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आम धारणा है कि टीआरपी देश के सभी टीवी वाले घरों का प्रतिनिधित्व करती है पर यह सच नहीं है। टीआरपी की इस ठगी के बारे में बाकी सबको तो छोड़िए, अपने आपको बहुत चतुर मानने वाला मीडिया भी बहुत इज्जत देता है। टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट्स। ये टीआरपी ही तय करती है कि कौन-सा टीवी चैनल सबसे लोकप्रिय है। कभी-कभी लगता है कि ये टीवी के संपादक नहीं, टैम की कठपुतलियां हैं। आखिर इन टीआरपी के मारे बेचारे टीवी संपादकों को मिल-बैठकर यह मांग क्यों नहीं करनी चाहिए कि टैम वाले टीआरपी रिपोर्ट त्रैमासिक दिया करें। ये टीवी संपादक मिलते-बैठते भी तभी हैं जब सरकार इन्हें आंख तरेरती है, रेगुलेट करने की बात करती है। टैम की कार्यप्रणाली को पारदर्शी बनाने, ग्रामीण इलाकों को भी टीआरपी दायरे में लाने, टीआरपी मापने की प्रक्रिया को ज्यादा वैज्ञानिक बनाने, टैम की कार्यप्रणाली पर नजर रखने के लिए टीवी जर्नलिस्टों और बुद्धिजीवियों की कमेटी बनाने की मांग करनी चाहिए।
ऐसा लगता है जैसे टीवी मीडिया टीआरपी के चक्कर में अपनी भूमिका का निर्वाह ठीक से नहीं कर पा रहा है। इसलिए अब समय आ गया है कि टीवी को टीआरपी के इस कुचक्र से अपने आप को निकालना होगा और यह कार्य स्वयं टीवी से जुड़े पत्रकार व बड़ी संस्थाएं ही कर सकती है। कहीं ऐसा न हो भस्मासुर की तरह टीवी इंडस्ट्री खुद ही टीआरपी की इस दौड़ में अपनी थोड़ी बहुत बची हुई विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दे। अपने आप को लोकतंत्र का रक्षक व प्रहरी बताने वाले टीवी मीडिया को अब अपने इस कथन को सिद्ध करना होगा। उसे अपनी भूमिका, विश्वसनीयता व सार्थकता को दर्शकों के दिलों में प्रयास पूर्वक पुन: स्थापित करना होगा। इसके लिए आवश्यक है कि मीडिया संस्थाएं व सरकार जनता के सरोकारों को ध्यान में रखते हुए, इस टीआरपी को लेकर कुछ पैमाने तय करे। जिससे मीडिया वास्तव में अपने कर्तव्यों एवं दायित्वों का निर्वहन भी ठीक से करता हुआ दिखे व दर्शकों में भी उसका विश्वास बना रहे।