सम्पादकीय

जमीन की बात : इतना जटिल क्यों है भारत का भूमि बाजार, इन मूलभूत बाधाओं को दूर करना बड़ी चुनौती

Neha Dani
16 Sep 2022 2:39 AM GMT
जमीन की बात : इतना जटिल क्यों है भारत का भूमि बाजार, इन मूलभूत बाधाओं को दूर करना बड़ी चुनौती
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भूमि एकत्रीकरण के लिए महत्वपूर्ण चुनौती बना रहेगा।

बुरी तरह से संचालित भारतीय भूमि बाजारों की आर्थिक लागत क्या है? जमीन से संबंधित खबरें और सार्वजनिक नीतियां अक्सर सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण के इर्द-गिर्द घूमती हैं, जैसे टाटा नैनो सिंगुर मामला या भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन (एलएआरआर) अधिनियम, 2013। भूमि बाजारों में गड़बड़ी या इससे जुड़े विवाद के कई कारण हैं। कई दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की तरह भारत की जटिल विरासत प्रणाली के चलते भूमि के छोटे-छोटे टुकड़े हो गए हैं, और समय के साथ भूमि का विखंडन बढ़ता जा रहा है।




वर्ष 2015 में देश में कृषि योग्य भूमि की औसत जोत का आकार 1.1 हेक्टेयर (2.7 एकड़) था, जो 1971 के 2.3 हेक्टेयर (5.7 एकड़) से कम था। छोटे-छोटे टुकड़ों के अलावा अस्पष्ट मालिकाना हक और सुस्त अदालतें देश में जमीन की खरीद को जोखिम भरा बना देती हैं। इसके अलावा, कृषि उपयोग वाली जमीन खरीदने में नौकरशाही और कानूनी बाधाओं का सामना करना पड़ता है। भूमि विवाद भारतीय अर्थव्यवस्था के कई पहलुओं को प्रभावित करता है।


जैसे, बदतर तरीके से चालित भूमि बाजार भारतीय शहरों के आकार और विकास, आंतरिक प्रवास, बुनियादी ढांचे के विकास, पसंदीदा फसल, किसानों की आय, विनिर्माण उत्पादकता और विकास तथा अर्थव्यवस्था के संरचनात्मक बदलाव को प्रभावित करते हैं। भारत में 68 फीसदी कृषि जोत को सीमांत खेत माना जाता है, जो एक हेक्टेयर से कम होता है। इसके विपरीत पाकिस्तान और अमेरिका में क्रमशः 36 फीसदी और शून्य फीसदी सीमांत खेत हैं।

नीतियों एवं विनियंत्रण के कारण छोटे भूखंड चकबंदी को कठिन बनाते हैं और कृषि उत्पादकता को नुकसान पहुंचाते हैं। शोध से पता चला है कि स्वतंत्रता के बाद सख्त बंटाई कानूनों के चलते बंटाईदारी घट गई, जिससे कृषि उत्पादकता में औसतन 38 प्रतिशत की कमी आई है। इसका एक और नतीजा यह है कि सीमांत खेतों में पर्याप्त मशीनों का उपयोग नहीं हो सकता, न ही नकदी फसलों की खेती हो सकती है। यानी ऐसे खेतों से ज्यादा लाभ नहीं उठाया जा सकता।

भारत में दो फीसदी विनिर्माण कंपनियों के पास दस या उससे ज्यादा कर्मचारी हैं, जबकि मैक्सिको और अमेरिका में ऐसी कंपनियों की संख्या क्रमशः आठ और चालीस फीसदी है। यह बड़ी समस्या है, क्योंकि बड़ी कंपनियां कम शिक्षित श्रमिकों के लिए ज्यादा रोजगार पैदा करती हैं। बड़ी भारतीय कंपनियां (दस या ज्यादा कर्मचारियों वाले) 35 फीसदी विनिर्माण श्रमिकों को रोजगार देती हैं, जबकि मैक्सिको में ऐसी कंपनियां 78 फीसदी विनिर्माण श्रमिकों को रोजगार देती हैं।

भारत में विनिर्माण कंपनियों के विकास न करने का एक कारण भूमि विवाद भी है। यदि कोई कंपनी अपना विस्तार करना या एक नई फैक्टरी लगाना चाहती है, तो उसे जरूरी भूमि अधिग्रहण के लिए सौ से ज्यादा भूस्वामियों से बात करनी पड़ती है। ऐसा परिवहन उपकरण और रसायन निर्माण जैसे उद्योगों के मामले में खासकर होता है। अमेरिका और भारत में ऑटोमोबाइल संयत्र के लिए भूमि अधिग्रहण के उदाहरण से इसे बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।

इंडियाना में अपने फोर्ट वायने ऑटो संयंत्र के लिए कंपनी के महानिदेशक ने 29 भूस्वामियों से 379 हेक्टेयर भूमि दो महीने में खरीद ली। जबकि टाटा नैनो संयंत्र मामले में पश्चिम बंगाल सरकार ने 12,000 भूस्वामियों से 13,970 से अधिक भूखंडों को मिलाकर 404 हेक्टेयर भूमि एकत्र की थी। मैंने अपने शोध में पाया कि भूमि विवाद के चलते विनिर्माण कंपनियां टुकड़ों में भूमि अधिगृहीत करती हैं, और कई बार जमीन हासिल करने के लिए वर्षों इंतजार करती हैं।

सरकारी कंपनियों की तुलना में निजी कंपनियां छोटे-छोटे टुकड़ों में जमीन खरीदती हैं। इसके अलावा कंपनियों को जमीन की कीमत से ज्यादा खर्च पर्याप्त भूखंड एकत्र करने में करना पड़ता है। भूमि एकत्रीकरण की लागत दो रूपों में आती है-निश्चित लागत और परिवर्तनीय लागत। अपने यहां भूमि एकत्रीकरण के मामले में परिवर्तनीय लागत निश्चित लागत से ज्यादा मायने रखती है। प्रति हेक्टेयर परिवर्तनीय भूमि एकत्रीकरण लागत भूमि के आकार के साथ बढ़ती है।

इसलिए बड़ी कंपनियों के लिए लागत बहुत ज्यादा होती है। ऐसा भूखंडों के छोटे आकार एवं अस्पष्ट मालिकाना हक के कारण होता है। निजी कंपनियों को सरकारी कंपनियों की तुलना में तीन गुना ज्यादा भुगतान करना पड़ता है। कई राज्यों में कंपनियां भूमि के लिए विक्रय मूल्य से दो गुना ज्यादा भूमि एकत्रीकरण के लिए भुगतान करती हैं। हमें समझना चाहिए कि सीमांत कृषि भूमि पर खेती आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती है और लाखों परिवारों के लिए आय का एकमात्र स्रोत है, भले ही उसका उत्पादक रूप से उपयोग न किया गया हो।

भले ही हम केवल सीमांत किसानों के लाभ को अधिकतम करने की परवाह करते हों, पर ऐसा कोई कारण नहीं है कि कृषि क्षेत्र में भूमि समेकन नीतियां आज भारत में अवैध हैं। भूमि एकत्रीकरण टकराव को देखते हुए भारत में बाजार समाधान कामयाब नहीं होने वाला है, जिसमें बिचौलिए सौदेबाजी करते हैं और जब तक अधिकतम लाभ नहीं मिलता, जमीन को खरीदते- बेचते रहते हैं। ऐसे में हमारे पास दो संभावनाएं बचती हैं।

पहली संभावना लैंड पूलिंग नीतियां हैं, जो कई राज्य सरकारें वर्तमान में विभिन्न पैमानों पर कर रही हैं। लैंड पूलिंग निश्चय ही विनिर्माण कंपनियों की कुल लागत कम करेगी और उनकी विकास दर में वृद्धि करेगी। दूसरी संभावना सरकारी एवं निजी कंपनियों के लिए भूमि एकत्रीकरण लागत कम करने की है। इसके लिए सरकार ने जमीन के पुराने दस्तावेजों को डिजिटाइज करने का काम पहले ही शुरू कर दिया है। 30.2 करोड़ पंजीकरण रिकॉर्ड (आरओआर) में से 94 फीसदी पहले ही डिजिटाइज हो चुके हैं।

इसके अलावा, 13.5 प्रतिशत गांव के नक्शों का पुन: सर्वेक्षण किया गया है, हालांकि ये नक्शे आरओआर या विभिन्न राज्यों की अदालती व्यवस्था से जुड़े हैं या नहीं, यह पता नहीं है। एक बार डिजिटलीकरण और पुनर्सर्वेक्षण की इन मूलभूत बाधाओं को दूर करने के बाद भी भूमि का विखंडन कुछ हद तक भूमि एकत्रीकरण के लिए महत्वपूर्ण चुनौती बना रहेगा।


सोर्स: अमर उजाला
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