सम्पादकीय

योगी का इरादा, सही या जोखिम भरा?

Gulabi
10 Jun 2021 3:35 PM GMT
योगी का इरादा, सही या जोखिम भरा?
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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सोच-समझ कर जोखिम लेते दिख रहे हैं

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सोच-समझ कर जोखिम लेते दिख रहे हैं। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से अगर सचमुच उनका टकराव है और वे शीर्ष नेतृत्व की इच्छा के विपरीत अपने चेहरे पर चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं लेकिन यह कैलकुलेटेड रिस्क है। वे राजनीतिक और चुनावी पहल अपने हाथ में रखना चाहते हैं और अपने चुने हुए मैदान पर अपने नियमों और शर्तों के साथ लड़ना चाहते हैं। यह अच्छी सोच है। हर महत्वाकांक्षी और साहसी नेता अपनी भविष्य की योजनाओं पर इसी तरह से अमल करता है। अगर भाजपा की ही राजनीति के संदर्भ में देखें तो कह सकते हैं कि 20 साल पुराना इतिहास दोहरा रहा है। कोई 20 साल पहले इसी तरह का टकराव गुजरात के तब के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी के तब के सर्वोच्च नेता, प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बीच दिखा था। तब वाजपेयी ने मोदी को राजधर्म निभाने की सलाह दी थी और मोदी ने इस पर ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं समझी थी। हालांकि बाद में उन्होंने इस्तीफे का प्रस्ताव दिया, लेकिन वह एक दिखावा था, प्रधानमंत्री पद की गरिमा के लिए फेस सेविंग था।


तब नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री बने एक साल भी नहीं हुए थे और उन्होंने हालात का इस्तेमाल करते हुए प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी पोजिशनिंग शुरू कर दी थी। उनके मुकाबले योगी तो इस पोजिशनिंग के लिए ज्यादा बेहतर स्थिति में हैं क्योंकि वे चार साल से देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री हैं। वे उस राज्य के मुख्यमंत्री हैं, जहां से दिल्ली की रायसीना पहाड़ियों तक पहुंचने का रास्ता सबसे आसान रहा है।
सो, अगर योगी आदित्यनाथ इस बात को ध्यान में रख कर अपनी पोजिशनिंग कर रहे हैं तो इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। राजनीति करने वाला हर नेता अंततः मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री ही तो बनना चाहता है। तभी सबसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री अगर भविष्य में प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देख रहा है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। सवाल टाइमिंग का है कि आखिर अभी क्यों? अगर सोशल मीडिया में पिछले चार साल से चलाए जा रहे अभियान को देखें तो 2050 तक भाजपा का निरंतर राज रहने का जो ब्लूप्रिंट था उसमें नरेंद्र मोदी के बाद अमित शाह का नंबर बताया जा रहा था और अमित शाह के बाद योगी आदित्यनाथ का नंबर आता था। तभी सवाल है कि योगी ने इंतजार करने की बजाय क्या कतार तोड़ने का फैसला किया है? या कोई और बात है, जिसकी वजह से उनको अभी का समय चुनना पड़ा है?

कहीं ऐसा तो नहीं है कि पार्टी के शीर्ष नेता उनकी महत्वाकांक्षा को लेकर चिंतित थे और अगले साल के चुनाव से पहले उनकी लगाम कसने का प्रयास कर रहे थे? लेकिन अगर ऐसा होता तो फिर पार्टी आलाकमान क्यों उनको अखिल भारतीय स्तर का नेता बनाता? क्यों उनको हैदराबाद नगर निगम से लेकर पश्चिम बंगाल और असम के प्रचार में इतनी तरजीह दी जाती? सही है कि एक कट्टर हिंदुवादी नेता की उनकी छवि पुरानी और प्रामाणिक है। उसी के चलते अमित शाह ने उन्हे मुख्यमंत्री बनाया और मोदी-शाह ने उसकी आड में प्रदेश-देश के कई नेताओं को निपटाया। पार्टी आलाकमान ने उनकी इमेज का इस्तेमाल बढ़ाया। उनको मुख्यमंत्री बनाने के साथ उनकी इमेज बढ़वाने का काम भी हुआ। हर चुनाव में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के बाद उनको सबसे ज्यादा तरजीह दी गई। उनकी बड़ी रैलियां और रोड शो कराए गए। मीडिया में उनको खूब लाइमलाइट लेने दिया गया।

एक भगवाधारी संत की उनकी छवि को मजबूत किया गया, जिसका मकसद यह था कि जातियों में विभाजित उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में एक जाति निरपेक्ष नेता तैयार किया जाए, जिसके सहारे पार्टी विधानसभा चुनाव भी जीते और लोकसभा में हमेशा अधिकतम सीटें जीतती रहे। जब यह सब प्लानिंग के हिसाब से हो रहा था तो फिर क्या गड़बड़ी हुई, जो बात इतनी बिगड़ गई कि प्रधानमंत्री की फोटो प्रदेश ईकाई के ट्विटर हैंडल से हटाने तक पहुंच गई?
यहां फिर इतिहास अपने को दोहराता दिख रहा है। मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के दो साल बाद उमा भारती मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री बनी थीं। वे भी संत हैं, भगवा पहनती हैं, महिला हैं, पिछड़ी जाति से आती हैं और योगी के मुकाबले उनको एक एडवांटेज यह है कि वे अंग्रेजी, हिंदी और संस्कृत तीन भाषाएं बोलती हैं और हिंदू धर्मग्रंथों का उनका अध्ययन बहुत बड़ा है। भाजपा ने 2017 का विधानसभा चुनाव योगी के चेहरे पर नहीं लड़ा था पर 2003 का मध्य प्रदेश का विधानसभा चुनाव उमा भारती के चेहरे पर लड़ा गया था और वे दो-तिहाई बहुमत के साथ जीती थीं। तब उनको भी प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना जा रहा था। लेकिन उन्होंने अपनी नासमझी, अहंकार और जल्दबाजी में पहले प्रदेश की मीडिया से पंगा किया और फिर पार्टी के उस समय के सर्वोच्च नेता लालकृष्ण आडवाणी के साथ सार्वजनिक रूप से विवाद किया। उसका नतीजा सबसे सामने है।
तो क्या योगी भी उस गति को प्राप्त होंगे? ऐसा अनिवार्य रूप से नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि चार साल तक उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री रहने के बाद अगर वे इतने सुविचारित तरीके से जोखिम लेते दिख रहे हैं तो उन्होंने भी आगे का आकलन किया होगा। यह भी कहा जा रहा है कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने उनके चेहरे पर ही चुनाव लड़ने की रणनीति बनाई है। परंतु कुछ बातें ऐसी हैं, जिनका या तो उन्होंने ध्यान ही नहीं रखा या उनका कम करके आकलन किया। जैसे उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का आकलन कमतर किया है। यह सही है कि पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों ने उनमें हवा भरी। लेकिन उनको नतीजों से ज्यादा ममता के चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की इस बात पर ध्यान देना चाहिए था कि 'मोदी बहुत लोकप्रिय हैं'। जब मोदी बंगाल में बहुत लोकप्रिय हैं तो यूपी में उनकी लोकप्रियता का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। कंगना रनौत ने जो कहा कि मोदी एक कल्ट हैं, वह बात कुछ हद तक सही है। भाजपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों से अलग नागरिकों का एक बड़ा समूह ऐसा है, जो मोदी का भक्त है। उसको मोदी में यकीन है। इसलिए अगर मौजूदा घटनाक्रम से मोदी के योगी से नाराज होने या योगी के मोदी से अलग होने का संदेश निकलता है तो उसका योगी को बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा।
मोदी और योगी दोनों हिंदुत्व का चेहरा हैं पर दोनों में बुनियादी फर्क है। सबसे बड़ा फर्क तो यह है कि भगवा पहनने और आधिकारिक रूप से नाथपंथी संत होने और गोरखनाथ मंदिर का महंत होने के बावजूद योगी जाति से ऊपर नहीं उठ सके, जबकि मोदी ने अपनी छवि जाति निरपेक्ष नेता की बनाई। हिंदुत्व की राजनीति में सफल होने की यह सबसे पहली और जरूरी शर्त है। अगर योगी जाति की राजनीति से ऊपर उठ गए होते तब भी उनकी जातीय पहचान रहती लेकिन तब वे वृहत्तर हिंदू समाज के रक्षक ठाकुर नेता के रूप में स्थापित होते। यह सनातनी परंपरा के अनुकूल होता।
सो, जाति नहीं छूटना उनकी एक बड़ी कमजोरी साबित होगी। मोदी और उनमें दूसरा फर्क यह है कि प्रधानमंत्री होने और देश का सर्वाधिक लोकप्रिय नेता होने के बावजूद दिखावे के लिए ही सही, मोदी खुद को प्रधान सेवक कहलवाना पसंद करते हैं, जबकि योगी चाहते हैं कि उनको महाराज कहा जाए और लोग उनके पैर छुएं। यह लोकतांत्रिक राजनीति के बिल्कुल प्रतिकूल है। तीसरा फर्क यह है कि मोदी ने अस्मिता और विचारधारा दोनों किस्म की राजनीति के साथ साथ प्रशासन के मॉडल को भी चुनावी राजनीति का हिस्सा बनाया। उनके प्रशासन का मॉडल सफल या विफल है यह अलग बहस का विषय है लेकिन दुर्भाग्य से चार साल मुख्यमंत्री रहते योगी आदित्यनाथ यह मॉडल नहीं बना सके। ये तीन बुनियादी फर्क चुनावी राजनीति पर बड़ा असर डालने वाले साबित होंगे।
इसके बावजूद अगर योगी की कमान में भाजपा चुनाव जीत जाती है तो क्या होगा? फिर योगी का नेतृत्व हर किस्म की चुनौतियों से वैसे ही ऊपर उठ जाएगा, जैसे नरेंद्र मोदी का उठा था, उठा हुआ है। फिर भाजपा और संघ दोनों उनका नेतृत्व स्वीकार करेंगे। वे प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार बनेंगे। ऐसा लग रहा है कि उनका ध्यान सबसे ज्यादा इसी पक्ष पर है। वे समझ रहे हैं कि कट्टर हिंदुवादी नेता की छवि, राम मंदिर निर्माण का मुद्दा, मथुरा-काशी का भावनात्मक मसला, लव जिहाद कानून आदि के सहारे वे हिंदू समाज को एकजुट कर लेंगे और चुनाव जीत जाएंगे और उसके बाद उनके लिए कोई चुनौती नहीं रह जाएगी। यह एक जटिल सामाजिक संरचना वाले राज्य और बेहद जटिल राजनीतिक परिस्थितियों का सरलीकरण करना है।
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