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स्पेशल इफैक्ट्स पर थोड़ा ज्यादा काम जरुर हुआ है.
एक लाइन में इमरान हाशमी (Emraan Hashmi) की नई हॉरर मूवी के बारे में पूछेंगे तो जान लीजिए कि 'डिब्बुक' सीधे सादे हिंदी हॉरर मूवीज पसंद करने वालों के लिए एक ठीक-ठाक टाइम पास मूवी है, क्योंकि अंग्रेजी या किसी और भाषा की मूवी से तुलना नहीं करनी, और ना ही लॉजिक इस्तेमाल करना है. लेकिन जहां आपने लॉजिक लगाने शुरू किया, आपको ये मूवी बाकी हॉरर मूवीज जैसी ही नजर आएगी, लेकिन एक नए फॉर्मूले के साथ.
मूवी में दिखेगा यहूदी भूत
पहले तो 'डिब्बुक' नाम नया है, दरअसल जिस भाषा का ये शब्द है, उसी कल्चर से निकली है ये भूतिया कहानी. भारत में इजरायल और यहूदियों को आप नजरअंदाज नहीं कर सकते. उसी का फायदा डायरेक्टर ने उठाने की कोशिश की है मूवी में यहूदी भूत लाकर और उससे क्रिश्चियन कनेक्शन जोड़कर. हिंदी के लिए ये नया फॉर्मूला है, लेकिन यही मूवी पहले मलयालम में बन चुकी है, 'इजरा' के नाम से, पृथ्वीराज इसके हीरो थे और डायरेक्टर इसके भी वही मलयालम वाले हैं, जय कृष्णन (जेके).
आइलैंड में जाते हैं इमरान
कहानी में पत्नी के साथ मॉरीशस में चैन की जिंदगी गुजार रहे सैम (इमरान हाशमी) (Emraan Hashmi) को एक आइलैंड पर एक ऐसे प्रोजेक्ट की जिम्मेदारी मिलती है, जिसका काम दुनिया भर के न्यूक्लीयर वेस्ट को ठिकाने लगाना है, हॉरर मूवीज में एक पुरानी कोठी या विशाल बंगला होना भी जरूरी है, तो वो भी इन दोनों को वहां कंपनी से मिलता है, जिसको इंटीरियर डिजाइनर पत्नी माही सूद (Mahi Sood) हेरिटेज लुक देने के लिए एक एंटीक शॉप से डिब्बुक लेकर आती है. यहूदियों का वो बॉक्स या डब्बा जिसमें यहूदी अतृप्त आत्माओं को कैद कर देते थे.
अतृप्त आत्मा का साया
वो आत्मा उस बंगले में ढेर सारे खेल दिखाती है लेकिन एक बड़े मकसद के साथ. वो अतृप्त आत्मा थी एक यहूदी की, जिसकी गर्भवती ईसाई प्रेमिका की आत्महत्या के बाद उसकी भी दर्दनाक मौत उसके पिता को बेटे इजरा की आत्मा को डिब्बुक में बंद करने को मजबूर कर देती है. ऐसे में अब तक सामान्य हॉरर मूवीज देखने आने वालों के लिए कहानी में तो काफी उतार चढ़ाव और नयापन मिलेगा यानी यहूदी की आत्मा, डिब्बुक का कॉन्सेप्ट, आत्मा की हीरोइन के गर्भ में एंट्री, यहूदी-ईसाई विवाद, आत्मा का न्यूक्लियर प्लांट (Nuclear Plant) पर कब्जे का प्लान आदि.
पुराना फॉर्मूला
लेकिन कुछ मामलों में भूत की हरकतें पुराने वाली ही हैं, यानी शीशों का चटकना, कुत्ते को उसे पहचानकर भौंकना, खड़खड़ाहट के साथ तेज हवाएं, घरघराती हुई आवाज में बात करना, लॉकेट से डर जाना आदि. यूं तो फिल्म में तीन-चार बार डायलॉग्स हैं कि इन मामलों में लॉजिक ना लगाएं, साइंस से इसका क्या लॉजिक आदि. लेकिन लॉजिक लगाते ही मजा खराब होने लगता है. आत्मा ने एंटीक शॉप के नौकर को तो मार दिया, हीरोइन को क्यों बख्श दिया? क्यों आत्मा कभी हीरोइन के अंदर होती थी, कभी बाहर आकर हीरोइन को डराती रहती थी? क्यों हीरोइन के अंदर रहती हीरो को कुछ नहीं कहती थी? क्यों हीरो के अंदर घुसने के लिए उसको कोठी के बाहर लाकर जाल बिछाना पड़ा? जबकि वो सारी रात अंदर ही रहता था. आखिरी यहूदी उस डिब्बूक को घर में क्यों रखे हुए था? जबकि उसे पता था कि उसमें आत्मा है आदि आदि.
मूवी है छोटी
लेकिन हॉरर मूवीज (Horror Movies) में मजा तभी आता है, जब आप ऐसे तर्कों को खारिज कर देते हैं क्योंकि कुछ मर्जी अपनी भूत या आत्मा की भी होती है और कुछ डायरेक्टर की. सो अगर आप हॉरर मूवीज के शौकीन हैं तो शौक से एक बार जरूर देखें क्योंकि कुछ तो नयापन है इस मूवी में. डायरेक्टर ने भी अच्छी लोकेशन और अच्छे ट्विस्ट्स के जरिए मूवी को लगातार रोचक बनाए रखने की कोशिश की है. मूवी छोटी भी है, 112 मिनट की, सो आप बोर नहीं होंगे. इमरान हमेशा की तरह सदाबहार हैं, रोल में निकिता दत्ता बहुत बेहतरीन नहीं तो बुरी भी नहीं हैं, मानव कौल तो मंझे हुए हैं हीं. म्यूजिक के लिए कोई खास जगह इस मूवी में नहीं है, हॉरर मूवी होने के नाते बैकग्राउंड म्यूजिक और स्पेशल इफैक्ट्स पर थोड़ा ज्यादा काम जरुर हुआ है.
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