जनता से रिश्ता वेबडेस्क | कैमरे के सामने खुद को तराशते हुए अभिनेता मनोज बाजपेयी को 30 साल हो रहे हैं। रंगमंच को जोड़ें तो उनकी ये अभिनय यात्रा अब 40 साल की है। बेलवा से बंबई (अब मुंबई) आने के बाद भी मनोज में जो एक बात नहीं बदली है वह है लगातार सीखते रहना और इसे ही वह अपनी कामयाबी का मंत्र मानते हैं। मनोज के मुताबिक उनकी शख्सीयत को ढालने में रंगमंच का सबसे बड़ा हाथ रहा है। अपने पहले गुरु बैरी जॉन को वह पिता तुल्य दर्जा देते हैं और बताते हैं कि कैसे समलैंगिकता का पहला पाठ उन्होंने ही पढ़ाया था।
संगीत को लेकर खुद को प्रशिक्षित करने की प्रक्रिया, अपने बचपन के अपने जीवन पर असर,स्कूलों मे रंगमंच को अनिवार्य बनाए जाने की जरूरत और अपनी नई फिल्म ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ को लेकर मनोज बाजपेयी की ‘अमर उजाला’ के सलाहकार संपादक पंकज शुक्ल से एक लंबी और एक्सक्लूसिव मुलाकात...
बड़ी अच्छी बात जो है इस फिल्म के बारे में कि सोलंकी (पूनम चंद सोलंकी) साहब इस फिल्म के साथ पूरे समय रहे और उनका जो किरदार है वह उसी तरह इस फिल्म में रखा गया है। बाकी सारी घटनाएं, बहुत सारी घटनाएं इस फिल्म के लिए प्रेरणा बनीं। ये वकील की जिंदगी, सुबह से लेकर शाम तक परिवार और परिवार के बाहर उसकी क्या क्या व्यस्तताएं, परेशानियां रहती हैं वे सारी चीजें आप इस फिल्म (सिर्फ एक बंदा काफी है) में देख पाएंगे। हमने उनके जीवन को उतने अंदर तक जाकर कवर नहीं किया है और यहां पर किसी ऐसे फैंसी वकील की बात भी नहीं कर रहे हैं। वह सुप्रीम कोर्ट का वकील भी नहीं है। वह लैंब्रेटा से चलने वाला आदमी, छोटे शहर का वकील है जो लोअर कोर्ट और हाईकोर्ट तक ही सीमित रखता है अपने आप को। वह इतना बड़ा केस लड़ता है जहां पर उसके सामने बड़े बड़े तुर्रम खां आते हैं। तो, ये फिल्म बड़ी हो जाती है।
उसका एक विश्वास है अपने ऊपर, अपने काम के ऊपर और लालची नहीं है। मैं पूछकर हार गया कि सोलंकी साहब आपन ये केस क्यों लिया, सोलंकी साहब जवाब ही नहीं दे पाए वह भी सोचते होंगे कि ये कैसे मैने क्यों लिया।