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कामाख्या नारायण सिंह: कश्मीर के बच्चों की अधिकारों की लड़ाई है यह डाक्यूमेंट्री

Neha Dani
31 July 2022 10:39 AM GMT
कामाख्या नारायण सिंह: कश्मीर के बच्चों की अधिकारों की लड़ाई है यह डाक्यूमेंट्री
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इनमें एक जम्मू-कश्मीर पर आधारित होगी। दूसरी सामाजिक मुद्दे पर आधारित रोमांटिक कामेडी फिल्म होगी।

सामाजिक मुद्दों पर डाक्यूमेंट्री फिल्में बनाने वाले निर्देशक कामाख्या नारायण सिंह की 'जस्टिस डिलेड बट डिलिवर्ड' ने उनके प्रयासों का पुरस्कार दिया है। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित यह डाक्यूमेंट्री फिल्म अनुच्छेद 370 पर बात करती है। फिल्म व राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार को लेकर उन्होंने स्मिता श्रीवास्तव के साथ साझा किए जज्बात...


पांच अगस्त, 2019 को कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाया गया था। इस अनुच्छेद की वजह से जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा मिला व कुछ अधिकार भी मिले थे, लेकिन इसकी वजह से नागरिकों के अधिकारों के हनन व सामने आने वाली समस्याओं को कामाख्या नारायण सिंह द्वारा निर्देशित डाक्यूमेंट्री फिल्म 'जस्टिस डिलेड बट डिलिवर्ड' में दर्शाया गया। स्वाधीनता की 75वीं वर्षगांठ मनाने से चंद दिनों पहले इस डाक्यूमेंट्री को इस वर्ष राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। कामाख्या इससे पहले कई डाक्यूमेंट्री और फिल्म 'भोर' बना चुके हैं।

सपने पूरे करने का हक

14 मिनट की डाक्यूमेंट्री 'जस्टिस डिलेड बट डिलिवर्ड' बनाने को लेकर कामाख्या कहते हैं, 'वर्ष 2013 में मेरे मित्र ने जम्मू-कश्मीर के बारे में रिसर्च शुरू की थी। उन्होंने एक दिन बताया कि वहां वाल्मीकि समाज के बच्चे डाक्टर या इंजीनियर बनना चाहते हैं, लेकिन वहां लागू कानून की वजह से अपने सपने साकार नहीं कर पाते। मुझे तो यकीन नहीं हुआ। यहीं नहीं, पहले के प्रविधान के मुताबिक, अगर जम्मू-कश्मीर की महिला किसी अस्थायी निवासी से शादी कर लेती है तो महिला को संपत्ति का अधिकार नहीं मिलता। पुरुषों के मामले में ऐसा नहीं है। अक्टूबर, 2002 में जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कोर्ट के इस फैसले में अस्थायी निवासियों से शादी करने पर महिलाओं को संपत्ति का अधिकार मिला, लेकिन उन महिलाओं के बच्चे न सिर्फ उस संपत्ति के उत्तराधिकार से वंचित रहते थे बल्कि उन्हें राज्य की नागरिकता भी नहीं मिलती थी। इसी तरह वर्ष 1947 में विभाजन के बाद सियालकोट के लोग जब जम्मू-कश्मीर आए तो उन्हें भी अधिकार नहीं मिले क्योंकि वहां पर अनुच्छेद 370 और 35ए की आड़ में कानून बनाया गया, जिसमें उन्होंने पीआरसी (परमानेंट रेजीडेंट सर्टिफिकेट) को परिभाषित किया। गैरस्थानीय लोगों के लिए किसी प्रकार का प्रविधान नहीं किया। इस विषय पर हमने वर्ष 2016 में डाक्यूमेंट्री 'आर्टिकल 35ए' बनाई थी, जिसे लोगों ने काफी पसंद किया।'

देर से मिल रहे मूल अधिकार

फिल्म बनाने को लेकर कामाख्या आगे बताते हैं, 'डाक्यूमेंट्री में आप लोगों से बात करते हैं। उनके करीब पहुंच पाते हैं। डाक्यूमेंट्री में दिखाई गईं राधिका गिल वर्ष 2017 में हमारे संपर्क में आईं। उन्हें बीएसएफ में रिजेक्ट कर दिया गया था क्योंकि उनके पास पीआरसी नहीं था। गारु भाटी उस समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। उनसे वर्ष 2016 में मुलाकात हुई थी। तब वह इस संबंध में याचिका दायर कर रहे थे। वह अपने बच्चों के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं कि वो सफाई कर्मचारी बन गए, लेकिन उनके बच्चे वैसे न बनें। मुंबई के सेंट जेवियर कालेज में सेमिनार हुआ तो वहां मेरी राधिका से मुलाकात हुई। मुझे लगा कि हमने इन बच्चों के सपने छीन लिए हैं। वर्ष 2019 में इस अनुच्छेद को हटाने की घोषणा हुई। वर्ष 2020 में पता चला कि राधिका को पीआरसी मिल रहा है। 70 साल की देरी से ही सही आखिरकार उन्हें अपना अधिकार मिल रहा है। मुझे लगा कि इस आर्टिकल के हटने से राधिका, गारु भाटी जैसे न जाने कितने लोगों को किस प्रकार अधिकार मिल रहे हैं, उससे बाकी देशवासियों को अवगत कराना चाहिए। राधिका गिल में मुझे उन सारे लोगों का सपना दिखा, जिन्हें उनका पीआरसी मिल रहा है।'

संतुष्टि का हुआ एहसास

डाक्यूमेंट्री को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने का अनुभव साझा करते हुए कामाख्या कहते हैं, 'मुझे फिल्म बनाकर संतुष्टि का एहसास हुआ। इसे वर्ष 2021 के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आफ इंडिया (आइएफएफआइ) में प्रदर्शित किया गया। उसके बाद कई अन्य जगहों पर प्रदर्शित किया गया। हालांकि मुझे नेशनल अवार्ड मिलने की उम्मीद नहीं थी, लेकिन सम्मान मिलने पर खुशी होना स्वाभाविक है।'

पैदल पहुंचा गुरु के द्वार

कामाख्या के माता-पिता बिहार से ताल्लुक रखते हैं। हालांकि उनका जन्म, लालन-पालन और शिक्षा असम में हुई। दिल्ली विश्वविद्यालय से कामाख्या ने समाज कार्य में स्नातक किया है। कला का बीज उनमें असम में ही रोपा गया था। इस बारे में कामाख्या बताते हैं, 'गुवाहाटी में लोग कला के प्रति बहुत संवेदनशील हैं। प्रसिद्ध गायक और संगीतकार भूपेन हजारिका मेरे पहले गुरु थे। मैं तब 11वीं कक्षा में था। मुझे कविताएं लिखने का शौक था। असम में उग्रवाद के कारण काफी समय तक आवागमन के साधन बंद हो जाते थे। मुझे भूपेन हजारिका से मिलना था। उनसे मिलने के लिए मैं 15 किलोमीटर पैदल चलकर उनके घर गया था। वह थोड़ा अस्वस्थ थे। वहां घर में उनके साथ कुछ आर्टिस्ट बैठे हुए थे। मैंने सबके सामने अपनी कविता पढ़कर सुनाई। जिसे सुनकर भूपेन हजारिका ने मुझे गले लगाया और बोले, 'कामाख्या तुम्हारी तुलना नहीं हो सकती।' फिर प्रकाशक को चिट्ठी लिखी कि इन कविताओं पर किताब प्रकाशित की जानी चाहिए। यह आर्टिस्ट बनने के लिए पहला प्रोत्साहन था। उसके बाद भी उनसे कई बार मुलाकात हुई।' कामाख्या फिलहाल दो फिल्मों की तैयारी कर रहे हैं। इनमें एक जम्मू-कश्मीर पर आधारित होगी। दूसरी सामाजिक मुद्दे पर आधारित रोमांटिक कामेडी फिल्म होगी।

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