सम्पादकीय

तीन टांगों पर विश्वविजय

Subhi
27 April 2022 3:30 AM GMT
तीन टांगों पर विश्वविजय
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उसकी सादगी उसकी महानता का सबूत है। धाक जमाने के लिए अपनी गौरवशाली विरासत का गुणगान करना उसकी फितरत नहीं।

अरुणेंद्र नाथ वर्मा: उसकी सादगी उसकी महानता का सबूत है। धाक जमाने के लिए अपनी गौरवशाली विरासत का गुणगान करना उसकी फितरत नहीं। चाहता तो हर जगह यह खबर पहुंचा देता कि आज से हजार साल पहले ही अबुल फजल बेय्हकी की अपने समय को खंगालती किताब 'तारीख-ए-बेय्हकी' में उसका जिक्र आया था। सुलतान मोहम्मद बिन तुगलक के दरबार में उसे इज्जत मिलती थी, यह बताने वाले सैलानी इतिहासकार इब्न बतूता ने इसे चमड़े के सिक्के चलाने वाले उस सुलतान की एक और सनक नहीं कहा था।

सन 1300 के लगभग अमीर खुसरो ने भी उसे शाही संगत में देखा था। और जब अमीर खुसरो ने जिक्र किया, तो अबुल फजल अपनी 'आइने अकबरी' में यह बताना कैसे भूल सकते थे कि वह जिल्ले-इलाही अकबर का भी मुंहलगा था। यह और बात है कि जब 'बीस तीस हजारी' सामंत बादशाह के सामने औपचारिक वेश-भूषा में आना जरूरी समझते थे, तो वह भी आलू-मटर-प्याज वाली रोज की पोशाक छोड़ कर शाही दरबार में सामिष पोशाक में आता था।

लेकिन जैसा देश वैसा भेष बनाना उसे विशेष पसंद नहीं। फरक फरक देशों में गुणग्राहकों की पसंद के अनुसार उसके 'अंदर की बात' थोड़ी बहुत बदलती रही। लेकिन सदियों से अपनी पहचान बना चुके विशिष्ट ऊपरी आवरण के साथ कोई समझौता उसने नहीं किया। अपने त्रिकोणीय चेहरे और एक तरफ निकली हुई छोटी-सी चिबुक पर वह इतना रीझा हुआ है, जितना यूनान का 'नार्सिस' अपनी छवि पर था। यह ऊपरी परत ही तो उसके आने की खुशबू फिजाओं में फैला देती है। अगर आसानी से अपनी छवि बदलने की आदत होती तो दुनिया के जितने देशों से गुजरता हुआ वह हिंदुस्तान पहुंचा, सबकी थोड़ी-थोड़ी छाप पड़ने से वह यहां आते-आते पूरी तरह बदल जाता।

उसका जन्म भले अरब, मिस्र, तुर्की, इरान या किसी मध्य एशियाई देश में हुआ हो (ये सब उसकी मातृभूमि होने का दावा करते हैं), लेकिन हिमालय की बर्फीली चोटियों, ठंडे मरुस्थलों और सिंधु नदी को पार करके जब वह इस उपमहाद्वीप में पहुंचा तो बर्मा, श्रीलंका, नेपाल, भूटान तक सबका चहेता बन गया। आगे बढ़ा तो इंडोनेशिया, मेलेशिया भी उसे चाहने लगे।

अफ्रीका महाद्वीप के तमाम देशों में भी उसकी लोकप्रियता एशियाई देशों से कम नहीं। जिबूती, सोमालिया से लेकर दक्षिण अफ्रिका, घाना, नाइजीरिया तक वह आपको दिखेगा। मध्य एशिया और खाड़ी के देशों में भारतीय प्रवासी जिस प्रेम के साथ इसे अपना बताते हैं, उतनी ही मोहब्बत से अमेरिका, यूरोप में बसे भारतीय प्रवासी भी। अरब-अफ्रीकी भी इस पर अपना हक जताते हैं, क्योंकि भारतीय उपमहाद्वीप के समोसा, फारसी के अन्बोसाज और अरबी के संबुसाक आदि सारे नामों की ध्वनि एक जैसी है।

सहज ढंग से खरी बात कहने का भारतीय अंदाज इसे तिकोना कहकर किसी शक की गुंजाइश नहीं छोड़ता। लेकिन इसे सिंघाड़ा नाम देने वाले भूल जाते हैं कि पानी के तिकोने फल सिंघाड़ा का दर्शन अब, कम से कम शहरों में, दुर्लभ हो गया है। समोसा इतना लोकप्रिय है कि शहरी बच्चों को सिंघाड़ा फल से परिचय कराने के लिए उसे पानी में पैदा होने वाला प्राकृतिक समोसा बताना ज्यादा सही होगा।

कभी बादशाहों और सामंतों का प्रिय रहा समोसा अब हर वर्ग के बहुत निकट आ चुका है। उत्तर भारत में घर से दूर शहरों में कार्यरत लोगों के लिए गली-गली में उपलब्ध समोसे या समोसे-छोले का नाश्ता घर के पराठे-दही या पूरी-आलू की जगह ले चुका है। तमिलनाडु में इडली और महाराष्ट्र में पोहे को बेदखल करता हुआ समोसा भी खूब दिखने लगा है। धनकुबेरों के समोसे को सर्वहारा के समोसे से अलग रखने के लिए उसमें आलू, प्याज, मटर की जगह पिस्ता, काजू और आयातीत चीज भरना हायास्पद लगता है, तो किसी प्रयोगवादी 'शेफ' द्वारा उसे गुझिया के आकार में ढालना अति-आभिजात्यता की सनक लगती है।

समोसे की चाहत मौसम की सीमाओं से परे है। बरखा बहार के साथ जुड़ी चाय पकौड़े की चाहत मौसम की गुलाम है, जबकि सब ऋतुओं को समभाव से देखना समोसे की विशिष्ट पहचान है। वर्ग संघर्ष से अपरिचित समोसे को लगुए-भगुए और मुसाहिबों का साथ पसंद नहीं। सीधी-सादी इमली या धनिये की चटनी के संग वह खुश दिखता है। तभी तो आर्थिक मजबूती के हवाई घोड़े पर सवार होकर मैकडोनाल्ड, पिज्जा हट या केएफसी जहां कहीं पहुंचते हैं, ठोस जमीन पर तीन टांगों से भाग कर पहले पहुंच चुके समोसे को मुंह तिकोना करके चिढ़ाते हुए पाते हैं। ऐसी सादगी और इतना हौसला! वे चुपचाप देखते रह जाते हैं।


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