सम्पादकीय

चिंता के आंकड़े

Subhi
2 Jun 2021 2:51 AM GMT
चिंता के आंकड़े
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पिछले वित्त वर्ष यानी 2020-21 में अर्थव्यवस्था की दशा के आंकड़े सरकार ने जारी कर दिए।

पिछले वित्त वर्ष यानी 2020-21 में अर्थव्यवस्था की दशा के आंकड़े सरकार ने जारी कर दिए। पूरे साल में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी शून्य से 7.3 फीसद नीचे ही रहा। हालांकि चौथी तिमाही (जनवरी-मार्च 2021) में मामूली सुधार दिखा और जीडीपी 1.6 फीसद रहा। इन आंकड़ों को देख कर हैरानी इसलिए नहीं होनी चाहिए कि अचानक जिस तरह के हालात बने, उनमें यह होना निश्चित था। महामारी का एलान होते ही मार्च 2020 के अंतिम हफ्ते में पूर्णबंदी लग गई थी। इस दौरान कल-कारखानों, छोटे-मझोले उद्योगों और सीमेंट, कोयला बिजली, इस्पात, तेल व प्राकृतिक गैस जैसे अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों में उत्पादन एक तरह से बंद ही रहा। इसलिए पहली तिमाही में जीडीपी चौबीस फीसद तक गिर गया था। ऐसा होने से रोक पाना संभव भी नहीं था। हां, पूर्णबंदी अगर सुविचारित और योजनाबद्ध तरीके से की गई होती, तो इस नुकसान को कम जरूर किया सकता था।

महामारी को लेकर पूरा एक वित्त वर्ष हाहाकार में गुजरा। ऐसे विकट संकट को लेकर कोई पूवार्नुमान भी नहीं था। लोगों की जान बचाना प्राथमिकता रही। इसलिए हालात के अनुसार कदम उठाने के अलावा कोई चारा था भी नहीं। पहली तिमाही की मार का असर बाद की तिमाहियों पर पड़ना लाजिमी था। सिर्फ कृषि क्षेत्र ही था जिसने अर्थव्यवस्था को ढहने से बचाए रखा और चारों तिमाहियों में इसकी वृद्धि दर साढ़े तीन से साढ़े चार फीसद बनी रही। जबकि विनिर्माण, निर्माण और सेवा क्षेत्र की तो पहली तीन तिमाहियों में हालत बहुत ही खराब रही। इसका असर रोजगार, उत्पादन, मांग और खपत पर साफ दिखा। सरकार ने जो आंकड़े जारी किए हैं, वे भी इसकी पुष्टि कर रहे हैं। ले-देकर चौथी तिमाही में हालात संभलने लगे थे और इनका असर दिखा भी।
पहली तिमाही में निर्माण क्षेत्र साढ़े उनचास फीसद तक लुढ़क गया था, उसमें चौथी तिमाही में साढ़े चौदह फीसद की वृद्धि देखने को मिली। विनिर्माण क्षेत्र जो छत्तीस फीसद नीचे चला गया था, चौथी तिमाही में सात फीसद वृद्धि दिखा रहा था। इसी तरह राजकोषीय कोषीय घाटा साढ़े नौ फीसद तक जाने का अनुमान था, पर यह अब 9.2 फीसद पर ही रुक गया।
महामारी और अर्थव्यवस्था के मौजूदा हालात को देखते हुए पिछले साल हुए नुकसान की भरपाई आसान नहीं है। लेकिन उससे सबक तो लिए ही जा सकते हैं। भूलना नहीं चाहिए कि भारत की अर्थव्यवस्था 2016-17 से ही लगातार गिरावट झेल रही है। 2016-17 में आर्थिक वृद्धि दर 8.26 फीसद थी। 2017-18 में घट कर यह 7.04 फीसद रह गई। इसके बाद 2018-19 में और घट कर 6.12 फीसद पर आ गई। यहां तो फिर भी ज्यादा चिंता की बात नहीं थी। लेकिन 2019-20 में जब यह और गिरती हुई 4.2 फीसद पर आ गई, तभी सतर्क हो जाने की जरूरत थी। पर तब तक मंदी दस्तक दे चुकी थी। अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर यह मामूली नाकामी नहीं थी।
आज हालात और ज्यादा चिंताजनक इसलिए भी हैं कि देश दूसरी लहर का सामना कर रहा है। और लहरों की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। हालांकि सरकार का दावा है कि दूसरी लहर का असर ज्यादा नहीं पड़ने वाला। पर ताजा आकंड़े बता रहे हैं कि इस साल मई में वाहनों की बिक्री गिरी है, पेट्रोल-डीजल की खपत में कम हुई है, उद्योगों में बिजली की मांग में कमी आई है, उत्पादन फिर से दस महीने के न्यूनतम स्तर पर आ गया, एक करोड़ से ज्यादा लोग बेरोजगार हो गए हैं और सनतानबे फीसद परिवारों की आय घट गई है। हाल में रिजर्व बैंक ने अर्थव्यवस्था की जो तस्वीर पेश की है, उसे गौर से देखा जाए तो वह कम निराशाजनक नहीं है। इससे ज्यादा दूसरी लहर का और क्या असर होना बाकी है?

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