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मोबाईल ने यूं तो बहुत क्रांति की हैं और दुनिया को और लोगों के जीने के अंदाज़ को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है
शकील खान, फिल्म और कला समीक्षक।
मोबाईल ने यूं तो बहुत क्रांति की हैं और दुनिया को और लोगों के जीने के अंदाज़ को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है. नेट के अलावा मोबाईल में जिस चीज़ का सर्वाधिक इस्तेमाल किया जाता है, बिना शक कह सकते हैं, वो कैमरा है. वैसे तो स्मार्टफोन का हर फीचर उपयोगी है, लेकिन कैमरे के उपयोग में ना सिर्फ वेरायटी है, बल्कि इसका प्रयोग हर उम्र के लोग करते हैं, बच्चे-बूढ़े-जवान सभी.
पहले घर में एक कैमरा हुआ करता था, जो घरेलू फंक्शन, पिकनिक या शहर से बाहर घूमने जाने के समय साथ ले जाने वाली सबसे जरूरी चीज हुआ करती करती थी. अब तो हर उस हाथ में कैमरा रहता है, जिस हाथ में स्मार्टफोन है. अब न फोटोग्राफिक फिल्म (जिसे सामान्य भाषा में रोल कहते हैं) का झंझट है, ना फ्लश लाइट जैसे अटैचमेंट की जरूरत. इसे संभव बनाया है डिजिट़ल फोटोग्राफी ने. वर्ल्ड फोटोग्राफी डे पर इसी डिजिट़ल फोटोग्राफी की चर्चा.
अब रोल की जगह इमेज सेंसर ने ली है और एनॅालॉग का दौर खत्म होकर डिजिट़ल का ज़माना आ गया है. एनॉलॉग फोटोग्राफी में केमिकल इमेजिंग से छवि का निर्माण होता था, जबकि डिजिट़ल में इमेज सेंसर का उपयोग छवि गढ़ने के लिए लिया जाता है. अब तो बिना कैमरे के भी छवि गढ़ी जा सकती है. इमेज क्रिएशन का यह कमाल सीजीआई तकनीक ने किया है, सीजीआई यानि कम्प्युटर जनरेट इमेजिंग.
दो टाइप के फोटोग्राफर …
प्रोफेशनल फोटोग्राफर की बात करें, तो पहले दो तरह के फोटोग्राफर होते थे. एक वो जो फोटो क्लिक करने के बाद प्रोसेसिंग के लिए स्टूडियो को रोल थमा देते थे. जहां डार्क रूम में केमिकल प्रोसेसिंग के सहारे निगेटिव को पॉजि़टिव रूप दिया जाता था और इस तरह एक इमेज हमारे सामने आती थी. दूसरी तरफ डूबकर फोटोग्राफी करने वाले भी कुछ लोग थे जो डार्क रूम में साथ जाकर अपने सामने प्रोसेसिंग कराते थे.
ज्यादा बारीक काम करने वाले फोटोग्राफर प्रोसेसिंग भी खुद ही किया करते थे. ब्लैक एण्ड व्हाइट के दौर में एक-एक फोटोग्राफ पर अलग-अलग काम होता था, ठीक आर्टवर्क की तरह. बाद में जब रंगीन फोटो का ज़माना आया, तो प्रोसेसिंग का काम कलर लैब के जिम्मे चला गया. पुराने दौर का डार्क रूम जरूर अब नहीं रहा है, लेकिन ऐसा नहीं है कि ये कांसेप्ट पूरी तरह खत्म हो गया है.
डिजिटल दौर में इसकी जगह लाइट रूम ने ले ली है. लाईट रूम एक साफ्टवेयर है जो तकनीक को नए आयाम देता है. प्रोफेशनल फोटोग्राफर या ज्यादा गहराई से काम करने वाले इसका खूब उपयोग करते हैं. फोटोशॉप जैसे साफ्टवेयर भी डिजिट़ल दुनिया में धड़ल्ले से इस्तेमाल किए जाते हैं. साफ्टवेयर की ये दुनिया तो कमाल की दुनिया है जहां फोटोग्राफ का पूरा हुलिया ही बदल जाता है.
डिजिट़ल फोटोग्राफी ने खत्म किया आर्ट फार्म
फोटोग्राफी के मामले में एक जुमला बहुत इस्तेमाल किया जाता है, डिजिट़ल फोटोग्राफी ने फोटोग्राफी के आर्ट फार्म को खत्म कर दिया है, फोटोग्राफी अब आर्ट नहीं रहीं. इसमें कितनी सच्चाई है? जवाब देते हुए सिनेमेटोग्राफर सुरेश दीक्षित कहते हैं, बिलकुल खत्म नहीं हुआ है, बस इतना भर हुआ है कि फोटोग्राफी के कम जानकार लोग यानि ले मेन भी कुछ अच्छे फोटो खींचने लगे हैं और अच्छे फोटोग्राफर और ज्यादा बेहतर रिज़ल्ट देने में सक्षम हो गए हैं.
सिनेमेटोग्राफर सुरेश दीक्षित कहते हैं कि आर्ट एक दूसरे लेबल पर आ गई है. खूबसूरती हर किसी को पसंद है. फोटो को खूबसूरत बनाने के लिए डिजिटल मेनुपुलेशन का सहारा लेना भी गलत नहीं है. लेकिन इसकी कुछ सीमाएं हैं. खासकर जब हम मोनूमेंट्स या पुरानी चीजों का डिजिटल डॉक्यूमेंटेशन करते हैं, तो उसमें बहुत ज्यादा या ऐसा परिवर्तन नहीं किया जा सकता, जो उसकी एथेन्टीसिटी के साथ खिलवाड़ करे या उसे नष्ट कर दे.
वे कहते हैं, विज़ुअल्स की हिस्ट्री देखें तो हम पाएंगे कि राजा-महाराजाओं के जमाने में उनके पोट्रेट बनाए जाते थे, प्रकृति का चित्रण भी पेंटिंग्स में हुआ करता था. बाद में, जब फोटोग्राफी का दौर आया तो पोट्रेट की परंपरा खत्म हो गई. लेकिन इससे पेंटिंग्स तो खत्म नहीं हुई. आर्टिस्ट ने एब्सट्रेक्ट फार्म को अपना लिया और पेंटिंग की दुनिया को ना सिर्फ जीवंत रखा, बल्कि उसे नई ऊंचाईयों पर पहुंचा दिया.
वाइल्ड और लैंडस्केप फोटोग्राफी को मिली मदद
हर तरह की फोटोग्राफी करने वाले देहरादून के पेशेवर फोटोग्राफर भूमेश भारती कहते हैं डिजिटल क्रांति ने वाइल्ड और लैंडस्केप फोटोग्राफी में बहुत मदद की है. पहले फोटोग्राफी के लिए बहुत सारा साज सामान लेकर जाना पड़ता था. अब आसानी हो गई है. डिजिट़ल के कारण लो लाइट में भी बेहतर परिणाम आ जाते हैं. 30 फ्रेम प्रति सेकंड्स के कारण एक्शन फोटोग्राफी में अच्छा काम संभव है. कैमरा मूविंग ऑब्जेक्ट को अच्छे से कैप्चर कर लेता है.
भूमेश भारती का कहना है कि कभी-कभी मोबाईल कैमरे से बेहतर रिज़ल्ट देता है. पैनोरमा फोटोग्राफी को मोबाईल ने बहुत आसान बनाया है. वो कहते हैं पुराने दौर में कलर फोटोग्राफी के लिए कोडक फ्युज़ी, कोनिका और आग्फा के रोल बाज़ार में उपलब्ध थे. प्रत्येक का एक डॉमिनेट कलर होता था. मसलन कोडक का येलो, फ्युज़ी का ग्रीन, कोनिका का ब्ल्यु और आग्फा का रेड.
इस संबंध में मेरा अपना अनुभव भी है. मैंने छोटे परदे के लिए बहुत वीडियो फार्मेट में बहुत काम किया है, डायरेक्शन किया है. वैसे ये बात स्टिल फोटोग्राफी से अलग हटकर है, लेकिन जानकारी दिलचस्प हो सकती है इसलिए… वीडियो फार्मेट में शुरूआती दौर में लो बैण्ड पर काम किया जाता था. फिर हाई बैण्ड का ज़माना आया. दौनों ही फार्मेट में बड़े-बड़े कैसेट्स हुआ करते थे. जिन्हें सहेजकर रखना मुशिकल होता था.
समय के साथ बदलती गई फोटोग्राफी
कैमरा इक्वपमेंट्स भी बहुत हेवी और बल्की हुआ करते थे. उन दिनों कैमरामेन के साथ दो-तीन हेल्पर होना जरूरी होता था. उनकी मदद से ही इक्वपमेंट की आवाजाही संभव हो पाती थी. बाद में बीटा कैम का दौर आया और कैसेट छोटे हो गए. इसके साथ ही एनॉलाग का जमाना खत्म हुआ ओर डिजिटल फार्मेट आ गया. कैसेट छोटे हो गए और डीजी बीटा कैम, डीवी और डीवी कैम, (ब्ल्यु कलर के कैसेट), डीवीसी प्रो (यलो कैसेट) का दौर आया.
बता दें, बीटा कैम और डीवी कैम सोनी का डेडीकेटेड फार्मेट था, इनका यूज़ दूसरे कैमरे नहीं कर पाते थे. जबकि डीवी यूनिवर्सल था, जिसे कोई भी यूज कर सकता था. पैनासोनिक का डेडीकेटेड फार्मेट डीबीसी प्रो था. फिर ब्ल्यु रे आया ये एक तरह की डिस्क थी. फिर सीधे हार्ड डिस्क आ गई. दूरदर्शन के प्रादेशिक चैनल अभी भी ब्ल्यु रे मांगते हैं. नेशनल चैनल जरूर हार्ड डिस्क लेने लगा है. सबसे बाद में कैसेट की जगल डेटा कार्ड ने ले ली, जो अभी भी जारी है.
बात मीडिया की. मोबाईल क्रांति के चलते प्रिंट मीडिया में फोटोग्राफर का काम सीमित हो गया और उसे खास रिपोर्टिंग करने भेजा जाने लगा है. छोट-मोटे कवरेज की फोटोग्राफी तो खुद न्यूज़ रिपोर्टर के जिम्मे है. न्यूज़ चैनल के रिपोर्टर भी अब मोबाईल से काम चलाने लगे हैं.
इंसेक्ट्स की फोटोग्राफी को डिजिटल ने बनाया आसान
मेक्रो फोटोग्राफी करने वाले रायपुर (छत्तीसगढ़) निवासी पंकज वाजपेयी कहते हैं. इंसेक्ट्स की फोटोग्राफी को डिजिटल ने बहुत आसान बना दिया है. पंकज ने मक्खी की आंख जैसी सूक्ष्म फोटोग्राफी की है. कहते हैं, मैं कीट पतंगों को मारकर या बेहोश करके फोटोग्राफी करने में यकीन नहीं करता. उनके साथ तारतम्य बनाकर काम करने में ज्यादा मज़ा आता है. इंसेक्ट के साथ काम करने के लिए बहुत पेशेंस की जरूरत होती है.
उनके साथ समय बिताने पर वे समझ जाते हैं कि हम उन्हें हानि नहीं पहुंचाने वाले तब वे अपनी तरह से सहयोग करने लगते हैं और डर कर भागना बंद कर देते हैं.
अब कुछ मोटी-मोटी तकनीकी बातें कैमरों के बारे में
डिजिटल कैमरे फोटोग्राफ्स को डिजिट़ल मेमोरी में केप्चर करते हैं. इमेज सेंसर डिजिट़ल कैमरों की आधारभूत जरूरत है. जो एमओएस (मेटल ऑक्साइड सेमीकंडक्टर) तकनीक पर काम करती है. जिसका ओरीजन MOSFET (एमओएस फील्ड इफेक्ट ट्रांजिस्टर) से हुआ था. MOSFET का अविष्कार मोहम्मद एम. अतल्ला (Mohamed M. Atalla) और डॉन कहंग (Dawon Kahng) ने 1959 में बेल लैब्स (Bell Labs) में किया था. इससे डिजिट़ल सेमी कंडक्टर इमेज सेंसर का विकास हुआ. जिसमें CCD (चार्ज कपल्ड डिवाइस) और बाद वाला CMOS सेंसर शामिल है.
सेंसर अलग-अलग आकार के होते हैं. डिजिट़ल कैमरे कई प्रकार के होते हैं. जिनमें काम्पेक्ट, रग्ड, एक्शन, 360 डिग्री केमरे, ब्रिज, मिररलेस इंटरचेंजेबल लैंस केमरे, माड्यूलर, डिजिट़ल सिंगल लैंस रिफ्लेक्स कैमरे, डिजिट़ल स्टिल, फिक्स मिरर डीएसएलटी, डिजिट़ल रेंजफाउंडर, लाइन-स्केच कैमरा सिस्टम, स्टैण्ड अलोन, लाइट फील्ड और सुपरज़ूम कैमरे आदि शामिल हैं.
कैमरों और फोटोग्राफी की दुनिया में बहुत तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं. नई तकनीक और नए आविष्कारों के चलते कैमरे हर तरह का काम करने और हर जगह पहुंचने में सक्षम हो गए हैं, लगातार होते जा रहे हैं. हमारी जिंदगी में कैमरों का दखल बढ़ता जा रहा है. सेटेलाइट के माध्यम से दूसरे देशों पर नज़र रखी जा रही है. लोगों पर नज़र रखी जा रही है. इस बात में कितनी सच्चाई है, नहीं मालूम, लेकिन कहा तो यहां तक जाता है कि 'सक्षम लोग चाहें तो आपके बेडरूम में भी झांक सकते हैं.' संभल कर रहिए.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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