सम्पादकीय

बढ़ती उम्र देह का धर्म है इसलिए घबराहट फिजूल है, समय के साथ कौशल भी बढ़ जाता है

Tara Tandi
14 July 2021 11:29 AM GMT
बढ़ती उम्र देह का धर्म है इसलिए घबराहट फिजूल है, समय के साथ कौशल भी बढ़ जाता है
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कोरोना की पहली और दूसरी लहरों ने लोगों को घरों में कैद कर दिया है.

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | शंभूनाथ शुक्ल| कोरोना (Corona) की पहली और दूसरी लहरों (Second Wave) ने लोगों को घरों में कैद कर दिया है. बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं और नौकरीपेशा 'वर्क फ्रॉम होम'. इससे और कुछ हो न हो लोग घर-घुस्सू बनते जा रहे हैं. इससे वह लोग बहुत प्रभावित हो रहे हैं, जो 50 प्लस हैं. उनको लगता है कि नियोक्ता किसी भी दिन उनकी छुट्टी कर सकता है. ऐसे भी इस उम्र का व्यक्ति घबराता बहुत है. फिर भले वह नौकरीपेशा हो, व्यापारी हो या फिर कोई अन्य प्रोफेशनल. उनको लगता है कि बस अब उम्र का आखिरी पड़ाव आ पहुंचा है और वह जल्द ही सीनियर सिटीजन कहलाने लग जाएंगे. उन्हें यह भी घबराहट होती है कि उनका अब तक जो रौबदाब है वह समाप्त हो जाएगा और वह सामान्य लोगों की तरह जिंदगी की बाकी अवधि काटेंगे. लेकिन यह घबराहट फिजूल होती है. उम्र की इस स्थिति को प्राप्त सभी होते हैं. यह तो उम्र का एक पड़ाव है और इस उम्र तक पहुंचना भी लाजिमी है. लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि मनुष्य की सक्रिय जिंदगी अब समाप्त.

इसे अगर यूं लिया जाए कि यह एक कुदरत का नियम है और इसे आप जिंदगी की दूसरी पारी की तरह लीजिए. अब आप स्वतंत्र हैं जिंदगी की एक बनी बनाई लीक से अलग हटकर जीने के लिए तब शायद लोग इसकी सार्थकता को बेहतर ढंग से समझ पाएंगे. पर भावी की आशंका से सब डर जाते हैं और वे येन-केन-प्रकारेण अपनी बढ़ती उम्र को छिपाने का भरसक प्रयास करने लगते हैं पर जैसे सूरज को निकलने से नहीं रोका जा सकता वैसे ही उम्र का यह पड़ाव भी आए बिना नहीं जाता. यह जिंदगी की गाड़ी की एक कड़वी सच्चाई है कि वह इस पड़ाव पर रुकेगी जरूर.
कुछ कुदरती नियम होते हैं और उन्हें बदला नहीं जा सकता. पर उसे लेकर बेचैन रहना और उस बेचैनी में अपना जीवन अस्त-व्यस्त कर लेना कहां की बुद्धिमानी है! जैसे जन्म के साथ मृत्यु निश्चित है और अवश्यसंभावी है. ठीक उसी तरह उम्र का काम है अनवरत बढ़ते रहना. समय कभी ठहरता नहीं है वह हर दिन चलता रहता है और उसी के साथ हर जीवधारी की उम्र भी बढ़ती रहती है.
कुछ लोग तो 55 पार करते ही घबराने लगते हैं और उन्हें लगता है कि बस अब उनकी रिटायरमेंट की अवधि क़रीब आ गई. जबकि उनकी यही उम्र होती है उनसे बेस्ट लेने के लिए मगर घबराहट में वे कदम-कदम पर चूक करने लगते हैं. कामकाज में उनका मन नहीं लगता और हर वक्त भविष्य की आशंका से त्रस्त रहते हैं. ऐसे लोग दफ्तर या वर्क प्लेस पर पूरी तन्मयता से काम नहीं कर पाते और दूसरों के काम में मीनमेख कुछ अधिक ही निकालने लगते हैं. वे अक्सर कहते मिलते हैं कि नई उम्र के लोग काम करने में काहिल हैं अथवा मतलबी हैं और किसी एक स्थान पर निष्ठापूर्वक या जमकर काम नहीं करते. और इस तरह वे अपनी अपरिहार्यता बनाए रखने की जद्दोजहद करते रहते हैं. लेकिन यह उनकी मृग मरीचिका ही साबित होती है. इसलिए उम्र बढ़ने को एक कुदरती नियम मानकर अपने को व्यस्त रखने का और जीवन के प्रति सकारात्मक रुचि बनाए रखने का प्रयास करते रहना चाहिए. इससे आप जिंदगी के हर क्षण को राजी-खुशी जिएंगे.
दरअसल जो लोग जिंदगी को सम भाव से लेते हैं उनके लिए उम्र का यह पड़ाव कोई भयावह नहीं बल्कि देह का धर्म है. जैसे बीमार पड़ना स्वाभाविक है और उसका निराकरण इलाज है उसी तरह उम्र बढ़ना भी एक एक शारीरिक स्थिति है और उसे भार समझना या घबराना एक मानसिक विकार. इसका निराकरण है कि उम्र के इस पड़ाव को समभाव से स्वीकार किया जाए. बचपन, किशोरावस्था और युवावस्था की तरह यह भी एक ठहराव है. बस अंतर इतना है कि इस उम्र तक आते-आते शरीर में शिथिलता आ जाती है. पर जो लोग इस शिथिलता को अपने अंदर घर नहीं करने देते और सोत्साह लेते हैं उनके लिए यह उम्र का यह ठहराव शरीर की एक स्वाभाविक प्रक्रिया भर है.
अत: अपनी उम्र के इस ठहराव के प्रति बहुत चिंतित होने अथवा अंदर से स्वयं को शिथिल नहीं होने दें, बल्कि यह सोचें कि प्रकृति अब आपसे कुछ और करवाना चाहती है. वह और कुछ समाज सेवा हो सकती है, कुछ और क्रियेटिव काम हो सकता है. वह और कुछ जो अभी तक के आपके परंपरागत काम से अलग हो. जैसे कुछ लोगों ने इस उम्र में आकर गरीब और बेसहारा बच्चों को पढ़ाने का काम शुरू कर दिया तो कुछ ने दूसरे अनाश्रित वृद्धों की देखभाल शुरू कर दी. लेकिन अधिकांश लोग पहले तो रिटायरमेंट को एक अप्रिय प्रसंग के तौर पर लेते हैं और फिर उम्र को कोसते हैं या इसे अपना बुढ़ापा समझ कर रोना शुरू कर देते हैं. कुछ लोग तो रिटायरमेंट के बाद कुछ सक्रिय रहने के बजाय घर पर उदास बैठे रहते हैं या अतीत जीवी हो जाते हैं और यही बुढ़ापे के लक्षण हैं. वे या तो अपने हमउम्र मित्रों के साथ खाली बैठकर या गप्पे लड़ाकर अथवा अपने परिवार में उलझ कर दिन गुजारते रहते हैं. और जरा-जरा सी बीमारी के आते ही वे निराशा में डूब जाते हैं और उन्हें लगता है कि बस अब जीवन का अंत समय आ पहुंचा.
कुछ लोगों ने तो जीवन की शुरुआत ही इसी उम्र में आकर की. हिंदी के यशस्वी लेखक यशपाल ने तो अपनी युवावस्था के दिन जेलों में काटे और आजादी के बाद उन्होंने लेखन कार्य शुरू किया. उनकी पहली कहानी तब छपी थी जब उनकी उम्र 45 साल की थी. उन्होंने लेखन और वह भी स्वतंत्र लेखन के बूते अपनी जिंदगी काटी. वे 70 साल की उम्र में भी रोज सुबह दस बजे अपनी राइटिंग टेबल पर जाकर बैठ जाते और उसी तरह काम करते रहते जैसे कि कोई दफ्तर में बॉस की मातहती में करता है.
वे निर्धारित समय पर लंच करते और फिर शुरू हो जाते. यह उनकी जीवन शैली एक बनी बनाई ढर्रे वाली जिंदगी से भिन्न थी. इसलिए वे मृत्युपर्यन्त सक्रिय रहे और लेखन कार्य में मशगूल रहे. कुछ और नामचीन हस्तियों में से, अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध लेखक मुल्कराज आनंद और पत्रकार खुशवंत सिंह भी ऐसे ही शख्स रहे जिन्होंने लंबी उम्र पाई और पूरी उम्र सक्रिय रहे. लिखते-पढ़ते रहे तथा उन्होंने अपनी किसी आदत या शौक को नहीं छोड़ा. जैसे कि खुशवंत सिंह रोजाना दो पेग शराब लिया करते थे और उन्होंने अपनी इस आदत को नहीं छोड़ा. देश के प्रधानमंत्री रह चुके मोरार जी देसाई ने लगभग 99 वर्ष की उम्र पाई और वे अपने अंतिम समय तक फिट थे और रोजाना की तरह ही अपने रूटीन काम निपटाते थे.
इसलिए बढ़ती उम्र से घबराने की बजाय अगर लोग उसे जस का तस स्वीकार करने की कोशिश करें तो जिंदगी सुचारु रूप से कटेगी. जिंदगी में स्वस्थ रहने का सही तरीका यह है कि हर परिस्थिति को स्वीकार करना. यह स्वीकारोक्ति ही मनुष्य को हर चुनौती से निपटने में सहायक होती है. जिन लोगों ने कठिन से कठिन हालात के आगे भी घुटने नहीं टेके वही सफल हुए. और सफलता का मूलमंत्र भी यही है कि अपना हौसला बनाए रखना और निरंतर सोत्साह अपने को प्रस्तुत करते रहना.


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