सम्पादकीय

विश्व आदिवासी दिवस विशेष : एक बची हुई दुनिया को बचाने का प्रयास

Gulabi
9 Aug 2021 11:32 AM GMT
विश्व आदिवासी दिवस विशेष : एक बची हुई दुनिया को बचाने का प्रयास
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विश्व आदिवासी दिवस आदिवासियों के मूलभूत अधिकारों की सामाजिक

वैभव उपाध्याय

विश्व आदिवासी दिवस आदिवासियों के मूलभूत अधिकारों की सामाजिक, आर्थिक और न्यायिक सुरक्षा के लिए प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को मनाया जाता है। पहली बार आदिवासी या मूलनिवासी दिवस 9 अगस्त 1994 को जेनेवा में मनाया गया।


आदिवासी शब्द दो शब्दों 'आदि' और 'वासी' से मिल कर बना है जिसका अर्थ 'मूल निवासी' होता है। भारत में लगभग 700 आदिवासी समूह व उप-समूह हैं। इनमें लगभग 80 प्राचीन आदिवासी जातियां हैं। भारत की जनसंख्या का 8.6% (10 करोड़) जितना एक बड़ा हिस्सा आदिवासियों का है।

आदिवासियों का इतिहास और परंपरा
पुरातन संस्कृत ग्रंथों में आदिवासियों को 'अत्विका' नाम से संबोधित किया गया एवं महात्मा गांधी ने आदिवासियों को गिरिजन (पहाड़ पर रहने वाले लोग) से संबोधित किया। भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिए 'अनुसूचित जनजाति' पद का उपयोग किया गया है।
किसी भी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल करने के निम्न आधार हैं- आदिम लक्षण, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक पृथक्करण, समाज के एक बड़े भाग से संपर्क में संकोच या पिछड़ापन।

आदिवासियों की देशज ज्ञान परंपरा काफी समृद्ध है। इसकी समृद्धि ही इसके शोषण का कई बार कारण भी बनती है। कई बार ऐसा हुआ कि बड़े औद्योगिक घराने के लोग आदिवासियों के देशज ज्ञान को प्राप्त करने के लिए उनके साथ छल करते हैं। इसके ढेर सारे उदाहरण संबंधित क्षेत्रों में मिल जाते हैं। वर्जिनियस झाझा की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय कमिटि का गठन 2013 में किया गया था। इस कमिटि के द्वारा जनजाति में मूल शब्द "जाति" को परिभाषित किया गया।

इस शोध-पत्र में यह बताया गया है कि कैसे विस्थापन के बाद आदिवासी जातियां अपने मूल व्यवसाय को छोड़ अन्य कार्यों में लग जाती हैं, जिस कारण से एक समय के पश्चात ये आदिवासियां धीरे-धीरे अपने वास्तविक एवं एकाधिकार ज्ञान को भूलने लगती हैं।

प्रो. खुदीराम टोप्पो ने अपने एक लेख में इस बात का उल्लेख किया था-
देश के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र का 20 प्रतिशत भाग आदिवासी प्रदेश है जहां अनुमानतः राष्ट्रीय संसाधन का 70 प्रतिशत खनिज, वन, वन्य प्राणी, जल संसाधन तथा सस्ता मानव संसाधन विद्यमान है, फिर भी यहां के लोग विस्थापित हो रहे हैं जिसके कारण वे अपने मूल एवं समृद्ध देशज ज्ञान से दूर हो जा रहे हैं।
यही कारण है कि भारत के अनुसंधान एवं प्रयोगों में देशज ज्ञान की खोज आज के दौर में नई प्रवृति के रूप में उभरा है। विगत् वर्षों में कई ऐसे अनुसंधान हुए जिसके माध्यम से यह बात सामने आई कि आदिवासी विकास में संस्थानों या सरकारी व्यवस्था द्वारा विकास को आदिवासी क्षेत्रों में अपने हिसाब से लागू किया जा रहा है; समाज के पूर्व व्यवस्थाओं को ध्यान में नहीं रखा जा रहा है जिससे योजनाओं का सही तरीके से क्रियान्वित नहीं हो पा रहा है। नामबिया में जुस्सी एस जौहिईनें (Jussi S. Jauhiainen) और लौरी हूली(Lauri Hooli) ने बताया कि आदिवासियों द्वारा उस विकास को जल्दी स्वीकार किया गया जो उनकी संस्कृति से जुड़ा था।

आदिवासियों की दुनिया और ज्ञान परंपरा
आदिवासियों के पास डिजास्टर, डिफेंस और डेवलपमेंट का अद्भुत ज्ञान है। ऐतिहासिक पुस्तकों एवं ग्रन्थों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि कैसे मुगल या अंग्रेज़ पूरे भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेते हैं लेकिन जब वे आदिवासी क्षेत्रों में प्रवेश करने की सोचते हैं तो उन्हें मुह की खानी पड़ती है।

इसी प्रकार अंडमान के जरवा आदिवासी के द्वारा सुनामी जैसी भयानक प्राकृतिक आपदा में भी खुद को बचा लेने एवं इसका अंदेशा लगा लेने कि कोई भयानक प्रकृतिक आपदा आने वाली है ने इस विषय क्षेत्र के लोगों को यह विश्वास दिलाया कि आदिवासियों के पास डिजास्टर की अद्भुत समझ है। इसी प्रकार आदिवासी समाज में एक मदद की परंपरा है जिसे 'हलमा' कहते हैं।

इसके अंतर्गत जब कोई व्यक्ति या परिवार अपने संपूर्ण प्रयासों के बाद भी खुद पर आए संकट से उबरने में असमर्थ होता है तब उसकी मदद के लिए सभी ग्रामीण जुटते हैं और अपने नि:स्वार्थ प्रयत्नों से उसे उस मुश्किल से बाहर निकालते हैं।

यह एक ऐसी गहरी और उदार परंपरा है जिसमें संकट में फंसे व्यक्ति की सहायता की जाती है। यह परंपरा या ज्ञान चर्चा में तब आई जब 2018 में देश में भयानक जल संकट को देखते हुए आदिवासियों ने इस बार हलमा का आह्वान धरती मां के लिए किया।

इसका परिणाम यह रहा कि मात्र कुछ दिनों में देश के अन्य-अन्य स्थानों पर निशुल्क हजारों जल संरक्षण केंद्र तैयार कर दिए गए। इस देशज ज्ञान की खास बात यह भी रही कि बड़े महानगरों से आईआईटी कर चुके इंजीनियर और कुशल तकनीशियन भी इसमें अपनी पूरी दिलचस्पी के साथ शामिल हो रहे हैं।

नितिन धाकड़ पेशे से इंजीनियर हैं लेकिन जब 2015 में वे इस परंपरा से जुड़े तो इस परंपरा से बहुत प्रभावित हुए, इसका परिणाम यह रहा कि 2017 से वे अपनी नौकरी छोड़ कर इसी परंपरा के तहत लोगों को जागरूक एवं कार्य करने की प्रेरणा दे रहे हैं।
समाज और जीवन जीने की पद्धतियां
लोक चिकित्सा ज्ञान भी आदिवासियों की महत्वपूर्ण ज्ञान परंपरागत् है जिसका सामुदायिक उपयोग होता है। इसे समाज के उन सदस्यों की स्वीकृति प्राप्त होती है जो अपने अनुभवों के आधार पर इसे स्थापित किए होते हैं। यह पूर्ण रूप से तार्किक मान्यताओं पर आधारित होती है।

आधुनिक चिकित्सा पद्धति इसे अव्यवस्थित चिकित्सा ज्ञान कहती है लेकिन लोक चिकित्सकीय ज्ञान का व्यक्ति के अंतरीकरण की प्रक्रिया से सम्बद्ध होता है एवं इसकी सबसे जरूरी शर्त इसका हस्तांतरित होते रहना होता है, यही इस ज्ञान की ताकत भी है।

आदिवासियों ने अपने ज्ञान का उपयोग सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए किया। आजादी के आंदोलन में उनके योगदान को याद करना 'आजादी के अमृत महोत्सव' को पूर्ण करेगा। आदिवासियों का राष्ट्र के प्रति वह अमृत भाव ही था जिसने सिद्दू और कान्हू, तिलका और मांझी, बिरसा मुंडा इत्यादि वीर योद्धाओं को जन्म दिया।

आज जब देश आजादी का अमृत महोत्सव माना रहा है; आजादी के नायकों को याद कर रहा है। ऐसे में यह भी जरूरी है कि आदिवासियों के राष्ट्र प्रेम और इस प्रेम में दिए उनके अनोखे बलिदान को भी याद किया जाए। 1790 का 'दामिन विद्रोह', 1828 का 'लरका आन्दोलन', 1855 का संथाल का विद्रोह, यह सभी ऐसे आंदोलन रहे जिसमें भरी संख्या में आदिवासी ने अपना बलिदान दिया। आदिवासियों या वनवासियों की अपनी मिट्टी के प्रति प्रतिबद्धता ही राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता और सम्मान है।

आदिवासी राष्ट्र को सिर्फ स्वतंत्र ही नहीं बल्कि जागृत करने का काम भी अपने लोक संचार माध्यम के जरिये करते रहे हैं। बंगला लोक नाट्य 'जात्रा' का उपयोग स्वतन्त्रता संघर्ष में खूब किया गया।

लोकगान के परंपरागत रूप 'पाला' का उपयोग भी जनजागरूकता एवं स्वतन्त्रता आंदोलन में किया गया। इस प्रकार ऐसे कई उदाहरण इतिहास में मिलते हैं जहां लोक संचार माध्यम के जरिये आदिवासियों ने आजादी की अलख जगाए रखी।

इस प्रकार आदिवासियों की यह देशज ज्ञान परंपरा देश-दुनिया के लिए सशक्त समाधान का माध्यम बन सकती है, जरूरत है इस देशज ज्ञान को चिह्नित कर इसे वैज्ञानिक मान्यता देने की।

देश के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम ने कहा था कि यदि वाकई हमें विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनना है तो देश में वैज्ञानिक शोध के अवसरों को न केवल आसान करने की जरूरत है, बल्कि भारत के अशिक्षित ग्रामवासी या सामान्य जन जो आविष्कार कर रहे हैं, उन्हें भी वैज्ञानिक मान्यता देकर उपयोग करने की जरूरत है।


डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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