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निरंतर हंगामे और शोर-शराबे के बीच संसद के मॉनसून सत्र का तय समय से पहले ही समापन हो गया,
निरंतर हंगामे और शोर-शराबे के बीच संसद के मॉनसून सत्र का तय समय से पहले ही समापन हो गया, लेकिन इस दौरान सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच जो तल्खी आई, वह समाप्त नहीं हो रही है। हालांकि इसी सत्र के दौरान दोनों सदनों में सरकार और विपक्ष के बीच दुर्लभ किस्म की एकजुता भी दिखी। ओबीसी सूची बनाने के राज्यों के अधिकार से जुड़े संविधान संशोधन विधेयक पर दोनों सदनों में पार्टियों का भेद समाप्त हो गया था। लेकिन राज्यसभा में सत्र के आखिरी दिन इसके ठीक बाद जब सरकार इंश्योरेंस बिल लेकर आई तो विपक्ष बौखला उठा। उसका कहना था कि यह बिल लाने की बात तो तय नहीं थी।
इसके बाद विपक्षी सदस्यों की ओर से ऐसा हंगामा हुआ कि सदन में मार्शल बुलाने पड़े और फिर सदन में वह दृश्य उपस्थित हुआ, जो कभी नहीं हुआ था। अब जहां सरकार कह रही है कि विपक्षी सदस्यों ने मार्शलों के साथ मारपीट की, वहीं विपक्ष का आरोप है कि बाहरी लोगों को मार्शल की ड्रेस पहनाकर सदन में भेजा गया और उनसे विपक्षी सांसदों को पिटवाया गया। इस तरह के आरोप सदन में सत्ता पक्ष और विपक्ष ने कभी एक-दूसरे पर नहीं लगाए थे। सचाई स्पष्ट करने के लिए राज्यसभा सचिवालय की ओर से आखिरी घंटे की कार्यवाही का मिनट-दर मिनट ब्योरा विडियो के रूप में पेश किया गया, लेकिन उससे भी बात नहीं बनी।
विपक्ष का कहना है कि सिलेक्टिव विडियो जारी किए गए हैं। दो पक्षों के बीच जब इस तरह की स्थिति बन जाए तो निष्पक्ष तस्वीर उभरने की संभावना धूमिल हो जाती है। लोकतंत्र में ऐसी स्थिति को हर हाल में टालना चाहिए। यह विपक्ष के लिए वाकई आत्मालोचना का अवसर है। पूरे सत्र के दौरान जिस तरह से वह एक मुद्दे को लेकर आसमान सिर पर उठाए रहा, वह उसकी राजनीति के लिए कितना फायदेमंद हुआ या आगे हो सकता है, इस पर भी उसे गंभीरता से सोचना चाहिए। आखिर उसका मकसद क्या था? सदन में तीखी बहस हो या हंगाामा, शोर-शराबा किया जाए या कामकाज न चलने दिया जाए- इन सबके पीछे विपक्ष का उद्देश्य किसी खास मुद्दे की तरफ लोगों का ध्यान खींचना ही होता है।
अगर इस बार भी यही बात थी तो फिर ऐसी नौबत आखिर क्यों और कैसे आ गई कि सदन में मार्शल बुलाने पड़े? निश्चित रूप से विपक्ष को देखना चाहिए कि उसका विरोध कब और कैसे हदों को पार करने लगा। इसका मतलब यह नहीं कि इस मामले में सत्ता पक्ष पूरी तरह पाक-साफ है। लोकतंत्र जिद से नहीं चलता। देखना पड़ता है कि कब विपक्ष के विरोध को अनदेखा करना है और कब हाथ पकड़ कर उसे अपने साथ कर लेना है। विपक्ष को मना लेने की क्षमता का प्रदर्शन करने में सरकार निश्चित रूप से चूकी है। दोनों पक्ष सही सबक लें तो लोकतंत्र की आगे की यात्रा बेहतर बनाई जा सकती है।
Tagsworry further
Triveni
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