोर निर्णय की अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की नीयत के कारण ही समस्याएं पैदा हुई हैं। केंद्र और राज्य सरकारें आपस में बैठकर इनका निपटारा कर सकती थी। वास्तव में शीर्ष न्यायालय के फैसले की मूल ध्वनि यही है कि आरक्षण के मामले में सरकारें वास्तविकता को समझने के लिए काम करें तथा उनके अनुसार आगे के नियम और नीतियां बनाएं।
सोर्स: अमर उजाला
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