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Entertainment : धरती के भगवान 85 साल पहले सिनेमा में हुई थी डॉक्टर के किरदार

Kavita2
1 July 2024 9:01 AM GMT
Entertainment : धरती के भगवान  85 साल पहले सिनेमा में हुई थी डॉक्टर के किरदार
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Entertainment : भारतीय चिकित्सकों पर हिंदी सिनेमा में अलग- अलग कालखंडों में कई फिल्में बनी हैं जिनमें उन्हें मानवता के लिए समर्पित होने से लेकर भ्रष्टाचारी तक दर्शाया गया है। पहली जुलाई को डॉक्टर दिवस के अवसर पर ऐसी ही फिल्मों की सूची लेकर आए हैं, जिनमें सिनेमा जगत के कलाकारों ने डॉक्टर के किरदार को अमर कर दिया है।
डॉक्टर्स की कहानी दर्शाती हैं ये फिल्में
समाज में आए बदलाव कहानियों के जरिए सिनेमा में परिलक्षित होते हैं। यूं तो हर कहानी में पात्र
In every story, there are characters
किसी न किसी पेशे से जुड़ा होता है, लेकिन बात जब चिकित्सकों की होती है तो उसके साथ कई मर्यादाएं और नैतिकता भी जुड़ जाती है। हिंदी सिनेमा ने अपने शुरुआती दौर में चिकित्सकों की ऐसी ही छवि प्रदर्शित की। फिल्मों में चिकित्सक का संभवत: सबसे पहला चित्रण रोमांटिक ड्रामा फिल्म ‘दुश्मन’ (1939) में किया गया था।के.एल. सहगल, लीला देसाई, नजमुल हसन, पृथ्वीराज कपूर अभिनीत इस फिल्म का निर्देशन और लेखन नितिन बोस ने किया था। टीबी का मरीज यानी फिल्म का नायक के. एल. सहगल अंत में चिकित्सक की मदद से रोगमुक्त हो जाता है। यह वो दौर था जब देश स्वाधीनता संग्राम के मोर्चे पर उबल रहा था। सिनेमा डाक्टरों की कहानी के जरिए मानवता का संदेश और टीबी जैसी बीमारी का उपचार होने का संदेश दे रहा था।
फिल्म ‘डाक्टर’ (1941) में भी यह चलन कायम रहा। नायक अमरनाथ (प्रसिद्ध गायक पंकज मलिक) हैजा की महामारी के दौरान अपना पूरा जीवन गांववालों की सेवा में समर्पित कर देता है। उसके कुछ वर्ष बाद आई वी. शांताराम की फिल्म ‘डा. कोटनीस की अमर कहानी’ (1946) भारतीय चिकित्सक की देश की सीमाओं से परे उठकर मानवता को सर्वोपरि रखने की सच्ची कहानी थी। चीन-जापान के बीच युद्ध के दौरान भारतीय डाक्टरों के दल को चीनी सैनिकों के सहायतार्थ भेजा गया था।उसमें महाराष्ट्र के कोंकण में जन्मे डा. द्वारकानाथ कोटनीस भी शामिल थे। चीन प्रवास के दौरान वह चीनी सैनिकों में फैल रही संक्रामक बीमारी के लिए वैक्सीन बना रहे थे और उसका परीक्षण उन्होंने खुद पर शुरू कर दिया था। सही मायने में समाज के प्रति चिकित्सकों का समर्पण शुरुआती फिल्मों में ही परिलक्षित हुआ। यह सिलसिला उसके कुछ वर्ष बाद आई फिल्म ‘अनुराधा’ (1960) में कायम रहा, जिसमें बलराज साहनी का आदर्शवादी पात्र अपने परिवार की अनदेखी करते हुए मरीजों के प्रति समर्पित रहता है।
जिम्मेदारी का प्रदर्शन Demonstration of responsibility
वक्त के साथ कहानियों ने भी करवट ली। राजकुमार और मीना कुमारी अभिनीत ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ ने डाक्टर और नर्स के प्रेम संबंधों की कहानी कही। वहीं ‘आरती’ (1962) में डा. प्रकाश (अशोक कुमार) के जरिए अपने पेशे का फायदा उठाने वाले डाक्टर की कहानी दिखाई। यह तमाम कड़वाहटों के बावजूद डाक्टरों के अपनी जिम्मेदारी के प्रति बेईमान न होने के भरोसे को कायम रखती है। उसके बाद आई ‘आनंद’ (1971) और ‘तेरे मेरे सपने’ (1971) चिकित्सकों के बारे में अलग नजरिया लेकर आई।
‘तेरे मेरे सपने’ ने ग्रामीण भारत में चिकित्सकों की हालत और उनको लेकर बनी धारणाओं पर करारी चोट की। वहीं ‘आनंद’ में ‘बाबू मोशाय, जिंदगी बड़ी होनी चाहिए लंबी नहीं’ के जरिए बताने का प्रयास किया कि डाक्टरों को जीवन की गुणवत्ता के बजाय उसकी लंबाई की चिंता अधिक होती है। इसमें रोगी और डाक्टर के रिश्तों का करीब से आकलन किया गया।
कहानी समाज की
मेडिकल प्रोफेशनल को सौम्य, सज्जन और त्याग के रूप में दर्शाने के बाद डाक्टरों के चित्रण में बदलाव दिखा। सबसे साहसिक प्रयोग यश चोपड़ा ने अपनी फिल्म ‘सिलसिला’ में किया। इसमें डाक्टर बने संजीव कुमार का पात्र पत्नी के विवाहेतर संबंधों के बारे में सब कुछ जानते-समझते हुए चुप रहता है।
दूसरों के रोगों का इलाज करने वाला यह डाक्टर विपरीत परिस्थिति के बावजूद स्वयं को दिल का मरीज बनने नहीं देता। उसकी यही ताकत दर्शकों का मन मोह लेती है। वहीं स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में उभरती अनैतिक प्रथाओं या लापरवाही को दिखाने से फिल्मकारों ने गुरेज नहीं किया।
विनोद मेहरा और अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘बेमिसाल’ इसकी बानगी रही। इसमें विनोद मेहरा का पात्र डा. प्रशांत अवैध गर्भपात करने के लिए मोटी फीस लेता है। फिर एक मरीज की गर्भपात के दौरान हुई मृत्यु उसके जीवन में भूचाल लाती है। सही मायने में यह फिल्म अपने पेशे का बेजा फायदा उठाने के नुकसान दिखाती है।उसके बाद ‘मेरी जंग’, ‘एक डाक्टर की मौत’ जैसी कई चर्चित फिल्में आईं। ‘एक डाक्टर की मौत’ कुष्ठ रोग का टीका विकसित करने में लगे डाक्टर की कहानी होती है, जिसकी सफलता उसके आसपास के लोगों में ईर्ष्या भर देती है। झकझोर देने वाली यह कहानी समाज की सच्चाई को बयां करती है कि किस प्रकार एक प्रतिभा का हनन किया जाता है।
जब बदले चिकित्सक के रूप
वर्ष 2000 के बाद की कहानियों में डाक्टरों से जुड़े कई पहलू दिखें। इसमें सर्वाधिक सफल फिल्मों में शुमार ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ में पहले इलाज फिर औपचारिकताएं पूरी करने के साथ ‘जादू की झप्पी’ ने सबका ध्यान खींचा। सलमान खान अभिनीत ‘क्योंकि’ में चिकित्सक द्वारा मानसिक रोग से ग्रस्त मरीज को ठीक करने का अलग तरीका सामने आया।
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