
धर्मा प्रोडक्शंस की नई फिल्म है ‘रॉकी और रानी की प्रेम कहानी’। निर्देशक हैं करण जौहर जिन्हें हिंदी फिल्में निर्देशित करते करते 25 साल हो गए हैं। उनकी पिछली फिल्म ‘ऐ दिल है मुश्किल’ 2016 में रिलीज हुई थी। ये फिल्म भी बनकर पिछले साल अगस्त में ही पूरी हो गई थी। फिल्म में वह सब कुछ है जिसके चलते हिंदी सिनेमा को पश्चिमी मीडिया ने बॉलीवुड कहना पुकारना शुरू किया। कहानी का सार दो बुजुर्गों की अधूरी प्रेम कहानी है और विस्तार है मौजूदा दौर के दो विपरीत ध्रुवों जैसे किरदारों का हाहाकार मचाता प्यार। दोनों को एक दूसरे के परिवारों का भरोसा जीतना है और ‘एक दूजे के लिए’, ‘टू स्टेट्स’ जैसी गलियों से गुजरती हुई ये फिल्म उस चौराहे पर आकर सारे किरदारों को एक साथ ले आती है, जहां से बचकर गुजरना किसी के बस की बात नहीं है
आठ बजे के शो का असल एहसास
करण जौहर की फिल्म हो और किस फिल्म कलाकार के बूते की बात है कि वह इसका ईमानदारी से विश्लेषण कर सके। तो रिलीज से तीन दिन पहले से ही इसकी तारीफों के कसीदे गढ़े जा रहे हैं। प्रेस शो से ऐन पहले फोर स्टार वाला रिव्यू सोशल मीडिया पर तैरता है। प्रेस शो ऐसी शाम को है जब मुंबई में आसमान मूसलाधार बरस रहा है। रिलीज के दिन का पहला शो सुबह आठ बजे है। ऑनलाइन बुकिंग में जितनी सीटें फुल दिखी थीं, सिनेमाघर पहुंचने पर उतने लोग दिखाई नहीं देते। 160 करोड़ रुपये सिर्फ फिल्म को बनाने में लगे हैं। करीब 20 करोड़ रुपये बताते हैं कि इसके प्रचार और सिनेमा हॉल में फिल्म को कम से कम दो हफ्ते लगाए रखने के लिए भी खर्च हो चुके हैं। मतलब 18 करोड़ रुपये से कम की ओपनिंग फिल्म के नाम पर बट्टा लगा सकती है। करीब पौने तीन घंटे की फिल्म में वह सब कूट कूटकर भरा है जिसे देखने के लिए ‘ओपनहाइमर’ जैसी फिल्मों पर लट्टू हो रही पीढ़ी को सिनेमाघरों तक खींचकर लाना बहुत मुश्किल है
धीरज, धरम, मित्र अरु नारी की परख
फिल्म ‘रॉकी और रानी की प्रेम कहानी’ देखना अपने ही धैर्य का इम्तिहान लेने जैसा है। रंधावा और चटर्जी परिवारों के बीच पारिवारिक संस्कारों, लोक व्यवहारों और विचारों का ये सीधा मुकाबला है। रॉकी कुपढ़ है। और, रानी जमाने को आइना दिखाने की कोशिश करती बाला। दोनों का अपना अपना पेशा है। पेशे के हिसाब से दोनों के किरदार लिखे गए हैं। बस लेखक ये समझाना भूल जाते हैं कि रॉकी के परिवार के पास जब इतना पैसा है तो फिर उन्होंने अपने बेटे को कायदे से पढ़ाया लिखाया क्यों नहीं। इशिता मोइत्रा, शशांक खेतान और सुमित रॉय ने भर भरकर उपदेश कहानी में ठूंसे हैं। महिला सशक्तिकरण से लेकर लिंगभेद, सामाजिक विभेद और वर्णभेद तक सब कुछ इस कहानी में है, बस इफरात की अमीरी के चौंधिया देने वाले मुलम्मे के साथ।
