सम्पादकीय

लिखित बनाम मौखिक

Subhi
6 July 2022 5:54 AM GMT
लिखित बनाम मौखिक
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लोकतंत्र के तीन स्तंभों में न्यायपालिका की अपनी संवैधानिक महत्ता है। कार्यपालिका और विधायिका जब अपने कर्तव्य पथ से जरा भी विमुख होती हैं, तो न्यायपालिका सक्रिय हो जाती है। असंख्य दृष्टांतों से यह भी प्रकट है

Written by जनसत्ता: लोकतंत्र के तीन स्तंभों में न्यायपालिका की अपनी संवैधानिक महत्ता है। कार्यपालिका और विधायिका जब अपने कर्तव्य पथ से जरा भी विमुख होती हैं, तो न्यायपालिका सक्रिय हो जाती है। असंख्य दृष्टांतों से यह भी प्रकट है कि विधि का शासन लागू करने में जब-जब विधायिका और कार्यपालिका में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से टकराव की स्थिति उत्पन्न हुई है, न्यायपालिका ने अपनी भूमिका बखूबी निभाई है।

विगत दो दशक से यह देखा जा रहा है कि देश के कुछ न्यायालयों में मामलों की सुनवाई के दौरान सख्त और हैरान करने वाली मौखिक टिप्पणियों से भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कभी-कभी अदालत की टिप्पणियां विमर्श और बहस का विषय बन जाती हैं। विडंबना यह है कि शीर्ष स्तर के न्यायालय में सुनवाई या दोनों पक्षों के बीच जारी बहस में माननीय न्यायाधीश जो मौखिक टिप्पणी करते हैं, वह फैसले के पन्नों में दर्ज नहीं होती।

नब्बे के दशक में एक राज्य के उच्च न्यायालय में असंख्य बार शासन के शीर्ष अधिकारियों को बुला कर मौखिक रूप से फटकार तो लगाई गई, लेकिन वे अंश निर्णय में दर्ज नहीं किए जा सके। यह स्थिति आज भी देश के कई न्यायालयों में बदस्तूर जारी है, जिससे कार्यपालिका के क्षेत्र में मौन क्षोभ व्याप्त है। यह चिंता का विषय है। जब न्यायिक निर्णय पन्नों में अंकित न होकर सिर्फ मौखिक रूप में प्रस्फुटित होंगे, तो प्रजातंत्र के अन्य दोनों अंगों को सामान्य स्थिति बहाल करने की पहल करनी होगी। इसका सबसे सार्थक और प्रभावी उपाय यह है कि तीनों अंग मिल-बैठ कर इसका समाधान निकालें। किसी कानूनी चिंतक ने सही कहा है कि 'जिन्हें संविधान ने कलम की शक्ति प्रदान की है, उन्हें अपनी जिह्वा के उपयोग से परहेज करना चाहिए।'

हमारे देश में जहां एक तरफ बहुत सारे लोगों को दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती, वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग खाने-पीने चीजें बर्बाद कर देते हैं। महात्मा गांधी के जीवन का एक प्रसंग है। घटना सन 1930 की है, जब गांधी ने दांडी यात्रा शुरू की थी। उस यात्रा के दौरान वे जहां भी जाते, लोग उनका स्वागत करते, उनके संदेश सुनते। एक जगह लोग अपनी गाड़ियों में तरबूज भर कर लाए थे। मगर लोग तरबूज खा कम और बर्बाद ज्यादा कर रहे थे। यह देख कर गांधी को बहुत दुख हुआ।

उन्होंने लोगों को समझाया, 'मैंने भारत के वाइसराय को एक पत्र लिखा है कि जब आम आमदनी की कमाई प्रतिदिन दो आना है, तो आपका रोजाना सात सौ रुपए वेतन लेना ठीक नहीं है। यहां तो एक रुपए में आठ लोगों की गुजर होती है। आपके सात सौ रुपए में कम से कम पांच-छह हजार लोगों का पेट भर जाएगा। यानी आप पांच-छह हजार लोगों का खाना छीनते हैं। मैंने वाइसराय के पास देश की गरीबी की बात कही। उनकी फिजूलखर्ची की आलोचना की। लेकिन यहां क्या देखता हूं? सैंकड़ों फल बरबाद हुए।

मैं वाइसराय की आलोचना किस मुंह से करूं? यह फिजूलखर्ची पाप है। आप लोगों ने मेरा सिर नीचा कर दिया। देश में एक तरफ भुखमरी है, आधा पेट खाकर जीने वाले लोग हैं और यहां मेरी स्वातंत्र्य-यात्रा में इस तरह की बर्बादी होती है। अपनी वेदना मैं कैसे व्यक्त करूं? फिर से ऐसा पाप नहीं करना।' गांधी की बात सुन कर वहां उपस्थित लोग बहुत शर्मिंदा हुए। आज भी हम लोग शादी या अन्य समारोहों में बहुत खाने की बर्बादी करते हैं। इस प्रेरक प्रसंग से हमें भी सबक लेना चाहिए।


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