सम्पादकीय

अपने घर की सफाई के लिए सफाई कर्मचारियों को बाहर से नहीं बुला सकते, यह काम खुद करना होगा

Gulabi Jagat
6 May 2022 8:34 AM GMT
अपने घर की सफाई के लिए सफाई कर्मचारियों को बाहर से नहीं बुला सकते, यह काम खुद करना होगा
x
ओपिनियन
एन. रघुरामन का कॉलम:
मैं अपनी सारी ट्रिप में एक मंझोले आकार के सूटकेस से ज्यादा कुछ नहीं ले जाता। पर इस हफ्ते जब इंदौर गया, तो दो सूटकेस ले गया, एक में मेरी बेटी के कपड़े थे, जिन्हें हमने दान करने का फैसला किया था। मैंने वो पूरा सूटकेस किरण अग्रवाल के नेतृत्व वाले ट्रू सेज फाउंडेशन के हवाले कर दिया, यह सेज ग्रुप की सीएसआर संस्था है, यह समूह कई बिजनेस जैसे निर्माण, शिक्षा और हॉस्पिटल आदि क्षेत्र में काम करता है।
मैंने लॉकडाउन के दौरान भोपाल-इंदौर में इस फाउंडेशन को असल जरूरतमंदों के लिए बहुत अच्छा काम करते हुए देखा है। आमतौर पर परिवार में हम ऐसी चीजें दान करते हैं जिनकी जरूरत नहीं होती, हम देखते हैं कि यह असली जरूरतमंदों तक पहुंचे। हमें कभी किसी और पर भरोसा नहीं होता कि हमारे बदले कोई और जरूरतमंदों तक सामान पहुंचा सकता है।
यह जानने में सालों लग गए कि दूसरों को कोई चीज देने से रोकने वाला कारण हमारा संदेह नहीं है, जबकि वे लोग इसे जरूरतमंद लोगों को देते हैं। कारण हमारा ईगो है, जो हमें ऐसा करने से रोकता है। हां, आपने सही पढ़ा! हमारे भीतर कहीं न कहीं हमारा दिमाग, सामान लेते हुए उन लोगों की भीगी आंखें देखना चाहता है, कान 'धन्यवाद' के वो शब्द सुनना चाहते हैं।
हम जो देते हैं, जैसे देते हैं, कहीं न कहीं यह हमारे ईगो को और बढ़ा देता है। मुझे लगता है कि हमें इसमें मजा आता है। पर इस बार मैंने अपने ईगो के सफाए का निर्णय लिया। मैंने महसूस किया कि हमारा दिमाग पछतावे, उम्मीदों, रहस्यों, चिंताओं, तुलनाओं, विद्वेषों व जाहिर तौर पर अहंकार जैसी चीजों से भरा हुआ है।
आप सोच रहे होंगे कि मुझे ये ज्ञान कहां से प्राप्त हुआ? रामकृष्ण परमहंस को हाल ही में पढ़ते हुए मैंने एक कहानी पढ़ी, जिसमें एक महान अहंकारी संत थे, उन्हें लगता था कि भगवान की सेवा में उन जैसा जीवन किसी ने समर्पित नहीं किया। वो वाकई महान संत रोज कम से एक आदमी को भोजन कराते थे। एक दिन खाने कोई नहीं आया। आखिर में एक 70 साल का भूखा बुजुर्ग आया।
संत ने उनका स्वागत किया, हाथ-पैर धुलाए और केले के पत्ते के सामने बैठाया। जैसे ही वह खाना परोस रहे थे, बुजुर्गवार से कहा, 'आइए आज के भोजन के लिए भगवान को धन्यवाद कहें।' बुजुर्ग ने कहा, 'अगर तुम चाहते हो कि भोजन देने के लिए मैं भगवान को धन्यवाद कहूं, तो मैं ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हूं, क्योंकि मैं नहीं मानता कि भगवान हैं।' भगवान की मौजूदगी का तर्क चलता रहा और आखिर में वो संत नाराज हो गए और बोले, 'जो भगवान पर भरोसा नहीं करता, उसे खिलाने का मेरा मन नहीं है।'
बुजुर्ग उठकर चले गए। जब संत सोच रहे थे कि क्या करें, अचानक भगवान कृष्ण प्रकट हुए और बोले, 'पिछले 70 सालों से ये आदमी कह रहा है कि मेरा कोई अस्तित्व नहीं, तब भी मैं उसे हर रोज भोजन दे रहा हूं। मुझे लगा कि तुम मेरे अच्छे भक्त हो और मेरा आदेश मानोगे इसलिए मैंने इसे आज तुम्हारे पास भेजा था, लेकिन दुर्भाग्य से तुमने सब बिगाड़ दिया।' ये कहानी सुनकर मुझे अहसास हुआ कि असल जरूरतमंदों को कुछ देने का मौका बहुत कम मिल पाता है।
बैंक का उदाहरण लें। वे किसी ऐसे को बुलाकर पैसा नहीं देते, जिसके पास पैसे न हों। जब आप बताएं कि आपके पास 10 लाख रु. हैं, तो वे आपको 40 लाख का लोन दे देंगे। इसका मतलब है कि वे सारे लोग जो आपके आगे हाथ फैलाते हैं और चीजें लेकर जाते हैं, वे कोई भिखारी नहीं कि आपको अहंकार हो। इसलिए मैंने किसी के माध्यम से देने का फैसला किया और यह जानने से इनकार कर दिया कि यह किसके पास गया।
फंडा यह है कि असली घर (पढ़ें दिमाग) की सफाई के लिए सफाई कर्मचारियों को बाहर से नहीं बुला सकते। यह काम खुद करना होगा।
Gulabi Jagat

Gulabi Jagat

    Next Story