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‘अंतरराष्ट्रीय खुशी दिवस’ को मनाते हुए यह दुनिया अब दसवें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है
'अंतरराष्ट्रीय खुशी दिवस' को मनाते हुए यह दुनिया अब दसवें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है. इसकी खुशी के पिछले दो साल कोरोना की भेंट चढ़ गये. और फिलहाल रूस और यूक्रेन के युद्ध से डरी-सहमी दुनिया के पास खुशी का अनुभव कर पाने के लिए कोई कारण नजर नहीं आ रहा है.
भारत, जिसने ईश्वर को आनंदस्वरूप माना, चौंकाने वाली बात यह है कि वह इस पैमाने पर लगातार लुढ़कता हुआ दिखाई दे रहा है. संयुक्त राष्ट्र संघ के लगभग पाँच कम दो सौराष्ट्रों में सन् 2013 में भारत जहाँ 111 वें स्थान पर था, वह पिछले साल कुल 25 प्रतिशत की गिरावट के साथ 139 वें पायदान पर जा लुढ़का. जबकि इस बीच प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि हुई. गरीबों को आवास दिये गये. भूखों को अनाज और अन्नदाताओं के खाते में नगद रुपया भेजा गया. जीवनप्रत्याशा बढ़ी, मातृ एवं बाल मृत्यु दरें कम हुई, महामारियोंको नियंत्रित किया गया. उड़ान योजना लोगों को आकाशीय यात्रा करा रही है. फिर भी हम हैं कि हम खुश ही नहीं हो रहे हैं.
लेकिन, यदि हम नहीं, तो क्या दुनिया के अन्य देश खुश हैं. और यदि अधिकांश लोग खुश हैं तो फिर इस एक तारीख को इसके नाम कर देने काऔचित्य भला क्या है? पूरी दुनिया के वैज्ञानिक इसी जद्दोजहद में लगे हुए हैं कि इस धरती के मनुष्य के जीवन को कैसे ज्यादा से ज्यादा आसान बनाया जाये. इस काम में उन्हें अविश्वसनीय स्तर तक की सफलता मिली भी है. स्मार्टफोन ने उनके हाथ में सूचनाओं का अलाद्दीन का चिराग दे दिया है. रोजगार के नये-नये रूप और मनोरंजन के नये-नये तथा बेहद सस्ते साधन बढ़ते जा रहे हैं.
फिर भी दुनिया है कि खुश होने का नाम ही नहीं ले रही है. बल्कि इसके विपरीत लोग धीरे-धीरे अवसाद की गिरफ्त में आते जा रहे हैं. मानसिक बीमारियों के डॉक्टरों की मांग में इजाफा हो रहा है. इससे चिंतित कई देशों और राज्यों की सरकारों ने तो अब इस समस्या के समाधान के लिए अपने यहाँ मंत्रालय खोल दिये हैं. लेकिन ज्यादातर ऐसे मंत्रालयों में काम करने वाले लोग खुद को पहले से भी अधिक दुखी पा रहे हैं.
यह सब, जो मैंने लिखा है, न तो व्यंग्य है और न ही केवल आलोचना करने की दृष्टि से छाँट-छाँट कर लाये गये नकारात्मक सत्यों का अतिरेक संकलन. दरअसल, यह सब परस्पर विरोधाभासों से भरी एक ऐसी हास्यास्पद कोशिश है, जिसमें कीचड़ को कीचड़ से धोने की एक अव्यावहारिक नीति की झलक दिखाई देती है.
हिन्दी में एक ही प्रजाति के, किन्तु पर्यायवाची नहीं, तीन शब्द हैं – सुखी, खुशी और आनंद. भारतीय दर्शन में इन तीनों पर बहुत गहराई और विस्तार के साथ विचार किया गया है. उसने इन तीनों को एक न मानकर भौतिक एवं आंतरिक जीवन के ऐसे भिन्न पड़ाव माना है, जिसके यात्रा ही समाप्ति 'आनंद' पर होती है. लेकिन साफ तौर पर यह भी स्थापना दी है कि आरम्भ के दो पड़ाव; सुख एवं खुशी का अभाव तीसरे की प्राप्ति का कतई बाधक नहीं बनता है. बल्कि इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति आरम्भ के इन दोनों से स्वयं को विरत कर ले तो बहुत जल्दी आनंद की स्थिति को प्राप्त कर लेता है. कई स्थानों पर सुख और खुशी को 'माया' का नाम देते हुए इनसे बचने की चेतावनी तक दी गई है. कबीरदास ने तो यहाँ तक कहा कि 'माया महाठगिनी हम जानी.'
'सुख' वह है, जो हमें भौतिक वस्तुओं के उपभोग से प्राप्त होता है. ये भौतिक वस्तुयें हमें संघर्ष से बचाती हैं. गर्मी में पंखे, कूलर और एसी हमें गर्मी की तपन के तड़पन से बचाकर हमें सुख देते हैं. जब हमारा सुख आंतरीक अनुभूति बन जाता है, यानी कि देह से होता हुआ जब मन में उतर जाता है, तब यही सुख खुशी कहलाने लगती है. इसकी एक अद्भुत विशेषता यह भी है कि खुशी की इस अनुभुति को बिना किसी बाहरी सहारे के भी हासिल किया जा सकता है. यह ख्यालों से भी संभव है, कल्पना से भी संभव है.
हम यहाँ आनंद की बात जानबूझकर नहीं कर रहे हैं, क्योंकि यह अपने आप में काफी विस्तृत, सघन और गूढ़ विषय है.
अब सवाल यह है कि क्या यह 'हैप्पी डे' लोगों के जीवन में हैप्पी ला सकेगा, विशेषकर वर्तमान आर्थिक परिदृश्य में. यहाँ 'आर्थिक परिदृश्य' से मेरा मतलब पूंजीवादी दर्शन से है. आज पूंजीवादी दर्शन का ग्लोबलाइजेशन हो चुका है; यहाँ तक कि स्वयं को साम्यवादी और समाजवादी घोषित करने वाले देशों में भी. इस दर्शन का मूल मंत्र है- प्रतिस्पर्धा पर आधारित अधिक से अधिक आर्थिक विकास करना. यह व्यक्तिगत स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक है. उपभोक्तावाद के बिना यह विकास संभव नहीं है.
अब इस बात पर विचार किये जाने की जरूरत है कि जहाँ प्रतिस्पर्धा होगी और वह भी आर्थिक प्रतिस्पर्धा, क्या वहाँ 'खुशी' का अस्तित्व हो सकता है? यह प्रतिस्पर्धा स्वाभाविक तौर पर ईर्ष्या और असंतोष की मांग करता है. जबकि खुशी के लिए चाहिए ठीक इसके विपरीत-प्रेम और संतोष.
विचार करने योग्य दूसरी बात यह है कि इस तरह का आर्थिक दर्शन जिस सामाजिक संरचना कानिर्माण करेगा, जो हमारे सामने अभी उपस्थित भी है, क्या उस सामाजिक व्यवस्था में रहकर व्यक्ति इस खुशी को हासिल कर सकता है?
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
डॉ॰ विजय अग्रवाल, पूर्व सिविल सेवा अधिकारी एवं प्रख्यात लेखक
Gulabi Jagat
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