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सम्पादकीय
By आशुतोष चतुर्वेदी
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की मानसिक स्वास्थ्य पर रिपोर्ट चिंताजनक है. इसमें बताया गया है कि अवसाद और व्यग्रता से पीड़ित लोगों की संख्या कोविड काल में 25 फीसदी बढ़ गयी है. किसी भी देश के लोगों का मानसिक स्वास्थ्य बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताने-बाने पर भी असर डालता है. संगठन इसे कोविड के बाद का एक बड़ा वैश्विक संकट मानता है.
डब्ल्यूएचओ ने सभी देशों की सरकारों से तत्काल इस ओर ध्यान देने का आग्रह किया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि बड़ी संख्या में महिलाएं, युवा और बच्चे मानसिक रोगों का शिकार हो रहे हैं. साल 2019 में आठ लोगों में से एक को मानसिक रूप से दिक्कत थी, लेकिन अब यह आंकड़ा बढ़ गया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि मनोविकार से ग्रस्त 100 में से एक व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है.
समस्या यह है कि अधिकतर देश मानसिक स्वास्थ्य पर समुचित ध्यान नहीं देते हैं. अनेक देशों में तो मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करने के लिए बजट का भी प्रावधान नहीं रखा जाता है. विश्व भर में मनोविकार के 71 फीसदी पीड़ित लोगों को मानसिक स्वास्थ्य सेवा ही नहीं मिल पाती है. ऐसा नहीं है कि गरीब देशों में यह समस्या हो, मनोविकार के 70 फीसदी मरीज अमीर देशों में हैं.
गरीब और विकासशील देशों में तो स्थिति और चिंताजनक है. यहां केवल 12 प्रतिशत को ही मानसिक चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो पाती है. मानसिक अवसाद के लिए स्वास्थ्य सेवा उपलब्धता में भी गरीब-अमीर के बीच बड़ी खाई है. विकसित देशों में भी मनोविकार के रोगियों में से एक-तिहाई को ही सेवा हासिल हो पाती है. यह सही है कि पिछले एक दशक में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ी है, लेकिन इसकी गति बेहद धीमी है.
यह भी सच है कि पिछले कई दशकों से मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सा की पूरी तरह अनदेखी की गयी है और पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं कराये गये हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सभी देशों से मानसिक स्वास्थ्य योजना को लागू करने की दिशा में तेजी से कदम उठाने का आग्रह किया है. उसने अनेक सिफारिशें भी की हैं, जिनमें मानसिक स्वास्थ्य के प्रति रवैये में बदलाव लाना और मानसिक स्वास्थ्य देखभाल की व्यवस्था को मजबूत करना शामिल है.
रांची में जाना-माना केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान है. एक बार उसके पास से गुजरने हुए मैंने पाया कि ओपीडी के बाहर मानसिक रोगियों लोगों व परिजनों की भारी भीड़ थी. हमारे देश में एक और समस्या है कि परिजन मानसिक रोगियों को जहां-तहां छोड़ कर चले जाते हैं. हमारे देश में मानसिक रोगियों के साथ दुर्व्यवहार के भी अनेक मामले देखने में आते हैं.
मानसिक रोगी समाज में उपहास का पात्र माना जाता है. कई बार तो उनको शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है. सबसे बड़ी समस्या यह है कि भारत में अवसाद को बीमारी ही नहीं माना जाता है. अक्सर मानसिक रोग को ऊपरी बाधा मान लिया जाता है और झाड़-फूंक से इलाज करने की कोशिश की जाती है. हर शहर व गांव-कस्बे में ऐसे झाड़-फूंक वाले मिल जायेंगे, जो परिस्थितियों का भरपूर दोहन करते हैं और लोगों से पैसा ठगते हैं.
पढ़े-लिखे लोग भी उनका शिकार बन जाते हैं. कई धर्मस्थलों को तो इस मामले में विशेषज्ञता हासिल है और वे मारपीट समेत अनेक विधियों से मानसिक विकार को ऊपरी बाधा बता कर इलाज करते हैं. दुर्भाग्य यह है कि सर्व समाज ने इलाज की इन पद्धतियों को स्वीकार कर लिया है. मौजूदा दौर की गलाकाट प्रतिस्पर्धा और माता-पिता की असीमित अपेक्षाओं के कारण बच्चों को भी मानसिक तनाव का सामना करना पड़ रहा है.
माता-पिता के साथ संवादहीनता भी बढ़ रही है. ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहां बच्चे परिवार, स्कूल व कोचिंग में तारतम्य स्थापित नहीं कर पाते हैं और अवसाद का शिकार हो जाते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बाल्यावस्था में यौन दुर्व्यवहार और डराने-धमकाने को भी मानसिक अवसाद की एक बड़ी वजह है. हमारी व्यवस्था ने बच्चों के जीवन में अब सिर्फ पढ़ाई को ही रख छोड़ा है. रही-सही कसर मोबाइल ने पूरी कर दी है. माता-पिता के पास वक्त नहीं है. उनकी अपनी समस्याएं हैं. नौकरी और कारोबार की व्यस्तताएं हैं, उसका तनाव है.
विज्ञान पत्रिका लैंसेट में कुछ वर्ष पहले किये गये एक अध्ययन को प्रकाशित किया था, जिसके अनुसार सात में से एक भारतीय किसी न किसी तरह के मानसिक अस्वस्थता से ग्रसित है. एक अन्य अध्ययन के अनुसार कोरोना महामारी के बाद भारतीयों में तनाव बढ़ा है. लगभग 10 हजार भारतीयों पर सर्वेक्षण किया गया था कि वे कोरोना महामारी से उत्पन्न परिस्थिति का किस तरह सामना कर रहे हैं.
26 प्रतिशत लोगों ने बताया कि वे हल्के अवसाद से ग्रस्त हैं, जबकि 11 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे काफी हद तक अवसाद से ग्रस्त हैं. वहीं छह प्रतिशत लोगों ने अवसाद के गंभीर लक्षण होने की बात स्वीकार की. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया में लगभग आठ लाख लोग हर साल आत्महत्या कर लेते हैं. ऐसा नहीं है कि केवल निराशा और अवसाद से पीड़ित भारत में ही हों. सबसे विकसित देश अमेरिका में सबसे अधिक लोग अवसाद से पीड़ित हैं, लेकिन चिंताजनक बात यह है कि पीड़ितों में से केवल आधे लोगों का ही इलाज हो पाता है.
आत्महत्या की एक बड़ी वजह आर्थिक परेशानी पायी गयी है. हमारे पूर्वजों ने वर्षों के अध्ययन और मनन के बाद एक बात कही थी, तेते पांव पसारिए, जेती लांबी सौर. जितनी चादर है, उतने ही पैर फैलाएं, लेकिन हम इस जीवन दर्शन को भूल गये हैं और आर्थिक चकाचौंध की चपेट में आ गये हैं. अब हम उधार लेकर घी पीने के विदेशी चिंतन के मायाजाल में फंस गये हैं. ऐसी परिस्थिति में जीवन में ऐसे अनेक अवसर आयेंगे, जब व्यक्ति आर्थिक कारणों से तनाव और अवसाद का शिकार हो सकता है.
कई लोग संघर्ष करने के बजाय हार मान कर आत्महत्या का सहज रास्ता चुन लेते हैं. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि परीक्षा या प्रेम में असफल होने, नौकरी छूटने या बीमारी जैसी वजह से भी लोग आत्महत्या कर लेते हैं. भारत में परंपरागत परिवार का ताना-बाना टूट गया है. व्यक्ति एकाकी हो गया है. यही वजह है कि अनेक लोग अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं और आत्महत्या जैसे अतिरेक कदम उठा लेते हैं. गंभीर होती जा रही इस समस्या का कोई हल नजर नहीं आ रहा है.
Gulabi Jagat
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