सम्पादकीय

टीके पर उलझती विश्व राजनीति

Rani Sahu
22 Sep 2021 6:30 PM GMT
टीके पर उलझती विश्व राजनीति
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कोविड-19 वैक्सीन महामारी की शुरुआत से ही खबरों में रही है

चंद्रकांत लहारिया कोविड-19 वैक्सीन महामारी की शुरुआत से ही खबरों में रही है और हमेशा आशा की किरण के रूप में देखी गई। लेकिन पहले टीके की मंजूरी से पहले ही 'टीका राष्ट्रवाद' शुरू हो गया था, जिसमें कई संपन्न देश अपने नागरिकों के लिए, अपनी आबादी की जरूरत से पांच गुना तक टीकों के भंडारण में जुट गए। सौभाग्य से, टीका वैज्ञानिकों के परिश्रम से कई देशों में कोविड टीकों पर खोज सफल हुई और 20 महीनों में दुनिया भर में बीस से अधिक टीकों को आपातकालीन मंजूरी मिली। बावजूद इसके, मध्य सितंबर तक दुनिया भर में लगाए गए 580 करोड़ टीकों में से करीब 80 फीसदी टीके उच्च और उच्च मध्य आमदनी वाले देशों में लगे हैं। निम्न आय वर्ग वाले देशों के खाते में टीके की बहुत कम खुराक पहुंची, जबकि टीके की उपलब्धता हर देश के लिए समान रूप से जरूरी है। आलम यह है कि अमीर देशों की 80 फीसदी आबादी को दोनों खुराक लग चुकी हैं, और अब वे तीसरी व चौथी खुराक पर विचार कर रहे हैं, जबकि कई देशों में बमुश्किल 10 फीसदी आबादी को टीके की महज पहली खुराक लग सकी है। 'टीका असमानता'का यह एक ज्वलंत उदाहरण है। पिछले कुछ महीनों में 'टीका राष्ट्रवाद' या 'टीका असमानता'दर्शाती है कि अमीर देश और वैश्विक समुदाय एक-दूसरे की मदद की जितनी भी बातें करें, धरातल पर तमाम दावे खोखले नजर आते हैं।

ब्रिटेन द्वारा जारी किए गए नए यात्रा और टीकाकरण संबंधी दिशा-निर्देश इसी कड़ी में हैं। इन निर्देशों के अनुसार, 4 अक्तूबर के बाद कई देशों के नागरिकों को, जो अपने यहां पूर्ण टीकाकरण भी करा चुके होंगे, ब्रिटेन सरकार मान्य नहीं करेगी और ब्रिटेन आने वाले ऐसे सभी लोगों को 10 दिनों तक एकांतवास में रहना होगा। साथ में, उन्हें नियमित आरटी-पीसीआर जांच भी करानी होगी। इसमें वे लोग भी शामिल हैं, जिन्हें भारत में बनी कोविशील्ड दी गई है। विवाद होने पर ब्रिटेन ने भले ही कोविशील्ड को मान्यता दे दी है, लेकिन इस वैक्सीन लगे यात्रियों को भी वहां बिना टीकाकरण का माना जाएगा, और उन पर वे तमाम बंदिशें लगेंगी, जो बिना टीका लगे व्यक्तियों पर लागू होती हैं। याद रखना होगा कि कोविशील्ड और ब्रिटेन में लगने वाली ऑक्सफोर्ड एस्ट्राजेनेका वैक्सीन वैज्ञानिक रूप से समान हैं, बस निर्माण-स्थल का अंतर है। ब्रिटेन का यह कदम गलतियों की उसी शृंखला की अगली कड़ी है, जो विश्व समुदाय कोविड-19 टीकाकरण के संदर्भ में लगातार करता आ रहा है। अन्यथा इस बात को कैसे समझाया जा सकता है कि जिन टीकों को ब्रिटेन अपने यहां लगा रहा है, वही टीके जब दूसरे देश के नागरिक लगाकर उसके यहां आना चाहते हैं, तो उन पर पाबंदियां होंगी? ब्रिटेन ने अफ्रीकी देश केन्या को वहां बने ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका टीके भेजे, लेकिन केन्या के नागरिक, जिन्हें वह टीके लगे, अगर ब्रिटेन आते हैं, तो ब्रिटेन सरकार उनको भी मान्यता देने से मना करती है। कई देशों ने ब्रिटेन की इस नीति को 'टीका भेदभाव' बताया है, और भारत सरकार ने जब इस नीति का विरोध किया, तब दो दिन बाद ब्रिटेन सरकार ने भारत के टीका सर्टिफिकेट पर सवाल खड़ा कर दिया। बेशक इस विवाद का हल जल्दी ही निकल आएगा, लेकिन यह घटना बता रही है कि कोविड महामारी से जूझने में विश्व समुदाय जो गलतियां कर रहा है, उनको जल्द से जल्द सुधारने की कितनी जरूरत है।
भारत के लिए भी यह आत्म-मंथन का समय है। कुछ हद तक दिक्कत आंकड़ों की अनुपलब्धता की भी है। कोविड टीकों से जुड़ी कई जानकारियां अब तक सार्वजनिक नहीं की गई हैं, जबकि कुछ आंकड़े नीति-निर्धारकों और जनता के लिए जानना निहायत जरूरी है। टीके से सुरक्षा का मसला इसमें खासा महत्वपूर्ण है। मसलन, सभी कोविड-19 टीकों के आपात इस्तेमाल की मंजूरी मिल गई, लेकिन टीकों को आम जान में लगने के बाद कुछ नकारात्मक असर भी दिखते हैं, जिनको 'एडवर्स इवेंट फॉलोइंग इम्यूनाइजेशन' (एईएफआई) कहते हैं। इस तरह के आंकड़ों से ही पता चला कि कोविड-19 के कुछ जटिल असर हो सकते हैं, जैसे- खून का थक्का बनना और मायोकार्डाइटिस। भारत में ये आंकड़े टीकेवार उपलब्ध नहीं हैं। यह बिल्कुल समझ से परे है कि सरकारों के पास यदि इस बाबत कोई आंकड़ा है, तो उसका किस कदर इस्तेमाल हो रहा है? और, अगर नहीं है, तो फिर ऐसे आंकड़े क्यों नहीं जुटाए जा रहे? हम स्वास्थ्य क्षेत्र में आंकड़े जुटाने में और इसके इस्तेमाल में धीमे नजर आते हैं। कह सकते हैं कि अगर आंकड़े जुटाने की यह प्रक्रिया सुदृढ़ होती, तो संभवत: विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के पास बहुत पहले कोवैक्सीन की मंजूरी का मसला पहुंच गया होता और अब तक निर्णय भी आ चुका होता। ऐसे में, एक तरफ, कोवैक्सीन को डब्ल्यूएचओ की मान्यता नहीं मिली है, तो दूसरी तरफ कोविशील्ड को कई देशों में प्रतिबंध का सामना करना पड़ रहा है। कोई संदेह नहीं कि भारत इससे बेहतर कर सकने की क्षमता रखता है। लेकिन यह स्थिति अगर ज्यादा दिनों तक बनी रही, तो फिर टीकों को लेकर जनता में जगा उत्साह कमजोर पड़ सकता है। हमें हर हाल में इससे बचना होगा।
जाहिर है, कोविड-19 महामारी में 'टीका राष्ट्रवाद', 'टीका भेदभाव' और 'टीका असमानता' जैसी बातें बड़ी चुनौतियां बनकर सामने आ रही हैं। कई बड़े देशों ने विश्व समुदाय को निराश किया है। अपने टीके को अच्छा बताना और दूसरे देश के टीके को कमतर साबित करना कोई अच्छी नीति नहीं है और किसी भी देश को इससे बचना चाहिए। देशों को टीकों को बाकी विश्व के साथ साझा करने की भी जरूरत है। भारत सरकार द्वारा की गई घोषणा कि अक्तूबर के मध्य से कुछ कोविड रोधी टीके निर्यात किए जाएंगे, सराहनीय कदम है। सवाल है कि अगर देश अभी एक-दूसरे का सहयोग नहीं करेंगे, तो भला कब करेंगे? समय कम बचा है, लेकिन विश्व समुदाय के पास अभी एक और मौका है। आने वाली पीढ़ी हमारे सभी कदमों का आकलन करेगी।


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