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चिट्ठी के नाम
प्रिय चिट्ठी !
हम यहां पर कुशलपूर्वक हैं और ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि आप भी वहां पर कुशलपूर्वक होंगी. हालांकि हम यह भलीभांति जानते हैं कि तुम अब कुशल नहीं हो, वक्त के थपेड़ों ने तुम्हें गुमनामी के ऐसे अंधेरे में डाल दिया है जहां कोई तुम्हें पहचानता भी नहीं है ! हम तुम्हें बचा नहीं पाए. भूल गए. तुम खो गई ! तकरीबन इतिहास बनने को हो. हम तो क्या, अब कोई भी तुम्हें याद नहीं करता. एक पूरी नई पीढ़ी ही आ गई है, जो तुमसे वाकिफ ही नहीं है, जिसने तुम्हें कभी हाथ में नहीं लिया, तुम्हें पाया नहीं, तुम्हारे मिल जाने की खुशी महसूस नहीं की, तुम्हारे आने का देर तक बेसब्री से इंतजार न किया, तुम्हें पढ़ा नहीं, तुम्हारा जवाब नहीं दिया, दोबारा खोलकर नहीं देखा, तुम्हें खोया नहीं.
आज जब विश्व पोस्टल दिवस है, तो मैं तुम्हें बारबार याद कर रहा हूं. पिछले डेढ़ सौ सालों से अभी कुछ दशक तक सालों साल अपनों से बात करने का तुम ही तो सहारा थीं. कितने दूर दूर रहते थे लोग, सब अपनी—अपनी दुनिया में जीया करते थे, हफ़्तों खबर नहीं मिलती थी, पर हमें प्रेम के धागे में बांधे तो रखती थीं, तुम न ! वह जिस्मानी दूरी होती थी, जिसे हम मील, कोस और किलोमीटर में माप सकते थे, पर दिलों की दूरी कभी तुमने हमें महसूस ही कहां होने दी? और कभी ऐसा लगता भी तो अचानक तुम्हारा आना सूखे में भरभराकर हरापन भर देता. तुम मिलतीं तो एक—एक शब्द उतना ही प्रेम से पढ़ते जितना प्रेम में भिगोकर वह लिखा गया होता.
तुम पर कोई ताला नहीं होता, स्क्रीन लॉक की तरह, जिसे अंगुलियां घुमाकर खोला जाता हो, खोल सकता था कोई भी, पढ़ सकता था, और सब सुन भी सकते थे, एक बार से मन नहीं भरता, दोबारा पढ़ते, और खोजते अपनी—अपनी बात, किस-किस के लिए प्यार लिखा और कोई छूट तो नहीं गया. एक चिट्ठी केवल एक के लिए नहीं होती, सबके लिए होती.
अब भले ही हमारा लिखा फट से दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक बिना देर किए पहुंच जाया करता हो, भले ही हम एक दूसरे की आवाज सुन लिया करते हों, और देख लिया करते हों शक्लें, पर सच कहूं खोई हुई चिट्ठी, तुम्हें पढ़ते हुए जो अपने प्रियजन की आवाज सुनने, गुनने और लिखने वाले को तुम्हारे जरिए कल्पना में देखने का जो आनंद था वह इस फटाफट संवाद में नहीं मिल पाता. जो जीवन के नौ रसों को तुम अपने में भरकर लाती थीं, वह हमें खोजने से भी नहीं मिलता, जीवन के विविध रूपों में भी तुमने हमेशा प्रेम को जो तरजीह दी, उसे बढ़ाया और फैलाया, वह कोई हजारों रुपयों की चलती फिरती स्मार्ट मशीनें भी कहां कर पाती हैं?
अब सभी को जल्दबाजी है और अपने—अपने मतलब का संवाद है ! तौलकर देखिएगा, इस जल्दीबाजी में अब प्रेम का हिस्सा कितना कम है. इस 'स्मार्ट- कम्युनिकेशन' में एक—दूसरे को दिखाने की होड़ है, एक अजीब सी दुनिया है, जहां पर हर कोई इतने पास है कि उससे आप सोचने के अगले कुछ सेकंड बाद संपर्क साध सकते हैं, लेकिन मन की दूरियां तो पहले से ज्यादा बढ़ी हुई हैं. उनमें वह मिठास नहीं है जो तुम अपने जमाने में पैदा कर दिया करती थीं. रिश्तों को या तो उलझने ही नहीं देती थीं या ऐसी कोई स्थिति होती भी तो अपने जादू से तुम सुलझा भी दिया करती थीं. अब बैचेनियों में ऐसी कवायदें कहां होती हैं, पल में कुछ होता है और अगले पल सब कुछ टूट जाता है, बिखर जाता है.
चिट्ठी, तुम कहां—कहां से चलकर आ जाती थीं, संघर्ष करते हुए. क्या क्या समेट कर लाती थीं. अब सब कुछ आसान हो गया है, लेकिन फिर भी जाने क्यों तुम्हारी कमी खलती है. यह तुम्हारे कमजोर हो जाने की निशानी है, या हम सब कमजोर हो गए हैं ? पता नहीं, लेकिन कुछ न कुछ टूटा और छूटा जरूर है, आहिस्ता—आहिस्ता दरक रहा है.
सब नया है, घर छोटे होते जा रहे हैं, दिलों की तरह ! पुराने के लिए जगह नहीं है, ज्यादा दिन तो नहीं बीते, कितना संभालकर रखते थे तुम्हें सालों तक. किसी कोने में, खूंटी के ऊपर, किसी तार से छेदकर तुम्हारा सीना. एक के ऊपर एक जमा होती जाती थीं, किसी गुलदस्ते की तरह, बिखरी हुई, और सालों तक टंगी रहती थीं, धूल की परतों के बीच. किसी दीवाली पर, झाड़ने—पोंछने के लिए उतारा तुम्हें और रिश्तों में जैसे फिर एक ताजगी भर उठती, यादें एक के बाद एक तुम्हारे जरिए सामने आती जातीं, अब तो सब कुछ किस तेजी से गुजरता है, वक्त नहीं है कुछ भी दोहराने का, वक्त हो भी जाए पर तुम तो नहीं हो न ?
ज्यादा वक्त नहीं बीता जब तकरीबन हर घर में चिटिठयों के आने—जाने की गुंजाइश हमेशा बनी रहा करती थी. पहले मुझे लगता था कि रेलगाड़ियों ने हिंदुस्तान को एक करके रखा है, रेल देश के हर कोने में धड़कती है, पर जब मैंने चिटिठयों के बारे में सोचा तो लगा कि उसका दायरा तो और भी बढ़ा है, वह कवि की कल्पनाओं की तरह कठिनतम बिंदु तक भी संघर्ष करके पहुंचती है, उसका दायरा कितना बड़ा है कि हर आदमी कम से कम यह उम्मीद रख सकता है कि उस तक कोई चिटठी आ भी सकती है, लेकिन अब चिटिठयां कहां आया करती हैं, टुकड़ों—टुकड़ों में टूटकर चिटठी 'टुकड़ा-टुकड़ा संदेश' बन रही है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
राकेश कुमार मालवीय, वरिष्ठ पत्रकार
20 साल से सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव, शोध, लेखन और संपादन. कई फैलोशिप पर कार्य किया है. खेती-किसानी, बच्चों, विकास, पर्यावरण और ग्रामीण समाज के विषयों में खास रुचि.
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