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- विकल्पहीन नहीं है...
प्रेमपाल शर्मा; मौजूदा दौर में कई कठिन चुनौतियां हैं। हालांकि चुनौतियां पहले भी आईं और उनका मुकाबला पूरी हिम्मत से किया गया, पर वर्तमान चुनौतियां कुछ अधिक जटिल हैं। इन चुनौतियों से पार पाने का पहला उपाय हो सकता है विज्ञान शिक्षा का। वर्तमान चुनौतियों को खत्म करने के लिए हमें एक तर्कशील मनुष्य बनाने का प्रयास करना होगा।
ऐसे में विज्ञान बुनियादी रूप से मनुष्य और मनुष्य के बीच जाति और धर्म का भेद मिटाने का सबसे बड़ा हथियार साबित होगा। जीवन को बेहतर बनाने की सुख-सुविधाएं विज्ञान ने दी हैं। हमारे चारों तरफ जो भी जिंदगी आज है, इसी की बदौलत है।
आज का समाज वैज्ञानिक सुविधाओं से लैस है, लेकिन उसके विवेक को जगाने की उतनी ही जरूरत है, जितनी गांधी जैसे विवेकशील नेता की। इन दोनों की मदद से मौजूदा संकट का हल मिल सकता है।
वक्त आ गया है कि दुनिया के इतिहास से हम सीख लें। किसी वक्त यूरोप का समाज, वहां की हर संस्था धर्म से परिचालित होती थी, लेकिन सोलहवीं सदी में विज्ञान के प्रवेश और पुनर्जागरण के बाद उसकी भूमिका सीमित होती चली गई। यूरोप की सारी संस्थाएं बेहतर ही नहीं हुईं, उन्होंने दुनिया पर राज भी किया, जबकि उस वक्त भारत और चीन जैसे देश अपनी समृद्धि, वैभव में उनसे आगे थे।
इतिहास में बार-बार दोहराए जाने वाले ये शब्द शर्मिंदा करते हैं कि हम राजाओं में बंटे हुए थे या जातिवाद में बंटे हुए थे, इसलिए पराजय मिली। सबसे बड़ा कारण सत्ता पर ऐसा धार्मिक शासन हावी था, जिसके चलते हम विज्ञान और तकनीक में यूरोप से लगातार पिछड़ते गए।
क्या इसे इस नजरिए से देखने की जरूरत नहीं है कि सभी विदेशी आक्रांता अपने उन्नत तोप, बारूद की वजह से विजय हासिल करते रहे? लेकिन अठारहवीं सदी में जब यूरोप के पास और भी उन्नत वैज्ञानिक उपलब्धियां हासिल हुर्इं, तो उन्होंने पूरे महाद्वीप को चुटकियों में जीत लिया और दुनिया पर विज्ञान शोध के जरिए अपना दबदबा आज तक कायम किए हुए हैं। चीन, सिंगापुर, कोरिया भी विज्ञान की इन्हीं उपलब्धियों के कारण मजबूत हुए, जबकि हम लगातार विज्ञान और शोध में पीछे हो रहे हैं।
जहां चीन, अमेरिका, यूरोप अपनी जीडीपी का तीन से चार फीसद तक विज्ञान और शोध पर खर्च करते हैं, हम केवल दशमलव सात करते हैं। जाहिर है, दुनिया की सबसे बड़ी और नौजवान आबादी के बावजूद न हम पर्याप्त पेटेंट कर पा रहे, न दूसरी उपलब्धियां हासिल कर पा रहे। खासकर उत्तर भारत के विश्वविद्यालयों की जो तस्वीर सामने आ रही है, वह बहुत निराशाजनक है।
फिर ये विश्वविद्यालय क्यों बने हुए हैं? क्यों जनता का पैसा बर्बाद हो रहा है? यह केवल अकादमिक डिग्री की बात नहीं है, इसका असर पूरी सामाजिक व्यवस्था पर पड़ता है। नौजवान भेड़-बकरियों में तब्दील किए जाएंगे, तो उन्हें जाति और धर्म के गिरोहों में ही शरण मिलेगी। नतीजा, समाज की और दुर्गति। हमारी प्रतिभाएं देश छोड़ कर भागने को विवश हैं। ऐसे अशांति के माहौल में तो पलायन और भी तेज होगा।
नेहरू ने यूरोप से सीख कर सेक्युलर लोकतंत्र का रास्ता तो अपनाया, लेकिन सही मायनों में वे उसे जमीन पर नहीं उतार पाए। अगर ऐसा होता तो आजादी के तुरंत बाद वोट बैंक की राजनीति जड़ें नहीं जमा पाती और न ही धर्म और जाति के नाम पर लगातार ऐसी गोलबंदी होती जाती।
वैज्ञानिक समाजवाद की घोषणा तो बहुत हुई, लेकिन पूरे दौर में उसका पालन करने से ज्यादा उसके विचलन नजर आते हैं और यही कारण है कि समाज के अंदर धार्मिक प्रतिबद्धताएं और भी अंधेपन के साथ मजबूत होती गर्इं।
केवल आरोप-प्रत्यारोप से रास्ता नहीं निकलेगा। विकल्प यही है कि हमारी अगली पीढ़ियों को ऐसी शिक्षा दी जाए, जिसमें तर्क हो, विज्ञान हो। विज्ञान की शिक्षा प्राइमरी स्कूल से ही लागू करने की जरूरत है। यही नफरत के वायरस, बैक्टीरिया को खत्म कर सकेगी।
पश्चिमी समाज ने इसी को समझा और समझाया है और इसी रास्ते से वे आगे बढ़े हैं। एशिया के देशों में जापान सबसे पहला देश था, जिसने विज्ञान की भूमिका को समझा और दूसरे महायुद्ध के सर्वनाश से रातों-रात उबर कर अपने को स्थापित किया। एशिया के दूसरे राष्ट्र सिंगापुर, कोरिया, विएतनाम, मलेशिया ऐसी शिक्षा से ही आगे आए हैं। पड़ोसी बांग्लादेश जैसे-जैसे कट्टरता से निजात पा रहा है और महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, शिक्षा में बेहतरी आई है, वह बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है।
कोठारी आयोग की सिफारिशों की रोशनी में समान शिक्षा की बातें हुई थी, लेकिन मदरसों और सरस्वती शिशु मंदिर जैसी धार्मिक संस्थाओं के दबाव के चलते सरकार आगे नहीं बढ़ी। क्या इसी सब का अंजाम आज हम नहीं भुगत रहे? उदयपुर की घटना हो या सीरिया, लेबनान से लेकर फ्रांस में की गई हत्या, सब ऐसे ही गुमराह किए गए लोगों के कारनामे हैं। इसे जड़ से खत्म तभी किया जा सकता है जब इनके पाठ्यक्रम पूरी तरह से विज्ञान सम्मत बनाए जाएं।
निजीकरण ने धर्म के धंधे को और आगे बढ़ाया है। कुछ समय पहले यह चर्चा थी कि केंद्रीय स्तर पर एक पाठ्यक्रम बोर्ड बनेगा, जो सीबीएसई या दूसरे बोर्डों की किताबों में ऐसी कट्टरता, धार्मिक अंधविश्वास को रोक सके। मगर हर अच्छे विचार की तरह यह फाइल भी जाने कहां गुम हो गई।
समाधान निकलेगा नई पीढ़ी को एक तर्कशील, संवेदनशील मनुष्य बनाने से। बिना किसी भेदभाव के धर्म, जाति हमारे शैक्षिक संस्थानों में जितना कम प्रवेश पाए, समाज उतना ही बेहतर बनेगा। पाकिस्तान, अफगानिस्तान से लेकर कई खाड़ी देशों के सबक हमारे सामने हैं।
भारत के मुसलमानों के लिए यह समझना और भी महत्त्वपूर्ण है कि वे क्यों हर समय सताई हुई कौम के रूप में पहचाने जाने के लिए अपने धर्मगुरुओं के बहकावे में आ जाते हैं और फिर किसी निराकार जन्नत के बहाने उन्हें ऐसी नृशंस हत्या के लिए तैयार किया जाता है।
मुसलमानों के बुद्धिजीवी समाज की भूमिका यहां सबसे ज्यादा संदिग्ध रही है। वहां उदारवादी चिंतक लगातार कम क्यों हो रहे हैं? जिस देश की अभिव्यक्ति की आजादी में आप सांस ले रहे हैं, वहां अपने धर्म की बुराइयों से भी आपको लड़ना होगा और दूसरों के विचारों का भी स्वागत करना सीखना होगा।
पारसी, बौद्ध और भी अल्पसंख्यक समुदाय इस देश में मौजूद हैं, लेकिन उन्होंने कभी 'धर्म खतरे में है' जैसी हाय-तौबा नहीं मचाई और न किसी के बहकावे में आए। इस देश की सत्ता और समाज में भी उनके योगदान को स्वीकार किया है और ऐसा ही स्वीकार भाव मुसलमानों के योगदान का है।
दुनिया हमारी ओर एक उम्मीद से इसलिए भी देखती है कि इस देश ने ही गांधी को पैदा किया। नेल्सन मंडेला से लेकर ओबामा तक गांधी के विचार और उनके जीवन से प्रभावित रहे हैं। दुनिया भर में जब भी झगड़े-फसाद और हिंसा से समाज त्रस्त हुआ है, उन सभी ने गांधी को एक विकल्प के रूप में सुन कर समाधान निकाला है। विज्ञान और गांधी के रास्ते हमें इस अंधेरे का विकल्प मिल सकता है।