सम्पादकीय

सुप्रीम कोर्ट के एक सही फैसले की गलत व्याख्या, क्‍या महिलाओं को है कई संबंधों को अधिकार?

Rani Sahu
7 Oct 2022 7:06 PM GMT
सुप्रीम कोर्ट के एक सही फैसले की गलत व्याख्या, क्‍या महिलाओं को है कई संबंधों को अधिकार?
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सोर्स - Jagran
क्षमा शर्मा। इन दिनों इंटरनेट मीडिया पर एक न्यायाधीश का यह कथन वायरल हो रहा है कि 'एक पति अपनी बीवी का मालिक नहीं है कि शादी के बाद उसे किसी अन्य से शारीरिक संबंधों के लिए पति से अनुमति लेनी पड़े। वह अपने संबंधों का चुनाव खुद कर सकती है।' कुछ साल पहले दीपिका पादुकोण अभिनीत एक शार्ट फिल्म आई थी, उसमें भी वह इसी तरह की बातें कर रही थीं। आज तक पुरुषों की आलोचना इस बात के लिए की जाती रही है कि वे पत्नी के होते हुए भी अन्य महिलाओं से संबंध रखते हैं। ऐसा करने पर समाज में उनकी ज्यादा आलोचना नहीं होती। महिलाएं जिन बातों के लिए पुरुषों से परेशान रही हैं, उनकी आलोचना करती रही हैं, तो क्या उन्हें भी ऐसा हो जाना चाहिए। क्या यह आदर्श स्थिति है और क्या जीवन में सिवाय शारीरिक संबंधों के और कुछ है ही नहीं। क्या स्त्रियों का जीवन बाकी समस्याओं से मुक्त है।
बहुत साल पहले प्रोतिमा बेदी का इंटरव्यू पढ़ा था। उन्होंने कहा था कि कबीर बेदी से उनकी शादी इसी शर्त पर हुई थी कि उन दोनों के जीवन में कोई बंधन नहीं होगा। हालांकि यह शादी बहुत दिनों तक चल नहीं सकी थी। यदि हम यह मान भी लें कि स्त्रियां और पुरुष चाहे जितने संबंध रखें तो चलेगा, तो इस 'चलेगा' में यह कोई नहीं बताता कि ऐसे संबंधों में आज भी सारी मुसीबतें महिलाओं के हिस्से ही आती हैं। डाक्टरों का कहना है कि मल्टीपल पार्टनर्स का मतलब है, तमाम तरह के यौन रोग। इसके अलावा परिवार में यदि बच्चे हैं, तो उन्हें कैसे संभालेंगे? फिर यदि ऐसे संबंधों से कोई संतान हो, तो उसका पालन–पोषण कैसे होगा।
पिछले दिनों यह खबर आई कि दिल्ली से गोरखपुर जा रही युवती को जब रास्ते में प्रसव पीड़ा शुरू हुई तो अलीगढ़ स्टेशन पर उतारकर पुलिस उसे अस्पताल ले जाने लगी। रास्ते में ही उसने बच्चे को जन्म दिया। अस्पताल पहुंचकर उसने बच्चे को अपनाने से इन्कार कर दिया। उसका कहना था कि वह अकेली है और बेरोजगार भी। एक बच्चा जो इस दुनिया में आने के लिए जिम्मेदार नहीं है, वह माता-पिता के होते हुए भी अनाथ हो गया। यह कहानी तो प्रकाश में आ गई, लेकिन ऐसी कहानियां अपने यहां हर रोज बनती हैं। महिलाओं को इस तरह के संबंधों का सारा बोझ उठाना पड़ता है। इस मामले में उनकी स्थिति बहुत दयनीय है।
हाल में उच्चतम न्यायालय ने यह फैसला दिया कि गर्भपात के लिए यह नहीं देखा जाना चाहिए कि लड़की शादीशुदा है या नहीं। यह उसका अधिकार है कि वह बच्चे को जन्म देना चाहती है या नहीं? यह फैसला अच्छा है कि कम से कम वे बच्चे नहीं जन्मेंगे जो या तो कूड़े के ढेर पर फेंक दिए जाते या अनाथालय में पलते हैं। जबसे यह फैसला आया है, तबसे अंग्रेजी मीडिया में तमाम साधन-संपन्न महिलाएं इसके पक्ष में लिख रही हैं। वे कह रही हैं कि इस फैसले से शरीर पर उनका अधिकार सिद्ध हुआ है। वे शादीशुदा हैं या नहीं, इससे उनके यौन जीवन पर सवाल करने का अधिकार किसी को नहीं है। इन महिलाओं के ऐसे लेखों से कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि जिनके पास पद और पैसे की ताकत है, वे हर बात को अपने पक्ष में मोड़ सकते हैं।
हालांकि ऊपर जैसा उदाहरण एक अविवाहित युवती का दिया गया, वैसी स्थितियों से न जाने कितनी लड़कियां गुजरती हैं। अपने देश के दूरदराज वाले इलाकों में न तो इतनी चिकित्सा सुविधाएं हैं, न ही लोगों का सोच ही कि वे लड़कियों के अविवाहित होने या शादीशुदा होने पर किसी और के बच्चे के गर्भपात कराने को मानवीय दृष्टि से देख सकें। अक्सर जब कोई अविवाहित लड़की ऐसे दुष्चक्र में फंसती है, तो उसे तमाम आफतों से गुजरना पड़ता है। कई बार तो अपनी जान भी दे देती है। ऐसे विचारों से उन लंपट लोगों की भी बन आती है, जो अपने जाल में लड़कियों और विवाहित महिलाओं को फंसाते हैं। फिर उनके वीडियो बनाकर भी तरह-तरह से ब्लैकमेल करते हैं।
कोई कह सकता है कि चूंकि समाज का सोच ऐसा है कि पुरुष महिलाओं को परेशान करते हैं, तो क्या अपने प्रगतिशील सोच को बदल दिया जाए। कानून में कोई सुधार ही न हो। दरअसल, बात ही यही है कि सिर्फ कानूनों से अगर समाज बदलता होता तो अब तक दहेज और घरेलू हिंसा तथा यौन प्रताड़ना कब की खत्म हो गई होती, लेकिन हम देखते हैं कि जैसे–जैसे ब्रांड का जोर बढ़ा है, तरह-तरह के उत्पाद बाजार में आए हैं, तो वे सबके सब दहेज में जुड़ते चले गए हैं। यह देखना भी कोई कम दिलचस्प नहीं कि एक ओर तलाक बढ़ रहे हैं, तो दूसरी ओर यह सोच कि शादी तो जीवन में एक बार ही होती है, इसलिए ऐसी होनी चाहिए कि कभी किसी की न हुई हो। ये 'कभी नहीं हुई हो' का सोच ऐसा है कि शादियों के खर्चे का बोझ उठाते माता-पिता की कमर टूट जाती है। वे कर्ज के ऐसे मकड़जाल में फंस जाते हैं कि जीवन भर उससे पार नहीं पा पाते। इसकी कीमत परिवारों को लंबे समय तक चुकानी पड़ती है।
अगर महिला अपने शरीर पर अपना अधिकार जताती है, तो यह उसका हक भी है, लेकिन यह भी सोचा जाना चाहिए कि संसार में हम अकेले नहीं होते। हमेशा दूसरों के साथ चलना पड़ता है। फिर चाहे वह घर हो या दफ्तर। जितनी जगह हमें चाहिए, उतनी ही दूसरों को देनी पड़ती है। यदि कोई महिला अपने तमाम संबंधों को अपना अधिकार समझती है, तो वह उन पुरुषों को भी कैसे रोक सकती है, जो उसके आसपास हैं।
Rani Sahu

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