- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- दुनिया की पहली महिला...
x
भोपाल के एक परंपरागत मुस्लिम परिवार की ग्यारह साल की पंच वक्ता नमाज़ी एक लड़की की तारीफ उसके घर वालों के पास पहुंची तो वो खुश होने के बजाए चिंतित हो गए
शकील खान बात पुरानी है. भोपाल के एक परंपरागत मुस्लिम परिवार की ग्यारह साल की पंच वक्ता नमाज़ी एक लड़की की तारीफ उसके घर वालों के पास पहुंची तो वो खुश होने के बजाए चिंतित हो गए. लड़की की धर्मभीरू मां ने तत्काल अपनी लड़की के उस शौक को रोकने का फरमान जारी कर दिया, जो उस लड़की की तारीफों का बायस बना था.
हुआ कुछ यूं था, भोपाल की तंग गलियों में संगीत की सजती महफिलों में एक लड़की ने वाहवाही लूटना शुरू की. बात घर तक पहुंची उसकी मां के कान खड़े हुए. उस ज़माने में तो गीत संगीत से इतना परहेज किया जाता था कि घर के लड़कों को भी इससे दूर रखा जाता था. फिर ये तो लड़की थी, उपर से तुर्रा ये कि लड़की एक परंपरागत मुसलिम समाज से ताल्लुक रखती थी. उस दौर के मां बाप कैसे सहन कर सकते थे कि उनकी 11 साल की पांचों टाइम की नमाज़ पढ़ने वाली लड़की संगीत की महफिलों की शान बने. इसलिए घर्मभीरू मां जमीला ने हुक्म सुना दिया कि गीत संगीत बिलकुल नहीं चलेगा.
जब इस लड़की को गीत संगीत की महफिलों से दूर कर दिया गया, तो हताश लड़की ने बिस्तर पकड़ लिया. उसकी हालत इतनी बिगड़ी की वो मरणासन्न अवस्था में पहुंच गई. अच्छे से अच्छे डाक्टरों से उसका इलाज कराया गया, लेकिन किसी को ना मर्ज़ समझ में आ रहा था ना इलाज. हालात यहां तक पहुंचे कि 'राम नाम सत्य' बस अब हुआ कि तब. तभी डाक्टर को उस लड़की के गाने के शौक और घरवालों द्वारा उस पर लगाई गई पाबंदी की बात पता चली. डाक्टर ने चांस लेने की गरज़ से बिना कोई गारंटी लिए सलाह दी कि 'इसे गाने बजाने और संगीत की महफिल में शिरकत करने की इजाज़त दी जाए, हो सकता है कुछ करिश्मा हो जाए.' मरते क्या ना करते के अंदाज़ में लड़की के वालिद अब्दुल रशीद खान और मां जमीला ने उसके गाने पर लगी पाबंदी को हटा दिया.
आप यकीन करेंगे ? सिर्फ 12 दिनों में, जी हां, चश्मदीद बताते हैं कि जो लड़की मौत की दहलीज़ पर खड़ी हुई थी वो महज़ 12 दिनों में न सिर्फ भली चंगी हो गई बल्कि संगीत की महफिलों में फिर से अपना जादू जगाने लगी. अब आप इसे संगीत का जादू कहें या लड़की की जीवटता, करिश्मा होना था, कमाल होना था, हो गया.
यही लड़की आगे जाकर कव्वाल बनी, दुनिया की पहली महिला कव्वाल. जिसे शकीला बानो भोपाली के नाम से जाना-पहचाना और सराहा गया. उस दौर में मुसलिम महिलाओं का घर से बाहर निकलना ही मुशकिल होता था मंच पर जाकर कव्वाली तो दूर की बात थी लेकिन शकीला ने यह जंग भी जीती. ऐसे हालात में जीती जब कव्वाली में महिलाओं की आमद कतई संभव नहीं थी. इस असंभव काम को अपनी जीवटता और जि़द से संभव बनाने वाली इस महिला कव्वाल को अगर दुनिया की पहली महिला कव्वाल का दर्जा दिया गया तो, उस पर किसी ने कोई मेहरबानी नहीं की, कोई एहसान नहीं किया. वो बिना शक इस हैसियत की हकदार थी, वास्तविक हकदार.
भोपाल की तंग गलियों से संगीत की दुनिया में अपनी जादुई आवाज़, बेपनाह हुस्न और दिलकश अदाकारी से दुनिया भर के संगीत प्रेमियों को अपनी गिरफ्त में लेने वाली इस महिला कव्वाल की कहानी किसी तेजरफ्तार फिल्म की स्क्रिप्ट की तरह उतार-चढ़ाव से भरपूर, रोचक और रोमांचक है. नाटकीय घटनाओं से भरपूर है शकीला बानो भोपाली की जिंदगी की रोमांचक दास्तां में टर्न और टि्वस्ट भी खूब हैं.
बताते चलें शुरूआती दौर में शकीला ने भोपाल जयहिंद वेरायटी थिएटर ज्वाइन किया था और देश भर का भ्रमण भी किया. बचपन की बीमारी को अगर पहला ट्विस्ट मानें तो कहानी में दूसरा टि्वस्ट शकीला की खुशनसीबी से आया. बीआर चोपड़ा उन दिनों नया दौर फिल्म बना रहे थे. जिसमें दिलीप कुमार और वैजयंती माला की जोड़ी काम कर रही थी. जानीवाकर भी फिल्म में थे. भोपाल के पास एक जगह है बुधनी. बुधनी के पास डेंस्ट फारेस्ट एरिया है. इन्हीं जंगलों में बीआर चौपड़ा ने नया दौर की शूटिंग प्लान की. ये भी एक अलग और इंटरेस्टिंग स्टोरी है कि बीआर चोपड़ा मुंबई से इतनी दूर इंटीरियर में बसे एक छोटे से गांव बुधनी कैसे पहुंचे. ये कहानी बाद में. हम बात कर रहे थे शकीला के जीवन में आने वाले टि्वस्ट की.
शकीला ने टीम नया दौर के सामने अपनी कव्वाली की परफार्मेंस दी. इस परफार्मेंस को बहुत दाद मिली और इसका रिज़ल्ट ये निकला कि दिलीप कुमार ने शकीला को मुंबई आने की दावत दे दी. उनके कहने पर शकीला ने सपनों की दुनिया मुंबई की ओर कूच किया और फिर पलटकर नहीं देखा. पहले तो उन्होंने मुंबई में अनेक शो परफार्म किए. इंडस्ट्री उनकी ऐसी दीवानी हुई कि उन्हें ना सिर्फ फिल्में धड़ाधड़ मिलने लगीं, बल्कि हालत यह हो गई कि उन दिनों फिल्म में एक कव्वाली होना जरूरी हो गया, शकीला की कव्वाली. ठीक उस तरह जैसे बाद के दौर में आइटम सांग हुआ करता था. वैसे तो आईटम सांग से कव्वाली की तुलना सरासर गलत है लेकिन सरल शब्दों में समझाना हो तो कह सकते हैं कि कव्वाली अलग और भद्र रूप में उन दिनों का आइटम सांग थी.
शकीला बानो भोपाली ने अपने बेबाक अंदाज़ और दबंग व्यक्तित्व के जरिए ना सिर्फ अपनी पहचान बनाई बल्कि महिला कव्वाल होने के बावजूद कव्वाली की दुनिया में अपनी अलग धाक भी जमाई.
उन्होंने फिल्मों के साथ साथ कव्वाली के परफार्मेंस देना भी जारी रखे। उन्होंने कव्वाली के दिग्गज जानी बाबू कव्वाल के साथ जोड़ी बनाई. मंच पर दौनों के बीच होने वाला रोचक मुकाबला श्रोताओं को अपने मोहपाश में बांध लेता था. जानी बाबू के साथ जोड़ी बनाने के बावजूद शकीला की गायकी की विशेषता उनका सोलो परफार्मेंस था, वो अकेला ही मैदान संभालने में सक्षम थीं. उनकी प्रस्ततियों में भव्य बेकड्राप , म्युजि़कल आर्केस्ट्रा और कव्वाली में इस्तेमाल किए जाने वाले भरपूर एक्शन और डांस होते थे।
उन दिनों शकीला बानो भोपाली की शोहरत ने न सिर्फ देश में, बल्कि दुनिया के अनेकानेक मुल्कों में अपने परचम फहराए. पूर्व आफ्रीका से लेकर इंगलैंड और कुवैत तक में उनकी कव्वली के प्रति लोगों में दीवनागी देखी गई.
1957 में फिल्म निर्माता सर जगमोहन भट्ट ने उन्हें पहली बार अपनी फिल्म् जागीर में अभिनय का अवसर दिया. उसके बाद उन्हें सह अभिनेत्री, चरित्र अभिनेत्री सहित गीत गाने के मौके भी फिल्मों में मिले. एचएमवी कंपनी ने 1971 में उनकी कव्वाली का पहला एलबम जारी किया. इस एलबम ने देश भर में इतनी घूम मचाई कि शकीला की कव्वाली घर घर में सुनी जाने लगी.
उनकी फिल्मोग्राफी पर नज़र डालें तो पता चलता है कि अपनी फिल्मी जि़ंदगी में उन्होंने 32 फिल्मों में अभिनय किया और इन फिल्मों में 22 गाने गाए. तीन फिल्मों में उन्होंने बतौर सिंगर पार्टिसिपेट किया और चार गाने/कव्वाली गाए. एक फिल्म में गीत लिखा और गाया भी. एक फिल्म में उन्होंने संगीत भी दिया और दो गीत/कव्वाली गाई भी. उनकी प्रमुख फिल्मों में हरफन मौला (1976), हमराही (1974), डाकू मानसिंह (1971), दस्तक (1970), मंगू दादा (1970), टारज़न (1970), जि़आरत गहे हिंद (1970), गुंडा (1969), सखी लुटेरा (1969), सीआईडी एजेंट (1968), नागिन और सपेरा (1966), रूस्तम कौन (1966), सरहदी लुटेरा (1966), टार्जन और हरक्युलिस(1966), टार्जन और जादुई चिराग़ चिराग (1966) ब्लैक एरो (1965) शामिल हैं.
शकीला के बारे में मशहूर लेखक और शायर जावेद अख्तर कहते हैं "शकीला बानो की तुलना न्यूटन और आइंस्टीन से की जा सकती है। उन्होंने मौज़ूदा दौर की कव्वाली को ईज़ाद किया, दरयाफ्त किया और उसे परवान चढ़ाया। इस तरह वो आज की कव्वाली की आविष्कारक हैं।"
मशहूर लेखक खुशवंत सिंह की नज़र में शकीला कुछ यूं थी.. "शकीला को छोड़कर कोई दूसरा मर्द, औरत और राजनीतिज्ञ ऐसा नहीं है, जो हज़ारों श्रोताओं को घंटों अपने कब्ज़े में रख सके और वो भी कई-कई यादों के साथ।"
हमने पहले ही कहा था कि शकीला की जि़ंदगी पूरा फिल्मी ड्रामा है। हमने झूठ नहीं कहा था उनकी लाइफ में भरपूर अप-एन-डाउन्स और नाटकीय मोड़ हैं. अपार खुशियां थीं तो बेशुमार ग़म भी. अब इसे आप क्या कहेंगे, जिसकी पहचान ही गले से हो, जिसकी जिंदगी में सबकुछ उसकी आवाज़ की बदौलत हो. उसकी आवाज ही चली जाए और वो बेज़ुबान हो जाए, तो. फिज़ाओं में तैरती अफवाहों ने कुछ ऐसा ही एलान किया कि शकीला की आवाज चली गई है. कहा गया कि भोपाल में हुई गैस त्रासदी ने शकीला से उनसे उनकी आवाज छीन ली है.
लेकिन उनके परिवार के लोगों ने इसे महज़ अफवाह बताया, साथ ही ये भी कहा कि बेशक त्रासदी ने उनकी आवाज नहीं छीनी लेकिन दमा, डायबिटीज़ और हाई ब्लड प्रेशर की पहले से ही शिकार रही शकीला को गैस त्रासदी ने काफी क्षति पहुंचायी.
उनके अंतिम दिनों का ठौर मुंबई के सेंट जार्ज हास्पिटल का एक कमरा था जहां हाइटिस हार्निया से पीडि़त शकीला अपनी बीमारी से ज्यादा अपनी उपेक्षा से परेशान थीं. पेट के अंदर फोड़े की तकलीफ तो वो शायद सहन भी कर पा रही थीं, लेकिन अकेलापन और उपेक्षा उनकी बड़ी पीड़ा थी. जैकी श्राफ जैसे कुछ कद्रदां दोस्तों ने उनकी मदद जरूर की लेकिन वो शायद नाकाफी थी. इसी के चलते उन्होंने 16 दिसम्बर 2002 को इस फानी दुनिया से विदा ले ली.
अंतिम सांस लेने से पहले उनके अंदर 'हमराही' फिल्म के लिए उनका ही लिखा एक मशहूर गीत कुलबुलाकर बाहर आने को बेताब हो रहा था – 'अब ये छोड़ दिया है तुझ पे, चाहे ज़हर दे या जाम दे.'
Next Story