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सताए हुए पुरुषों के हक की लड़ाई है 'इंडियाज संस', सालों बाद पूजा बेदी भी पर्दे पर आएंगी नजर

Neha Dani
10 July 2022 7:07 AM GMT
सताए हुए पुरुषों के हक की लड़ाई है इंडियाज संस, सालों बाद पूजा बेदी भी पर्दे पर आएंगी नजर
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वह डाक्यूमेंट्री में बोलती हैं कि ‘बहुत अच्छी बात है कि हम बेटियों के लिए बोलते हैं, हमें बेटों के बारे में सोचना होगा कि उनके साथ जो अन्याय हो रहा है, उसके बारे में हम क्या कर रहे हैं!’

डाक्यूमेंट्री फिल्म 'मार्टर्स आफ मैरिज' का निर्माण करने वाली दीपिका नारायण भारद्वाज अब भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के दुरुपयोग पर आधारित 'इंडियाज संस: टेल आफ फाल्स रे* केस सरवाइवर' डाक्यूमेंट्री फिल्म लेकर आई हैं। दीपिका ने डाक्यूमेंट्री व अन्य मुद्दों को लेकर साझा किए अपने विचार...


वर्ष 2011 में मेरे परिवार में ही ऐसा वाक्या हुआ, जिसमें तय हुआ कि दोनों आपसी सहमति से तलाक ले लेंगे। पहली पेटिशन के बाद महिला के परिवार ने 498 ए के तहत दहेज मांगने, मारपीट करने जैसे झूठे आरोप लगा दिए। तब समझ आया कि 498 ए कानून का बहुत ज्यादा दुरुपयोग होता है। फिर सैयद अहमद मकदूम की सुसाइड वीडियो मेरे सामने आई। उसमें वह यही कह रहे थे कि कैसे उन्हें झूठे केस में फंसाया गया, लेकिन कानून इस मामले में एकतरफा है। इसलिए वह अपनी जान दे रहे हैं। उस वीडियो को देखकर लगा कि मुझे डाक्यूमेंट्री के जरिए इस मसले पर जागरूकता फैलाने की जरूरत है। पहले एक्टिविस्ट बनने का कोई इरादा नहीं था। मैंने आफिस से एक साल की छुट्टी लेकर 'मार्टर्स आफ मैरिज' बनाई। इसे बनाने में मुझे चार साल लग गए, क्योंकि फंड की बहुत दिक्कतें थीं।

'इंडियाज संस' की शुरुआत कहां से हुई?

साल 1983 में जब आर्टिकल 498 ए आया था, तभी बहुत सख्त था। जिसका दुरउपयोग भी खूब हो रहा था। वर्ष 2005 में कानून के दुरुपयोग को लीगल टेरेरिज्म बोला गया। तब भी कुछ बदलाव नहीं हुआ। साल 2013 में दुष्कर्म कानून में संशोधन के बाद धारा 376 के मामले भी आने लगे। 'इंडियाज संस' के सहनिर्देशक नीरज ने 'मार्टर्स आफ मैरिज' की एडिटिंग की थी। हमें लगा कि अब धारा 376 पर भी कुछ करना चाहिए।


असल जिंदगी में लोग जिस ट्रामा से गुजरते हैं, मुझे लगता है कि उसे दिखाने के लिए डाक्यूमेंट्री बहुत सशक्त माध्यम होता है। मैंने पांच-छह मामले दिखाए हैं। सब मामलों में उनके पास दमदार सबूत थे, फिर भी उन्हें सालों संघर्ष करना पड़ा। बाकी जब आप पुरुष केंद्रित इस तरह का कोई काम करते हैं तो फंडिंग की बहुत दिक्कत होती है।

कई लोग हैं, जो आरोपों-कचहरी की प्रक्रिया से हार मानकर सुसाइड कर लेते हैं। मैं बस यही कहूंगी कि हार न मानें। यह डाक्यूमेंट्री ढेरों सवाल उठाती है। उम्मीद है लोग इसे सकारात्मक तरीके से लें। इसे देखने के बाद समाज में स्वस्थ बहस प्रारंभ हो। महिलाओं की सुरक्षा के लिए कोई कानून बना है, लेकिन अगर उसका दुरुपयोग हो रहा है तो वहां सवाल उठाना चाहिए।

पूजा बेदी को इसमें शामिल करने की कोई खास वजह?

जब मी टू अभियान चला तब पूजा ने बहुत जोरदार तरीके से पुरुषों के लिए आवाज उठाई। उन्होंने कहा कि महिलाओं के लिए जो कानून हैं, उससे उनकी सुरक्षा होनी चाहिए, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आप आदमियों की जिंदगी बर्बाद कर दें। वह डाक्यूमेंट्री में बोलती हैं कि 'बहुत अच्छी बात है कि हम बेटियों के लिए बोलते हैं, हमें बेटों के बारे में सोचना होगा कि उनके साथ जो अन्याय हो रहा है, उसके बारे में हम क्या कर रहे हैं!'

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