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प्रकाश झा याद करते हैं कि ये दिन कम से कम उन दिनों से अच्छे ही थे, जब उन्हें कई बार बिना खाए पिए दिन गुजारना पड़े थे.
बॉलीवुड सिनेमा में स्ट्रगल करने वालों की कहानियों का समुंदर है. कुछ यहां के संघर्षों से हार कर अपने रास्ते बदल लेते हैं तो कुछ थक कर वापस लौट जाते हैं. लेकिन सफलता उन्हें मिलती है, जो मुड़ कर नहीं देखते और हर परिस्थिति में लक्ष्य हासिल करने के लिए हालात से लड़ते हैं. उनके जज्बे की चोट से नए रास्ते खुलते हैं. ऐसी ही कुछ कहानी है निर्देशक प्रकाश झा की. आज वह फिल्म इंडस्ट्री में बड़ा नाम हैं लेकिन उन्हें कम स्ट्रगल नहीं करना पड़ा. किसी जमाने में कला फिल्मों के नाम समझे जाने वाले प्रकाश झा ने समय के साथ खुद को बदला और बॉलीवुड में अपने अंदाज का ऐसा राजनीतिक-सामाजिक सिनेमा बनाया, जो कॉमर्शियली भी सफल रहा. ओटीटी आया तो प्रकाश झा की सीरीज आश्रम ने सफलता के नए रिकॉर्ड बना दिए.
300 रुपये लेकर आए मुंबई
प्रकाश झा बिहार से हैं. आमतौर पर वहां माता-पिता का सपना होता है कि उनका बेटा आईएस बने. ऐसा ही सपना प्रकाश के माता-पिता का भी था. लेकिन प्रकाश झा का रुझान कला की तरफ था. वह मुंबई के जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स में पढ़ाई करना चाहते थे. यही सपना लेकर वह पटना से मुंबई की ट्रेन में निकल पड़े. उस समय वह सिर्फ 19 साल के थे और उनकी जेब में मात्र 300 रुपये थे. जब वह ट्रेन में थे तो जौनपुर से एक यात्री राजाराम उस ट्रेन में सवार हुए. राजाराम ने नोटिस किया कि कैसे यह लड़का सिर्फ चाय-बिस्किट पर ही अपना गुजारा कर रहा है. कुछ घंटों बाद जब ट्रेन भोपाल से गुजरी तो राजाराम ने उन्हें अपने साथ भोजन करने के लिए कहा. अगली सुबह तक दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई थी. राजाराम ओबेरॉय होटल की चेन में लेबर कॉन्ट्रेक्टर थे. वह समझ गए कि लड़का अपना भविष्य बनाने निकला है और इसे थोड़े सहारे की जरूरत है. उन्होंने प्रकाश झा को अपना विजिटिंग कार्ड दिया और कहा कि अगर तुम्हें रहने का कोई ठिकाना न मिले, तो मेरे पास आ जाना.
प्रकाश झा की इंग्लिश कोचिंग क्लासेस
प्रकाश जब जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स में एडमिशन के लिए गए तो पता चला कि इसमें कुछ महीने लगेंगे. तब प्रकाश को राजाराम का सहारा मिला. राजाराम ने उन्हें अपनी दहिसर स्थित बिल्डिंग के एक फ्लैट में अपने 10-12 वर्कर के साथ रहने की व्यवस्था करवाई. बदले में प्रकाश समय निकाल कर राजाराम के मजदूरों के रोज के रिकॉर्ड्स और अकाउंट्स मेंटेन करने लगे. साथ ही उन्होंने कालबादेवी के एक इंस्टीट्यूट में इंग्लिश ट्यूटर का जॉब भी जॉइन कर लिया. जहां वह मारवाड़ी-गुजराती बिजनेसमैन को इंग्लिश सिखाते थे. हालांकि इस सबसे उनका रोज का खाना और बस का किराया ही निकल पाता था. प्रकाश झा याद करते हैं कि ये दिन कम से कम उन दिनों से अच्छे ही थे, जब उन्हें कई बार बिना खाए पिए दिन गुजारना पड़े थे.
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