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गर्मियों के आने से पहले ही इस बार न केवल मौसम का पारा चढ़ने लगा है
विजय त्रिवेदी,
गर्मियों के आने से पहले ही इस बार न केवल मौसम का पारा चढ़ने लगा है, बल्कि सामाजिक थर्मामीटर पर भी तापमान तेजी से बढ़ने लगा है। आप कह सकते हैं कि इन दोनों में कोई बहुत अनहोनी बात नहीं है। कई बार तेज गरमी पड़ती है और कई मौके ऐसे भी आए हैं, जब सोसायटी में साथ रहते-रहते थोड़ी तकलीफ महसूस होने लगती है, यानी किसी भी त्योहार के मौके पर तनाव बढ़ता दिखाई देता है।
हो सकता है कि बहुत से लोग इस बदलते माहौल को राजनीतिक रंग देने की कोशिश करें या सारा दोष उनके सिर पर डाल दें, लेकिन यह देखने का अपना-अपना नजरिया है। क्या एक बार इस मसले पर खुद के अंदर झांकने की कोशिश की जा सकती है? क्या हम दिमागी तौर पर नफरती होते जा रहे हैं और जेहन में यह जहर कौन भर रहा है? अब मसला शोभायात्रा, जुलूस और त्योहारों पर सांप्रदायिक तनाव बढ़ने भर का नहीं रह गया है और न ही यह मसला सिर्फ चुनावी राजनीति का है कि चुनाव जीतने के लिए लोगों को बांटा जाए। क्या दीवारें अब मजबूत होने लगी हैं? खाई को पाटने की बात तो दूर, क्या उसकी चौड़ाई बढ़ती जा रही है? किसी बीमारी का इलाज तभी होता है, जब आप उसकी जड़ को पहचान जाएं, मर्ज को समझ लें, कारण जान लें। आंखें बंद करने या 'डिनायल मोड' में आने से बीमारी ठीक तो हरगिज नहीं होती, उसके बढ़ने की आशंका जरूर बढ़ जाती है। लगता है, अब वक्त आ गया है कि बीमारी को पहचान लें और इसे बढ़ाने वाली वजहों को भी समझें।
'सीएसडीएस' ने एक अध्ययन साल 2016 में किया था। यदि इसे सच मानें, तो तीन चौथाई आबादी को किसी भी मजहब से, किसी भी त्योहार से, जुलूस और शोभायात्रा से कोई परेशानी नहीं है। उन्हें पड़ोसी के किसी भी धर्म का होने से भी कोई परेशानी नहीं है। एक चौथाई से भी कम लोगों को मंदिर या मस्जिद पर लगे लाउडस्पीकर और उस पर सुनाई देने वाली अजान या भजन से परेशानी महसूस होती है। ज्यादातर लोगों को आपके खाने-पीने से कोई तकलीफ नहीं है, बल्कि एक अध्ययन के मुताबिक, देश की 60 फीसदी से ज्यादा आबादी मांसाहार करती है। यदि इसमें अंडा खाने से परहेज नहीं करने वालों को जोड़ दें, तो यह 70 फीसदी से ऊपर का आंकड़ा बैठता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 के मुताबिक, देश के 30 राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों में से आधे से ज्यादा में 90 फीसदी आबादी मछली या चिकन खाती है। केवल चार राज्य हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और गुजरात में 60 फीसदी आबादी शाकाहारी बताई गई है। राजस्थान में सबसे ज्यादा करीब 75 फीसदी लोग शाकाहारी हैं। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से मांस उद्योग में लगे बड़े घरानों में ज्यादातर हिंदू परिवार हैं। तो क्या हम भोजन के आधार पर मजहबी बंटवारा कर सकते हैं? इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार के उस फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें नवरात्र के दौरान खुले में मांस बेचने पर रोक लगाई गई थी।
क्या यह भी पूरा सच है? अब समाज के एक बड़े तबके की सोच में भाषा, कपड़े और भोजन मजहब की पहचान बन गए हैं। अब हम खीर और बिरयानी को बांटने लगे हैं। पायजामा और मर्दाना धोती को बांट दिया है। भाषा में हिंदी को हम हिंदुओं और उर्दू को मुसलमानों की जुबान मानने लगे हैं। क्या आप जानते हैं कि देश के बहुत बड़े हिस्से में लोग अपनी-अपनी प्रांतीय भाषाएं बोलते हैं? हमारे यहां राज्यों का बंटवारा भाषायी आधार पर हुआ है, मजहबी आधार पर नहीं। ज्यादातर फिल्मकारों, नाटककारों और कलाकारों की जुबान उर्दू है, लेकिन उनकी लिपि देवनागरी, यानी हिंदी है। ज्यादातर प्रसिद्ध भजन मुस्लिम कलाकारों के लिखे और गाए हुए हैं। संगीत की दुनिया के ज्यादातर उस्ताद मुसलमान हैं। डागर बंधुओं को कभी आपने वैदिक ऋचाएं गाते हुए या ध्रुपद सिखाते हुए देखा है? लेकिन हमने तो कव्वाली और भजन को भी बांट दिया। कविता और शायरी को भी बांट दिया। मुशायरे और कवि सम्मेलन भी अब बंटने लगे हैं।
यह भी अधूरा सच है, क्योंकि देश का एक बड़ा हिस्सा, एक बड़ी आबादी अब भी आपके झांसे में नहीं आ रही। अब भी अयोध्या में रामलला की पोशाक या वृंदावन में कन्हैया को सजाने का काम मुसलमान कारीगर करते हैं। हिंदू मंदिरों में बजने वाले घंटे-घड़ियाल जलेसर के मुस्लिम कारीगर और व्यापारी बनाते हैं। होली के रंगों को खुशबू और खिलखिलाहट मुसलमानी हाथों से मिलती है। मिर्जापुर के विंध्यवासिनी मंदिर में चढ़ने वाला कलावा का रंग मुस्लिम कलाकारों के हाथों से चढ़ता है। उत्तर प्रदेश के बाराबंकी में देवा शरीफ की मजार पर ईद के मौके पर हिंदू मिठाई बांटते हैं। अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह हो या दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन की दरगाह, वहां जाने वाले 70 फीसदी लोग हिंदू होते हैं। गोरखपुर के खजनी गांव में झारखंडी महादेव के मंदिर में पूजा के लिए मुस्लिम लाइन लगाते हैं। कारोबार की बात करें, तो चाहे वह जयपुर का कालीन उद्योग हो या रंगीन पत्थरों का हर दिन होने वाला करोड़ों का व्यापार, उसमें कारीगर मुसलमान हैं और व्यापारी हिंदू। सूरत के हीरा उद्योग का हाल भी कमोबेश ऐसा ही है।
मुद्दा त्योहारों या किसी खास मौके पर तनाव या दंगे का नहीं है। यह मसला मानसिकता में पैदा होती सड़न का है, जिसकी बदबू अब सोसायटी में फैलने लगी है। खुद को राजनेताओं के हाथों में खेलने के लिए मत छोड़िए। आप वह कठपुतली नहीं हैं, जिनकी डोर राजनेताओं के हाथों में है। आप स्वस्थ हैं, सजग हैं, बुद्धिमान हैं और खुद अपने फैसले कर सकते हैं। कोई ऐसी जंग नहीं, जो मोहब्बत से नहीं जीती जा सकती, तो मोहब्बत कीजिए, पहले खुद से और फिर अपने दोस्तों व पड़ोसियों से। पहचान कपड़ों से नहीं, दिल से कीजिए। तहजीब हाफी की एक पंक्ति याद आ रही है- मैं मुश्किल में तुम्हारे काम आऊं या न आऊं, मुझे आवाज दे लेना तुम्हें अच्छा लगेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Rani Sahu
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