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मुंबई | 18 अगस्त 1934 को झेलम जिले (अब पाकिस्तान का हिस्सा) में जन्मे संपूर्ण सिंह कालरा के गुलज़ार बनने की पूरी कहानी किसी जादू से कम नहीं है। उन्होंने कभी दिल को बच्चा बताया तो कभी जिंदगी से नाराज न होने की वजह बताई. बर्थडे स्पेशल में हम आपको कलम के जादूगर की जिंदगी के उन किस्सों से रूबरू करा रहे हैं, जिन्हें उन्होंने अपने दिल में बसा रखा है। दर्द के आंसुओं को हर लफ्ज़ में बयान करने वाले गुलजार को गजलों और नज्मों से कैसे प्यार हो गया, इसकी कहानी भी अपने आप में खास है। हुआ यूं कि 1947 के गदर में सबकुछ गंवाकर झेलम से भारत आए गुलज़ार जब दिल्ली पहुंचे तो उनकी पढ़ाई एक स्कूल में शुरू हुई।
उसी दौरान उनका उर्दू के प्रति लगाव बढ़ने लगा। ग़ालिब से उनकी नजदीकियां इतनी बढ़ गईं कि उन्हें ग़ालिब और उनकी शायरी से प्यार हो गया। गुलज़ार का ये प्रेम प्रसंग बदस्तूर जारी है. गौर करने वाली बात ये है कि गुलजार की कलम से निकले शब्दों में बंटवारे का दर्द साफ झलकता है। इसके अलावा वह खुद को एक संस्कारी मुस्लिम बताते हैं, जिसका मुख्य कारण हिंदी और उर्दू का संगम है। गुलजार की आवाज का जादू ऐसा था कि 18 साल का युवा और 80 साल का बुजुर्ग एक साथ बैठकर उनकी कविताएं सुनते हैं और उनकी तारीफ करते हैं।
बता दें कि दिल्ली में रहने के दौरान गुलज़ार एक गैराज में काम करते थे, लेकिन वहां भी उनका ग़ज़ल, नज़्म और शायरी से प्यार कभी कम नहीं हुआ। यही कारण था कि उनकी मित्रता उस युग के प्रसिद्ध लेखकों से हो गयी। इनमें कृष्ण चंदर, राजिंदर सिंह बेदी और शैलेन्द्र भी शामिल थे. शैलेन्द्र उस दौर के मशहूर गीतकार थे, जिन्होंने गुलज़ार की सिनेमा की दुनिया में एंट्री कराई। हुआ यूं कि शैलेन्द्र और एसडी बर्मन के बीच किसी बात पर बहस हो गई। ऐसे में शैलेन्द्र ने गुलज़ार से विमल राय की फिल्म बंदिनी के लिए गाने लिखने का अनुरोध किया। गुलजार ने फिल्म का गाना मोरा गोरा रंग लई ले लिखा, जिसने उनके लिए हिंदी सिनेमा के दरवाजे खोल दिये।
जब गुलजार मुंबई पहुंचे तो उनके घर में एक ऐसी घटना घटी, जिसका दर्द वह आज भी अपने दिल में छिपाए हुए हैं। हुआ यूं कि जब गुलज़ार मुंबई में थे तो उनके पिता अपने परिवार के साथ दिल्ली में रहते थे। उसी दौरान गुलजार के पिता का निधन हो गया, लेकिन परिवार वालों ने उन्हें इस बारे में कुछ नहीं बताया। कई दिनों के बाद जब गुलजार को अपने पिता के निधन की खबर मिली तो वह घर पहुंचे, लेकिन तब तक सब कुछ खत्म हो चुका था। इससे गुलज़ार को बहुत बड़ा झटका लगा, जिसके कारण उन्हें अपने पिता का अंतिम संस्कार करने में पांच साल लग गए। इस दर्द का जिक्र गुलजार ने अपनी किताब हाउसफुल: द गोल्डन इयर्स ऑफ बॉलीवुड में किया है।
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Harrison
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