सम्पादकीय

विश्व डाक दिवस विशेष: देशवासियों के दिलों से जुड़ा है डाक विभाग

Triveni
9 Oct 2020 9:33 AM GMT
विश्व डाक दिवस विशेष: देशवासियों के दिलों से जुड़ा है डाक विभाग
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9 अक्तूबर को पूरी दुनिया में विश्व डाक दिवस के तौर पर मनाया जाता है।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| 9 अक्तूबर को पूरी दुनिया में विश्व डाक दिवस के तौर पर मनाया जाता है। वर्ष 1874 में इसी दिन यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन का गठन करने के लिए स्विट्जरलैंड की राजधानी बर्न में 22 देशों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किया था।

1969 में जापान के टोकियो शहर में आयोजित सम्मेलन में विश्व डाक दिवस के रूप में इसी दिन को चयन किए जाने की घोषणा की गई थी। एक जुलाई 1876 को भारत यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन का सदस्य बनने वाला भारत पहला एशियाई देश था। जनसंख्या और अंतरराष्ट्रीय मेल ट्रैफिक के आधार पर भारत शुरू से ही प्रथम श्रेणी का सदस्य रहा है।

भारतीय डाक प्रणाली का जो उन्नत और परिष्कृत स्वरूप आज हमारे सामने है। वह हजारों सालों के लंबे सफर की देन है। अंग्रेजों ने डेढ़ सौ साल पहले अलग-अलग हिस्सों में अपने तरीके से चल रही डाक व्यवस्था को एक सूत्र में पिरोने की पहल की थी। उन्होंने भारतीय डाक को एक नया रूप और रंग दिया, पर अंग्रेजों की डाक प्रणाली उनके सामरिक और व्यापारिक हितों पर ही केंद्रित थी।

विश्व डाक दिवस का मकसद देश के सामाजिक और आर्थिक विकास में डाक क्षेत्र के योगदान के बारे में जागरूकता पैदा करना है। दुनियाभर में प्रत्येक वर्ष 150 से ज्यादा देशों में विविध तरीकों से विश्व डाक दिवस आयोजित किया जाता है।

डाक विभाग के महत्व को मशहूर शायर निदा फाजली के 'सीधा-साधा डाकिया जादू करे महान, एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान' शेर से समझा जा सकता है। फाजली ने जब यह शेर लिखा था उस वक्त देश में संदेश पहुंचाने का डाक विभाग ही एकमात्र साधन था।

डाकिए के थैले में से निकलने वाली चिट्ठी किसी को खुशी का तो किसी को गम का समाचार देती थी। मगर आज नजारा पूरी तरह से बदल चुका है। इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव ने डाक विभाग के महत्व को बहुत कम कर दिया है। आज लोगों ने हाथों से चिट्ठियां लिखना छोड़ दिया है। अब ई-मेल, वाट्सएप के माध्यमों से मिनटो में लोगो में संदेशों का आदान प्रदान होने लगा है।

पहले डाक विभाग हमारे जनजीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता था। गांव में जब डाकिया डाक का थैला लेकर आता था तो बच्चे-बूढ़े सभी उसके साथ डाक घर की तरफ इस उत्सुकता से चल पड़ते थे कि उनके भी किसी परिजन की चिट्ठी आयेगी।

डाकिया जब नाम लेकर एक-एक चिट्ठी बांटना शुरू करता तो सभी लोग अपनी या अपने पड़ौसी की चिट्ठी ले लेते व उसके घर जाकर उस चिट्ठी को बड़े चाव से देते थे। उस वक्त शिक्षा का प्रसार ना होने से अक्सर महिलाएं अनपढ़ होती थी। इसलिए चिट्ठी लाने वालो से ही चिट्ठियां पढ़वाती भी थी और लिखवाती भी थी।

कई बार चिट्ठी पढने-लिखने वाले बच्चों को इनाम स्वरूप कुछ पैसा या खाने को गुड़, पताशे भी मिल जाया करते थे। इसी लालच में बच्चे ज्यादा से ज्यादा घरों में चिट्ठियां पहुंचाने का प्रयास करते थे। उस वक्त गांवो में बैंक शाखा भी नहीं होती थी। इस कारण बाहर कमाने गए लोग अपने घर पैसा भी डाक में मनीआर्डर के द्वारा ही भेजते थे।

मनी ऑर्डर लेकर डाकिया स्वयं प्राप्तकर्ता के घर जाता था, व भुगतान के वक्त एक गवाह के भी हस्ताक्षर करवाता था। इसी तरह रजिस्टर्ड पत्र देते वक्त भी प्राप्तकर्ता के हस्ताक्षर करवाए जाते थे। डाक विभाग अति आवश्यक संदेश को तार के माध्यम से भेजता था। तार की दर अधिक होने से उसमें संक्षिप्त व जरूरी बातें ही लिखी जाती थी। तार भी साधारण जरूरी होते थे। जरूरी तार की दर सामान्य से दुगुनी होती थी।

पहले पत्रकारिता में भी जरूरी खबरे तार द्वारा भेजी जाती थी, जिनका भुगतान समाचार प्राप्तकर्ता समाचार पत्रों द्वारा किया जाता था। इस बाबत समाचार पत्र का सम्पादक जिलोंं में कार्यरत अपने संवाददाताओं को डाक विभाग से जारी एक अधिकार पत्र देता था। जिनके माध्यम से संवाददाता अपने समाचार पत्र को बिना भुगतान किए डाकघर से तार भेजने के लिए अधिकृत होता था। 15 जुलाई 2013 से सरकार ने तार सेवा को बंद कर दिया।

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