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
पहले जूते और चेहरे पालिश किए जाते थे, कि आदमी अपने दबदबे के दोबाला हो जाने का एहसास करवा सके। अब तो भाई जान, बाज़ार में बिकती सब्ज़ी से लेकर फल-फूल तक चमका कर, उनको पालिश और दवाओं के इंजैक्शन तक लगा कर बेचे जाते हैं ताकि उनके बढि़या होने के प्रति ग्राहक आश्वस्त हो सके। दुगने दाम उसे खरीद कर ले जाएं और घर में आए मेहमानों को पेश करते हुए कहें, 'जनाब यह फल नहीं तोहफे हैं, अभी काबुल-कंधार से मंगवाए हैं, सिर्फ आपके लिए।' उन्हें भई यह बड़े आदमियों का दस्तरखान है। यहां बैठ कर जीमने का मौका मिल गया। अहोभाग्य। चाहे घर पहुंचते अपना पेट पकड़ कर वे धाराशायी हो जाएं। तो भी इसका दोषी बड़े लोगों का दस्तरखान नहीं, उनके घर का कूड़ा-कर्कट और प्रदूषण होगा, जो 'स्वच्छ भारत के ज़ोरदार नारों के बीच' उनकी देहरी छोड़ कर नहीं गया। चुनाव के दिनं में नेता लोग उनके चौराहे तक आए थे। हाथ में झाड़ू और बगल में प्रैस मीडिया का जुगाड़ करके। नेता जी और उनके चगलगीरों ने नारों भरे उत्साह के साथ उनका चौराहा साफ किया था। फिर मतदान हो गया। नेताजी सत्ता के हवाई मीनार में बैठे गए।