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मुंबई। वर्ष 1994 में प्रदर्शित फिल्म द्रोहकाल में सिर्फ एक मिनट के रोल से अपना फिल्मी सफर शुरू करने वाले अभिनेता मनोज बाजपेयी की सौवीं फिल्म भैयाजी 24 मई को सिनेमाघरों में प्रदर्शित होगी। तीन दशक के अभिनय सफर में तीन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीत चुके मनोज ने सत्या से लेकर पिंजर, गैंग्स ऑफ वासेपुर, भोसले और जोरम जैसी फिल्मों में अभिनय के अलग-अलग पहलू दिखाए।वर्तमान समय में हिंदी सिनेमा के लिए जड़ों से जुड़ी कहानियां जरूरी मानने वाले मनोज ने जागरण डॉट कॉम से कई विषयों पर बातचीत की...
पहली से सौवीं फिल्म के सफर में अपने अंदर पेशेवर और व्यक्तिगत तौर पर क्या बदलाव देखते हैं?
आपकी सोच हमेशा बदलती रहती है। पांच साल काम करने के बाद कैमरा और शूटिंग को देखने तथा रोल पर काम करने का नजरिया बदलता रहता है। जीवन में एक इंसान के तौर पर जैसे-जैसे परिपक्वता आती रहती है, वैसे- वैसे आपके अंदर का कलाकार भी बदलता रहता है। अनुभव के साथ आपका व्यक्तित्व बदलता है, वैसे ही किरदारों को देखने का नजरिया और अभिनय का तरीका भी बदल जाता है। अगर एक्टर बदल रहा है, इसका मतलब कि उसके अंदर का इंसान भी विकास कर रहा है।
पहले तो आप इस फिल्म का हिस्सा नहीं बनने वाले थे ?
यह कहानी तो मेरे पास काफी पहले से थी। फिल्म सिर्फ एक बंदा काफी है की शूटिंग के समय निर्देशक अपूर्व सिंह कार्की ने कहानी सुनी और कहा कि यह फिल्म मुझे बनानी है। मुझे लगा था कि वो इस फिल्म को किसी दूसरे स्टार के साथ बनाएंगे, लेकिन उन्होंने कहा कि मुझे इसमें आप चाहिए। उनकी जिद के कारण मैं इस फिल्म से जुड़ा। मुझे ये भी पता था कि अगर मैं इसे निर्देशक के दृष्टिकोण और उनकी पसंद की कास्ट को लेकर मार्केट में जाऊंगा, तो कोई इस फिल्म में पैसा नहीं लगाएगा। फिर मैंने और मेरी पत्नी ने बात की कि इसे हम स्वयं ही प्रोड्यूस करेंगे। उसके बाद इस फिल्म से औसवाल ग्रुप और निर्माता विनोद भानुशाली भी जुड़े।
फिल्म लापता लेडीज को सिनेमाघरों में उतना नहीं, लेकिन डिजिटल प्लेटफार्म पर खूब देखा गया। फिल्मकारों के लिए सही माध्यम की समझ या दर्शकों के रवैये, किसमें बदलाव जरूरी मानते हैं?
दोनों जरूरी है। फिल्मकारों के लिए सही माध्यम की समझ बहुत जरूरी है। पहली बात तो ये सिर्फ एक बंदा काफी है, जोरम, लापता लेडीज या फिर ट्वेल्थ फेल ये सब बड़ी अच्छी फिल्में हैं । इससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता है। कौन- सी फिल्म कैसे मार्केट करना है, कैसे सिनेमाघरों तक ले जाना है या सीधे डिजिटल प्लेटफार्म पर प्रदर्शित करना है, बहुत बड़ा निर्णय होता है। अब दर्शकों की भी जिम्मेदारी बनती है। अगर वे पैसा खर्च कर रहे हैं, तो यह जरूरी है कि वो ऐसी जगह खर्च हो, जहां उनके पैसों का सही मोल हो।
सुनने में आया कि इसके लिए एक्शन करने में हड्डियां आपकी भी टूटी, चोट आपको भी खूब लगी...
(हंसते हुए) मुझे ऐसी-ऐसी जगह दर्द है कि मैं आपको बता नहीं सकता हूं। चोट तो बहुत लगी, लेकिन चोट के कारण मैंने एक दिन भी फिल्म की शूटिंग नहीं रोकी। घुटने पर चोट लगने के बाद भी कभी पट्टी बांधकर या कुछ और उपचार करके शूटिंग करता रहा। शूटिंग खत्म होने के बाद उस दर्द से उबरने में काफी समय लगा।
उत्तर भारत में भैया जी संबोधित करने का चलन है। क्या कभी आपके लिए किसी विशेष संबोधन शब्द का प्रयोग हुआ है ?
जब नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) में थिएटर करता था, तब तो युवा था, वहां भैयाजी नहीं बोलता था। हां, बहुत सारे लोग भैया, सर आदि बोलते हैं। जैसे- जैसे आप बड़े होते जाते हैं, आपके लिए संबोधन के शब्द बदलते जाते हैं। संबोधन सिर्फ संबोधन न होकर उसमें प्यार भी हो, वो मेरे लिए बहुत जरूरी होता है। प्यार से मनोज भी बोले तो चलता है।
आप जैसे कुछ कलाकार डिजिटल प्लेटफार्म या छोटे बजट की फिल्मों तक ही सीमित नजर आ रहे हैं, इस पर आपकी क्या राय है?
थिएटर तो हमेशा पैसे और बाक्स आफिस से ही चलता रहा है। मार्केट एक फार्मूला ढूंढता है, उसी से निवेशकों को विश्वास होता है कि मैं फलां फिल्म के लिए सौ रुपये लगा रहा हूं, तो मेरे पास सौ रुपये वापस आएंगे। अगर आप देखेंगे तो आज फिल्मों की सफलता का अनुपात सबसे कम है।
क्या इस चुनावी माहौल में आपके पास भी राजनीति से जुड़ने के कुछ प्रस्ताव आए ?
राजनीतिक प्रस्ताव आज से नहीं, बल्कि पिछले 25 वर्षों से आ रहे हैं। मैं किसी भी प्रस्ताव को नजरअंदाज तो नहीं करता हूं, लेकिन बड़ी विनम्रता के साथ ना बोल देता हूं, क्योंकि राजनीति मेरा सपना ही नहीं रहा है। मेरा सपना तो हमेशा से ही अभिनय रहा है।
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Apurva Srivastav
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