सम्पादकीय

कला की दुनिया और नवाचार : भेदभाव का यह कदाचार प्राचीन भारतीय संस्कृति के अनुरूप व्यवहार नहीं कहा जा सकता

Neha Dani
22 May 2022 1:44 AM GMT
कला की दुनिया और नवाचार : भेदभाव का यह कदाचार प्राचीन भारतीय संस्कृति के अनुरूप व्यवहार नहीं कहा जा सकता
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अपने-अपने अभिचार में व्यस्त हैं। दृश्य बदलने कवि आए या मनुष्य, यह भी अगले नवाचार का विषय हो सकता है।

कदाचारी मन अभिचार और नवाचार के आंगन में भी प्रवेश करेगा, तो सबसे पहले उसकी बुद्धि कदाचार में सक्रिय होगी। जब से आयोजनों से लेकर पारिश्रमिक तक की व्यवस्थाएं ऑनलाइन हुई हैं, पैसे के कदाचार को जैसे नई पोशाक मिल गई है। सरकारी विश्वविद्यालयों के पिछले दो वर्षों में हुए वेबिनार और सरकारी साहित्य, कला, संगीत आदि अकादमियों के आयोजनों एवं वहां की पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री के साथ हुए ऐसे नवाचार के अगणित उदाहरण अब नित्य क्रिया हैं।

यह भारतीय समाज में गणित का नया पाठ्यक्रम है। ऐसी गणितीय प्रवृत्ति हमारी संस्कृति को नए ढंग से देखने को हमें प्रवृत्त करती है। हमारा ध्यान ऐसी कला प्रवृत्तियों की ओर जा पाता है, जहां पहले जाना था। जैसे, संगीत का भारतीय समाज यह जानता है कि मुगल काल के पहले से ध्रुवपद (ध्रुपद) भारत का शास्त्रीय या उच्चांग संगीत है। इसी कारण बांग्ला में आज भी ख्याल गायन को ध्रुपदी संगीत कहते हैं। भारतीय संगीत का आध्यात्मिक गौरव और इसकी शैलीगत शुद्धता ध्रुवपद में ही है।
मुगल काल में इस शास्त्रीय संगीत का रूप बदला और इसे ख्याल कहा गया। इस प्रकार गायन के एक ही शास्त्रीय यानी शास्त्र आधारित संगीत की दो शैलियां स्वतंत्र भारत में हमें मिलीं, ध्रुपद और ख्याल। जब भारत को मुगलों से मुक्ति मिली, और जब वह अंग्रेजों से भी स्वतंत्र हुआ, तो कलाकारों और संगीत संस्थाओं को ध्रुपद की फिर से वही गरिमा लौटानी थी, जो नौवीं शती से पहले तक थी! लेकिन हुआ यह कि बीसवीं शती के आरंभ से ही देश ख्याल संगीत से समृद्ध होता रहा और ध्रुपद पृष्ठभूमि में ही रहा।
स्वतंत्र भारत में इसे फिर से महत्व देने की सदिच्छा से ध्रुपद के दो बड़े आयोजन क्रमशः वृंदावन और काशी में शुरू किए गए, साथ में ग्वालियर घराने द्वारा ख्याल को सम्मान देने के लिए एक आयोजन की शुरुआत ग्वालियर में भी की गई। नतीजा इस रूप में शुभ रहा कि ध्रुपद के प्रायः सभी घरानों और बानियों के कलाकारों को रसिकों तक अपनी साधना परंपरा को ले जाने का अवसर मिलता रहा। लेकिन इस नवाचार से दो अभिचार घटे। वृंदावन का आयोजन हमेशा के लिए बंद हुआ।
कलाकार सिर्फ दो आयोजनों और विदेशी जिज्ञासुओं तक सीमित और अर्थबद्ध होते गए। और दूसरा यह कि, ख्याल के भारतीय कलाकारों एवं रसिकों द्वारा देश मे ख्याल आयोजनों की भरमार कर दी गई। पिछले सत्तर वर्षों में शास्त्रीय संगीत के अधिकांश श्रोता ख्याल अधिक, ध्रुपद कम सुनते रहे। इतना तक तो फिर भी ठीक था, लेकिन हुआ कुछ यों कि बीते चालीस वर्षों में दृश्य यह बना है कि श्रोताओ में ध्रुपद सुनने का अब कोई आग्रह ही नहीं रहा, जबकि वे ही श्रोता ख्याल के अधिकाधिक श्रोता होते गए हैं।
वे कुमार गंधर्व या अश्विनी भिडे को तो बार-बार सुनना चाहते हैं, लेकिन ध्रुपद कलाकार को कतई नहीं। शास्त्रीय संगीत के अधिसंख्य श्रोताओं में ध्रुपद के प्रति ऐसी उपेक्षा, उदासीनता और नापसंदगी कभी सोची भी नहीं जा सकती थी। ध्यान इस प्रवृत्ति की ओर जाता है कि यदि ख्याल और ध्रुपद, दोनों शास्त्रीय संगीत हैं, तो ध्रुपद गायक ख्याल क्यों नहीं गाते और ख्याल गायक ध्रुपद गाना क्यों नही पसंद करते!
ध्रुपद गायकों को लगता है कि वे ध्रुपद की शिखरशून्यता के स्तर से गिरकर अशुद्ध हो जाएंगे और ख्याल गायकों को लगता है कि ध्रुपद गाएंगे, तो कौन सुनेगा! भेदभाव का यह कदाचार प्राचीन भारतीय संस्कृति का समीचीन व्यवहार तो नहीं कहा जा सकता। नाटक का सरकारी विद्यालय हिंदी भाषी रंगकर्म में पिछले सत्तर वर्षों से यह दावा तो करता आ रहा कि उसने हिंदी रंगमंच को नया सौष्ठव और आधुनिक रूप दिया। इस दृष्टि से वह एकमात्र सत्ता है, जिसके बिना भारतीय रंगकर्मी की कोई साख या पहचान नहीं।
फिर पिछले चालीस सालों से यह स्थिति क्यों बनी हुई है कि हिंदी रंगमंच के पास दर्शक नहीं और रंगकर्म करके कलाकार अपनी आजीविका नहीं चला सकता। स्वयं इस विद्यालय के नाट्य प्रदर्शनों के टिकट कभी बिकते नहीं देखे गए। तो फिर जनता के पैसे और सरकार के अभिचार के बूते पल्लवित नाट्यविद्यालय ने देश के रंग जगत को क्या दिया, सिवाय नवाचार की भाषा मे रंगकर्मी को बेरोजगार बनाने के! सरकारी कला मंडपों में कला को यदि आर्थिक और सांस्कृतिक कदाचार के गणित ने विस्थापित न किया होता, तो सरकारी पैसे का कभी अपव्यय नहीं होता।
नवाचार को प्रोत्साहित करने के उत्साह में हम नवाचार के मुखौटे में छिपी कदाचार की कलाकारी को नहीं पहचान रहे। कई बार इस दुर्नीति को अपदस्थ करने की नीयत से नई संस्कृति नीति की रूपरेखा बनाई गई, लेकिन विफल होने के अभिचार में कौन-सा नाटक किन कलाकारों को लेकर खेला गया, उनका परिचय मंच पर कला के दिग्गज निर्देशक ही दे सकते हैं। साहित्य, फिल्म, रूपंकर कला और मंचकला के संगठन, भवन, पुरस्कार, अनुदान राशि, रंगमंडल, कला शिविर और शिक्षण संस्थान सभी अपने-अपने अभिचार में व्यस्त हैं। दृश्य बदलने कवि आए या मनुष्य, यह भी अगले नवाचार का विषय हो सकता है।

सोर्स: अमर उजाला

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