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सम्पादकीय
World Theater Day: हिंदी रंगमंच अभी बाल्यावस्था में है!
Gulabi Jagat
27 March 2022 8:58 AM GMT
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'थिएटर’ शब्द ज़बान से निकलता है तो सीधे रंगमंच के स्टेज पर अभिनय करते कलाकार का चित्र मस्तिक में कौंधता है
'थिएटर' शब्द ज़बान से निकलता है तो सीधे रंगमंच के स्टेज पर अभिनय करते कलाकार का चित्र मस्तिक में कौंधता है, या फिर सिनेमा हाल का दृश्य ज़ेहन में उभरता है. लेकिन एक और संदर्भ में थिएटर शब्द का इस्तेमाल किया जाता है वह है 'ऑपरेशन थिएटर'. रंगमंच और मूवी थिएटर के मामले में तो बात समझ में आती है, दोनों जगह दर्शक परफार्मेंस देखते हैं, एक जगह नाटक के अभिनेताओं का तो दूसरी जगह सिने कलाकारों का. लेकिन ऑपरेशन थिएटर का दर्शकों से क्या लेना देना?
लेना देना है, ऑपरेशन थिएटर का भी दर्शकों से लेना देना है. ऑपरेशन थिएटर शब्द एक नॉन स्टराइल, स्तरीय और एम्फीथिएटर के संदर्भ में यूज़ होता है, जिसमें छात्र और दर्शक सर्जनों को सर्जरी करते देख सकते हैं. एक और समानता तीनों में देखी जा सकती है. तीनों में फोकस लाइट का इस्तेमाल होता है. रंगमंच में कलाकार पर लाइट फोकस होता है, सिनेमा हॉल में परदे लाइट फोकस होकर सजीव चित्र दिखाए जाते हैं और ऑपरेशन थिएटर में मरीज़ के अंग विशेष पर फोकस किया जाता है.
चलिए कुछ परफारमेंस से जुड़ी बातें भी कर लेते हैं. पुरानी बात है भोपाल में रतन थियाम का नाटक चल रहा था, गैर हिंदी भाषी नाटक था. नाटक जिस भाषा में हो रहा था, दर्शक उस लेंग्वेज को नहीं समझते थे. बावजूद इसके नाटक ने दर्शकों को अपने आगोश में पूरी तरह जकड़ा हुआ था. ऐसा कमाल हर कोई नहीं कर सकता. कहने का मतलब ये कि अगर नाटक में संप्रेषित करने की क्षमता है, सेट डिज़ाइन, लाइट, कास्ट्यूम और कलाकारों का अभिनय और निर्देशन अप टू द मार्क है, तो भाषा आड़े नहीं आती. रतन थियाम अकेले ऐसे निर्देशक नहीं, जो ऐसा कर पाने में सफल थे. बव कारंत, हबीब तनवीर, इब्राहीम अलकाजी, गिरीश कर्नार्ड, सत्यदेव दुबे, विजय तेंदुलकर, नाग बोडस बहुत सारे अन्यान्य रंगकर्मी हैं, जो अपने काम से दर्शकों को रोमांचित करने में सफल होते रहे हैं.
थिएटर करने की जरूरी शर्त है आपको बहुत ज्यादा पढ़ना पड़ेगा. निर्देशक हो या एक्टर उसे दुनियादारी की बेहतर समझ होना जरूरी है. जब तक एक्टर गहराई में जाकर केरेक्टर को पूरी तरह समझेगा नहीं उसे संप्रेषित नहीं कर सकता है. जब तक केरेक्टर अंदर जाकर आपकी आत्मा में नहीं समाएगा स्टेज पर बाहर नहीं आएगा. हिंदी रंगमंच की बात करें तो अधिकांश एक्टर बौद्धिक क्षमता की कमी से जूझते नज़र आते हैं. ऐसा नहीं कि बौद्धिक क्षमता वाले एक्टर-डायरेक्टर हैं ही नहीं, हैं लेकिन बहुत कम. इस कमी का खामियाजा हिंदी थिएटर भुगत रहा है.
बरसों से हिंदी में नए और अच्छे नाटक नहीं लिखे जा रहे हैं और दूसरी भाषा से अनुदित और मंचित नाटकों का मंचन अपेक्षाकृत आसान होता है. क्योंकि इसकी डिज़ाइन, कास्ट्यूम्स, लाइट और सेट आदि पर नए सिरे से काम नहीं पड़ता. ये एक तरह से 'रेडी टू ईट' की पैटर्न पर 'रेडी टू यूज़' वाले नाटक हैं. यहां अपवाद भी हैं, कुछ लोग मेहनत भी कर रहे हैं, अच्छा और प्रयोगधर्मी काम भी, लेकिन रोना वही है, इनकी संख्या कम है.
मराठी रंगमंच ज्यादा समृद्ध है क्योंकि वहां दर्शक टिकिट खरीदकर नाटक देखता है. जबकि हिंदी बेल्ट में हर थिएटर ग्रूप के अपने अलग और लिमिटेड दर्शक हैं, संख्या बहुत कम हैं. नई दिल्ली से मिलने वाली ग्रांट इन्हें नाटक मुफ्त में करने और दिखाने की सुविधा देती है. मध्य प्रदेश के सीधी जिले में लंबे समय से लगातार अच्छे और नए नाटक हो रहे हैं. लगातार नाट्य प्रशिक्षण चल रहे हैं. सीधी जैसे दूरस्थ जिलों में जब प्रयोगाधर्मी रंग गतिविधियों हो सकती हैं तो रंगमंच के बड़े और स्थापित सेंटर्स क्यों नहीं हो सकतीं? इनकी जिम्मेदारी ज्यादा है.
थिएटर के प्रति आम जनता का लगाव कम है इसका कारण यह है कि थिएटर आम लोगों का मनोरंजन नहीं करता. विशुद्ध मनोरंजन इसका उद्देश्य है भी नहीं. लेकिन फिर भी थिएटर को जनता के ज्यादा करीब जाने के लिए सामाजिक संदेश के साथ इसमें मनोरंजन का पुट भी डालना चाहिए. समाज को अगर आपको बेहतर संदेश देना है तो कोशिश ये भी होनी चाहिए कि वो अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे.
बहरहाल. बात वर्ल्ड थिएटर डे की. अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच संस्थान द्वारा 1961 में स्थापित विश्व रंगमंच दिवस हर साल 27 मार्च को मनाया जाता है. इस अवसर पर एक अधिकारिक संदेश जारी किया जाता है. 1962 में फ्रांस के जीन काक्टे द्वारा पहला संदेश जारी किया गया था. 2002 में इस संदेश को जारी करने का सौभाग्य भारत को मिला जब ख्यात रंगकर्मी और फिल्म कलाकार गिरीश कर्नार्ड ने इसे जारी किया. इसे मनाने का उद्देश्य लोगों में थिएटर के प्रति लगाव पैदा करना है.
स्टेज की बात करें तो तीन तरह के स्टेज होते हैं. एक सामान्य स्टेज जो ऊंचाई पर होता है और सामने नीचे की ओर दर्शक बैठते हैं. दूसरा होता है थ्रस्ट स्टेज, जिसे इंटीमेट या क्लोज़ स्टेज भी कहते हैं. इसमें तीन तरफ दर्शक बैठते हैं, इसमें कलाकार और दर्शक के बीच की दूरी लगभग खत्म हो जाती है. दर्शक ऊपर और प्रदर्शन नीचे. ऐसे थिएटर भारत भवन भोपाल, पूना अकाडेमी और जवाहर भवन जयपुर में है और भी जगह हैं. तीसरा थिएटर ओपन थिएटर होता है. यह भी क्लोज़ स्टेज की तरह होता है जिसमें तीन तरफ दर्शक ऊपर की तरफ बैठते हैं और नीचे परफारमेंस होता है. भारत भवन भोपाल में परफारमेंस के नज़रिए से बहुत अच्छा क्लोज़ स्टेज और ओपन एयर थिएटर मौजूद है.
भोपाल स्कूल ऑफ ड्रामा के पूर्व डायरेक्टर और एनएसडी के गोल्ड मेडेलिस्ट रंगकर्मी आलोक चटर्जी कहते हैं कारंत जी ने हमें एक बात सिखाई थी प्ले जिस तरह के स्टेज पर होना है उसके हिसाब से ही नाट्य प्रस्तुति करना पड़ेगी. नाटक का कोई भी परफारमेंस एक तरह से नहीं हो सकता. अगर क्लोज़ थिएटर में होगा तो उसका रूप और विस्फोट अलग होगा, वही नाटक अगर बहिरंग यानि ओपन थिएटर में होगा तो उसका पैटर्न, विस्तार बदल जाएगा. सेम नाटक अगर आप चारों तरफ दर्शक बिठाकर मेले में करेंगे, तो फिर उसका पैटर्न पूरी तरह बदल जाएगा. ब्लॉकिंग का पैटर्न भी बदलना पड़ेगा. चारों तरफ दर्शक हैं तो अलग, तीन तरफ हैं तो अलग और सामने दर्शक हैं, तो अलग परफारमेंस. क्लोज़ थिएटर में आवाज को ज्यादा प्रोजेक्ट करने की जरूरत नहीं होती, क्योंकि दर्शक पास है. ओपन स्टेज में स्पीच, एक्सप्रेशन और बॉडी लेंग्वेज को बड़ा करना पड़ता है. नुक्कड़ नाटक को बिलकुल ही अलग तरह से डील करना होता है.
आलोक चटर्जी कहते हैं, रंगमंडल की रेपेटरी में काम करते बहुत सारे अनुभव हुए. नाटक जब रेपेटरी में चलता है तो एक शहर, दो शहर, पंद्रह शहर में चलता है. अब सब जगह एक से स्टेज तो होते नहीं. अलग अलग साइज़ और अलग तरह के स्टेज होते हैं. ऐसा भी होता है आपको क्लोज़ थिएटर चाहिए लेकिन वो बुक है, ओपन एयर खाली है, शो तो करना पड़ेगा. एक्टर और डायरेक्टर को बहुत फ्लेक्ज़ीबल होना चाहिए. आप रिजिड होकर थिएटर नहीं कर सकते. अपने आपको लगातार बदलने की क्षमता अपने आप में पैदा करना जरूरी है. हिंदी रंगमंच की दशा पर चुटकी लेते हुए आलोक कहते हैं ' हिंदी रंगमंच अभी भी बाल्यावस्था में है, अभी वो किशोर होगा, जवान होगा फिर बात करेंगे इसके बारे में.'
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
शकील खान फिल्म और कला समीक्षक
फिल्म और कला समीक्षक तथा स्वतंत्र पत्रकार हैं. लेखक और निर्देशक हैं. एक फीचर फिल्म लिखी है. एक सीरियल सहित अनेक डाक्युमेंट्री और टेलीफिल्म्स लिखी और निर्देशित की हैं.
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