सम्पादकीय

बारूद के ढेर पर दुनिया

Rani Sahu
4 Sep 2021 5:42 PM GMT
बारूद के ढेर पर दुनिया
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गए शुक्रवार को कुछ घंटों के अंतराल पर दो बड़ी घटनाओं ने आकार लिया। पहली,

शशि शेखर। गए शुक्रवार को कुछ घंटों के अंतराल पर दो बड़ी घटनाओं ने आकार लिया। पहली, काबुल में तालिबान की ताजपोशी हुई। दूसरी, न्यूजीलैंड के शांत समझे जाने वाले शहर ऑकलैंड में एक नौजवान अचानक धार्मिक नारे लगाता हुआ आसपास के लोगों को चाकू से गोदने लगा। संयोगवश पुलिस वहां मौजूद थी और उसकी कार्रवाई में हमलावर मारा गया, वरना वह और अधिक सांघातिक साबित हो सकता था। जो लोग हताहतों की संख्या से घटनाओं का आकार नापते हैं, वे जान लें कि ऑकलैंड जैसी घटनाएं छोटी नहीं हैं। इसके पीछे की नीति और नीयत पैशाचिक है। इसमें आने वाले दिनों में और विस्तार देखने को मिल सकता है, क्योंकि हैवानी सोच वाले कुछ और लोग भी हैं। इन प्रतिक्रियावादियों के लिए ऐसी घटनाएं पाथेय का काम करती हैं।

बात अमेरिका से शुरू करता हूं। नए साल की उमंग से सराबोर पहला हफ्ता अभी ठीक से बीता न था कि 6 जनवरी को उन्मादियों की भीड़ ने अमेरिकी संसद पर कब्जा कर लिया। ये वे लोग थे, जो डोनाल्ड ट्रंप की हार को अपनी और अमेरिका की पराजय समझ रहे थे। संसार के सबसे सफल लोकतंत्र ने ऐसे दुर्दिन पहले नहीं देखे थे। दुर्भाग्य से अकेला अमेरिका हतभागी नहीं है। यूरोप के उदार समझे जाने वाले मुल्कों में समान गरम हवाएं बह रही हैं। वहां नियो-नाजीवाद तेजी से पैर पसार रहा है। जर्मनी के गृह मंत्री होस्र्ट जीहोफर ने पिछले दिनों बुंडेस्टाग (प्रतिनिधि सभा) को बताया कि पिछले बरस नस्लवादी हिंसा में 5.7 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। जब से जर्मन हुकूमत ने इस तरह की घटनाओं का हिसाब-किताब रखना शुरू किया है, तब से यह आंकड़ा सर्वाधिक है। सरकार समझ नहीं पा रही कि इस तरह के विचारों और घटनाओं को कैसे रोका जाए? वहां 15 बरस से हुकूमत कर रहीं समन्वयवादी एंजेला मर्केल का सत्ता में यह आखिरी महीना है। इसी माह के अंत में वहां आम चुनाव होने हैं और नरमपंथियों को आशंका है कि अति राष्ट्रवादी विचारधारा वाली 'अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी' (एएफडी) और उसके जैसे अन्य दल प्रभावी भूमिका अदा कर सकते हैं। बताने की जरूरत नहीं कि जर्मनी की शरणार्थी नीति अन्य देशों के मुकाबले काफी लचीली रही है। मर्केल ने पिछले पांच वर्षों में लगभग 15 लाख लोगों को अपने देश में पनाह दी। एएफडी के उभार की सबसे बड़ी वजह यही है।
पड़ोसी फ्रांस का भी यही हाल है। पिछले कुछ सालों में वहां 'जेनरेशन आइडेंटिटेयर' ने खासी पकड़ बनाई है। उसके खैरख्वाह सिर्फ सड़कों पर प्रदर्शन नहीं करते थे, बल्कि यू-ट्यूब पर श्वेत-श्याम वीडियो डालकर नौजवानों को आगाह करते थे- 'या तो संभल जाओ, या खत्म हो जाओ।' यह संगठन इतना संक्रामक है कि देखते-देखते इसकी 63 शाखाएं आबाद हो गईं। पेरिस और नीस की आतंकवादी घटनाओं तथा यूरोप में अरब स्प्रिंग के बाद आने वाले शरणार्थियों और कोरोना ने इसे जबरदस्त खाद-पानी मुहैया कराया। विस्फोटक विचारों की वजह से फ्रांस सरकार ने गए मार्च में इस पर प्रतिबंध लागू कर दिया, मगर इसके बावजूद वहां की हुकूमत आश्वस्त नहीं है कि यह आंदोलन दम तोड़ जाएगा।
यह आंदोलन कितना जानलेवा हो सकता है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में मस्जिदों पर हमला कर 51 लोगों को मौत के घाट उतार देने वाला व्यक्ति इस संगठन से संवाद कर रहा था। उसने अपने कृत्य की न केवल पहले घोषणा की, बल्कि उसका फेसबुक पर सीधा प्रसारण भी किया था, जिसे 200 लोगों ने देखा और वायरल कर दिया। सरकारें भले ही ऐसे फुटेज पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास करें, लेकिन प्रतिक्रियावादियों ने इसका दूसरा रास्ता निकाल लिया है। इस विचारधारा से जुडे़ वीडियो गेम तैयार किए जाने लगे हैं। इनकी लोकप्रियता बहुत तेजी से बढ़ती है और इन पर वैधानिक प्रतिबंध लगाना भी आसान नहीं होता। 'साइबर सिक्योरिटी फॉर डेमोक्रेसी' के मुताबिक, चरम दक्षिणपंथी विचार वाले सोशल मीडिया एकाउंट्स और वीडियो गेम्स को मिलने वाले लाइक-शेयर अन्य वैचारिक पृष्ठभूमि के सोशल मीडिया प्रॉपगैंडा पर भारी पड़ रहे हैं। पिछले साल चरम दक्षिणपंथी सामग्री को पसंद या साझा करने वालों की संख्या प्रति हजार फॉलोअर्स में 200 से 400 तक बढ़ी, जबकि धुर वामपंथी विचार वाले एकाउंट्स आधे फॉलोअर्स भी न जुटा सके। मध्यमार्ग अपनाने वाले एकाउंट्स का तो और बुरा हाल था। उनके फॉलोअर्स 50 के आसपास सिमटे रहे।
नतीजा साफ है, इंटरनेट के शुरुआती दिनों से 2015 तक दुनिया भर में कट्टर दक्षिणपंथी हमलों की तादाद 1,700 तक दर्ज की गई थी। पिछले पांच सालों से इसमें सालाना 60 अंकों तक की बढ़ोतरी हुई है। दुखद तो यह है कि इन गतिविधियों में शामिल होने वालों में किशोरों और युवाओं की संख्या बहुत ज्यादा है। ब्रिटेन के सरकारी साइबर उस्तादों ने पिछले दिनों 400 ऐसे किशोरों की शिनाख्त की, जिनकी उम्र 13 से 16 वर्ष के बीच में है। ये सभी खुद को नियो-नाजी कहते थे। वहां की सुरक्षा एजेंसियों के अनुसार, मार्च, 2020 तक 72 हजार किशोरों अथवा नौजवानों ने अलगाव या आतंक की सामग्री को इंटरनेट पर टटोला। यह बीमारी अब तक अछूते ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप में भी फैल रही है। कैनबरा प्रशासन ने पिछले दिनों एसकेडी नामक संगठन को आतंकवादी घोषित करते हुए इसके सदस्यों को गिरफ्तार करने का हुक्मनामा जारी किया। वहां की खुफिया एजेंसी के मुखिया माइक बर्गेस के मुताबिक, एसकेडी और अन्य धुर दक्षिणपंथी समूहों से जुड़े लोगों ने पिछले एक साल में इंटरनेट पर जो खोजबीन की, उसमें 40 फीसदी से अधिक आतंकवाद से संबंधित मसाला था।
तय है, हम ऐसे विरल दौर में प्रवेश कर गए हैं, जहां अब 'लोन वुल्फ'या 'लोन वॉरियर्स'कब, कहां प्रकट हो जाएं, कहा नहीं जा सकता। क्राइस्टचर्च, उटोया, ओस्लो में जिन लोगों ने हमले किए, वे ऐसे ही थे।
यही वजह है कि फेसबुक, ट्विटर या यू-ट्यूब पर ऐसी सामग्रियों को प्रतिबंधित करने का वैश्विक दबाव बना। उन्होंने कुछ कदम उठाए जरूर, मगर सोशल मीडिया पर ऐसे तमाम छोटे-बडे़ प्लेटफॉर्म मौजूद हैं, जिनके जरिये आग भड़काऊ सामग्री नई उम्र की नई फसल तक पहुंच रही है। इजरायल से लेकर ईरान तक, बुर्कीना फासो से ब्राजील तक, इसीलिए धुर दक्षिणपंथी विचारों की आंधी बह रही है। ऐसे में, तय है कि अफगानिस्तान से आने वाली खबरें, वीडियो और तस्वीरें आग में घी डालने का काम करेंगी। अफसोस, इस प्राणलेवा बला से निपटने का कोई तरीका फिलहाल नजर नहीं आ रहा, क्योंकि जिन राजनेताओं पर इससे जूझने की जिम्मेदारी है, वे इसमें सत्ता की संजीवनी सूंघते नजर आ रहे हैं।


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