सम्पादकीय

वाह! दिव्यांग बेटे-बेटियो!

Rani Sahu
31 Aug 2021 6:42 PM GMT
वाह! दिव्यांग बेटे-बेटियो!
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टोक्यो पैरालंपिक में भारत की 19 साला बेटी अवनि लेखरा ने 10 मीटर एयर राइफल में स्वर्ण पदक जीत कर विश्व रिकॉर्ड बराबर किया

टोक्यो पैरालंपिक में भारत की 19 साला बेटी अवनि लेखरा ने 10 मीटर एयर राइफल में स्वर्ण पदक जीत कर विश्व रिकॉर्ड बराबर किया। वह प्रथम भारतीय खिलाड़ी हैं। भारत के हुनरमंद बेटे सुमित अंतिल ने भाला फेंक स्पद्र्धा में स्वर्ण हासिल कर विश्व कीर्तिमान स्थापित किया। उसने अपने कीर्तिमानों को ही लगातार चुनौती दी। भाला फेंक के ओलंपिक चैंपियन नीरज चोपड़ा ही सुमित के खेल की मीमांसा कर सकते हैं। भारत के ही बेटों देवेंद्र झाझरिया और सुरेंद्र गुर्जर ने भी भाला फेंक में ही क्रमश: रजत और कांस्य पदक जीते। झाझरिया तो 'पुराने सिकंदर हैं। हरियाणवी सपूत योगेश कथूनिया ने चक्का फेंक में रजत पदक जीता। बीते सोमवार को एक ही दिन में भारत की झोली में पांच ओलंपिक स्तरीय पदक…! सचमुच अविश्वसनीय, अकल्पनीय और अतुलनीय लगता है। सामान्य ओलंपिक और पैरालंपिक में बुनियादी अंतर नहीं है। सिर्फ शारीरिक दिव्यांगता का फासला और मुकाबला है। वाह!! देेश के दिव्यांग बेटे, बेटियो! आपने तो अक्षमता, विकलांगता को भी चुनौती दे दी! शारीरिक अधूरेपन को हाशिए पर धकेल कर, खेल के लक्ष्य, जज़्बे और गौरव को हासिल किया। आसमान की ओर बढ़ता 'तिरंगाÓ प्रफुल्लित है। देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री समेत अनेक विशिष्ट जनों ने भावनाएं व्यक्त की हैं-हमें आप पर गर्व है। सभी ने देश के इन विशेष बेटे-बेटियों को बधाइयों और शुभकामनाओं से भरपूर कर दिया है।

यह उल्लेख गुजरात और हिंदुस्तान की बेटी भाविनाबेन पटेल की टेबल-टेनिस में विश्व स्तरीय उपलब्धि के बिना अधूरा है, जिसने रजत पदक जीत कर देश की सर्वप्रथम महिला खिलाड़ी होने का गौरव हासिल किया है। हिमाचल के दिव्यांग खिलाड़ी निषाद ने अधूरेपन के बावजूद हवा में छलांग लगाई और भारत की झोली में एक और रजत पदक पेश किया। टोक्यो पैरालंपिक में 7 पदक जीत कर भारत फिलहाल 28वें स्थान पर है, लेकिन प्रतिस्पद्र्धाएं जारी हैं और इस स्थान में सुधार होगा। सामान्य ओलंपिक की तर्ज पर पैरालंपिक में भी यह भारत का अभूतपूर्व प्रदर्शन है। देखते रहिए और प्रतीक्षा कीजिए कि और कितने पदक हमारे बेटे-बेटियों को 'सिकंदरÓ साबित करेंगे! कोई भी, किसी भी वजह से, दिव्यांग हो सकता है। दुर्घटना, हादसे, बीमारी या जन्मजात विकृतियां किसी भी इनसान को विकलांग बना सकती हैं। हमारे इन खिलाडिय़ों ने भी ऐसे दंश झेले हैं। बहुत कुछ गंवाया है। व्हील चेयर तक सिमट कर रह गए हैं। टांग, बांह नहीं है, लेकिन हिम्मत, जज़्बा और उम्मीदें हैं। ये जुनूनी चेहरे ऐसे हैं, जिन्होंने अक्षमता को पराजित किया है। उन्होंने अपने अधूरे अंगों के बावजूद विश्व कीर्तिमान स्थापित किए हैं। अधूरेपन के बावजूद इन खिलाडिय़ों के भीतर कोई दृढ़ संकल्प और मानसिक शक्ति थी, जिसके बल पर बुलंदियां छुईं और 'तिरंगेÓ के साथ-साथ भारत को बार-बार सम्मानित किया।
वाह! शाबाश!! पदकवीरो!! आप सभी ने एक मंजि़ल छुई है, अभी सफर जारी है, आप प्रेरणा हैं, आदर्श हैं और दिव्यांगों के हौसलों की ताकत हैं। अब भारत सरकार और राज्य सरकारों के कुछ ठोस करने की बारी है। बेशक करोड़ों रुपए और सरकारी नौकरियों के ऐलान किए गए हैं। वे तो खिलाड़ी हैं, लिहाजा दुर्लभ और विलक्षण हैं, लेकिन देश में आम दिव्यांग आज भी उपेक्षित, असहाय महसूस कर रहा है। भारत में 2011 की जनगणना के मुताबिक, करीब 45 फीसदी दिव्यांग अनपढ़ हैं और करीब 36 फीसदी ही कार्यबल का हिस्सा हैं। अर्थात कोई नौकरी या रोजग़ार में शामिल हैं। दिव्यांगों के लिए सार्वजनिक स्थलों तक आसानी से पहुंचना और परिवहन के सुविधाजनक साधन, चढऩे में मदद करने वाले और अन्य बुनियादी ढांचा जरूर होना चाहिए, लेकिन भारत में इसका बहुत अभाव है। 2011 की जनगणना के मुताबिक ही, देश में 2.68 करोड़ दिव्यांग ऐसे हैं, जिनमें करीब 20 फीसदी चलने-फिरने में अक्षम हैं और करीब 19 फीसदी में दृष्टि संबंधी विकलांगता है। हालांकि 2015 में मोदी सरकार ने 'एसेसिबल इंडिया अभियानÓ शुरू किया था, ताकि सभी दिव्यांगों को सहूलियत मुहैया कराई जा सके, लेकिन उसकी गति भी अप्रत्याशित तौर पर मंथर ही रही है। ज्यादातर सरकारी योजनाओं में प्रेरणा और सहयोग का स्पष्ट अभाव दिखाई देता है। संयुक्त राष्ट्र में पारित प्रस्ताव के अनुरूप भी भारत की सोच नहीं है, लिहाजा जो पदकवीर खिलाड़ी हमारे सामने आए हैं, वे देश के लिए बहुमूल्य मोतियों से कमतर नहीं हैं। अलबत्ता भारत सरकार को नए सिरे से मंथन करना चाहिए। हमारे देश में खिलाडिय़ों को मिलने वाली सुविधाएं पर्याप्त नहीं हैं।

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