सम्पादकीय

अपने-अपने दायरे की दुनिया

Subhi
6 Oct 2022 6:15 AM GMT
अपने-अपने दायरे की दुनिया
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हालांकि उनको दीमक से बचाने के लिए प्रयास भी किए जाते रहे हैं। उनकी साज-संभाल के लिए अलमारियों पर भी पैसे खर्च किए जाते हैं। घर से लेकर पड़ोसी तक पूछ लेते हैं

मुकेश पोपली: हालांकि उनको दीमक से बचाने के लिए प्रयास भी किए जाते रहे हैं। उनकी साज-संभाल के लिए अलमारियों पर भी पैसे खर्च किए जाते हैं। घर से लेकर पड़ोसी तक पूछ लेते हैं कि इतनी किताबें क्या साथ लेकर जाएंगे, तो ऐसे प्रश्नों पर भीतर ही भीतर आनंद आता है। ये अनजान लोग क्या जानें कि 'गोदान' क्या है! इन्होंने तो होरी और धनिया क्या, किसी कहानी के पात्र का नाम भी नहीं सुना।

सबकी दुनिया अलग-अलग होती है। जो लोग किताबों के करीब नहीं रहे होते हैं, उनका किताबों को लेकर गंभीर नहीं होना स्वाभाविक ही है। लेकिन किताबों के बीच रहने वाला, उसमें गुम होने वाला किताबों की अहमियत जानता है। लेकिन संभव है कि उसे भी दोस्तों की महफिलों के बीच रहने का मौका मिला हो। कुछ महफिलों में एक अदब रहता है।

मगर इन चीजों को हल्के में लेने वालों को आमतौर पर अंदाजा नहीं होता कि 'उसने कहा था' की नायिका नायक के प्रश्न 'तेरी कुड़माई हो गई' को सुनकर कैसे लजाते हुए 'धत्' कहकर भाग जाती है! 'गुनाहों का देवता' में धर्मवीर भारती जब प्रेम की परिभाषा सुधा और चंदर की बातों के माध्यम से सुनाने लगते हैं, तब न जाने कितने अरमान दिलों में जाग उठते हैं। कुछ लोग तो निश्छल प्रेम की कल्पना भी नहीं कर सकते। वर्तमान में प्रेम के हालात ये हैं कि आज पहली मुलाकात काफी पर, अगले कुछ दिन में महंगे होटलों में खाना-पीना और मिलना-जुलना। फिर कुछ ही वक्त बाद अविश्वास की भावना जाहिर करते हुए रिश्ता टूटने की खबर।

जो साहित्य से दूर रहे, उन्होंने कभी मंटो के दिल की आवाज को सुना ही नहीं और उनकी नजर में वे सिर्फ विवादास्पद संवाद लिखने वाले लेखक रहे। वे कृष्ण चंदर और खुशवंत सिंह को भी अपने समाज से परे धकेलने की बात करते हैं। अगर ऐसे लोगों ने उनके कथानक, पात्रों और उनकी भावनाओं को ठीक से समझा होता तो यह पीढ़ी केवल उपभोक्तावाद और भौतिकतावाद में नहीं जी रही होती। आजकल के युवा एक भीड़ का हिस्सा बन कर रह गए हैं। इससे उन लोगों को अपना लक्ष्य भेदने में आसानी हो जाती है जो इन्हें आसमान पर उड़ने के ख्वाब दिखा कर अपने वश में कर लेते हैं। चंद सिक्कों की दुनिया में डूब कर आज का युवा न तो देश के बारे में सोच रहा है और न ही देश की बनी-बनाई छवि के धूमिल होने की उसे चिंता है।

सही-गलत की पहचान किए बिना आज के अधिकतर युवा सिर्फ अपना स्वार्थ देख रहे हैं। इन्हें क्या मालूम कि भगत सिंह का बचपन कैसा था और वे जवान होते-होते खुशी-खुशी शहीद क्यों हो गए! उन्होंने किस धर्म का पालन किया, यह वे पता करना भी नहीं चाहते। आज के युवा फिक्रमंद नहीं हैं। उन्हें न तो पड़ोसियों से कोई मतलब है और न ही बुजुर्गों के रहन-सहन से। ये लोग तो साथ में पली-बढ़ी लड़कियों के जीवन में आ रही समस्याओं से भी अनजान हैं और आधी आबादी के शोषण से उपजी परिस्थितियों से भी अनजान ही बने रहना चाहते हैं।

आधुनिक युग में जीना अच्छी बात है और बदलते युग के साथ चलना भी जरूरी है, लेकिन सबकी स्थिति हमेशा एक जैसी कभी नहीं रहती। कुछ निर्णय सबकी सहमति से भी लिए जाने आवश्यक होते हैं। प्रत्येक निर्णय निजी निर्णय नहीं हो सकता। कभी-कभी जब इस प्रकार के निर्णय गलत दिशा की ओर ले जाते हैं, तब भी वे अपनी हार की कहानी किसी को नहीं बताते। दरअसल, उस समय भी उन्हें यही लगता है कि समाज उनकी हंसी उड़ाएगा और वे हिम्मत हार कर बहुत बार आत्महत्या जैसा कदम भी उठा लेते हैं।

हमारे साहित्य में पहले वाले पात्रों और आज के आधुनिक पात्रों में जमीन-आसमान का अंतर है। यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि साहित्य समाज का दर्पण है, फिर भी इस दर्पण को साफ-सुथरे तरीके से भी पेश किया जा सकता है। आजकल लेखन सिर्फ अपने लिए किया जाता है, दस-बीस पत्रिकाओं में छप जाना और वाहवाही लूटना या 'बेस्ट सेलर क्लब' यानी सबसे ज्यादा बिकने वालों में शामिल हो जाना ही लेखक का साहित्य धर्म कहलाने लगा है। जबकि साहित्य एक साधना है।

साहित्य से अनेक समस्याओं का पहले भी हल निकाला गया है। आजकल मशीनी युग में 'कापी-पेस्ट' का प्रचलन अधिक हो गया है, जिसने मानवीय संवेदनाओं, भावनाओं और चिंताओं को हाशिये पर रख दिया है। आवश्यकता है एक बार पुराने साहित्य के पुनर्पाठ की, नए सिरे से उनकी व्याख्या किए जाने की, पुरानी कथाओं को आज के संदर्भ में समझाए जाने की और सबसे अधिक उस पर अमल करने की।

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