सम्पादकीय

विश्व और विश्वास : क्या निरर्थक हो गई है परमाणु अप्रसार संधि, इस अशुभ निष्कर्ष में बहुत दम

Neha Dani
8 March 2022 1:45 AM GMT
विश्व और विश्वास : क्या निरर्थक हो गई है परमाणु अप्रसार संधि, इस अशुभ निष्कर्ष में बहुत दम
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हम अपनी संस्कृति और शिक्षाओं से संचार के अपने साधनों की खोज कर सकते हैं।

इस अशुभ निष्कर्ष में बहुत दम है कि परमाणु हमले से बचाव या कवच का अस्तित्व खत्म हो चुका है। रूस ने यूक्रेन पर हमले के दौरान परमाणु बलों के अभ्यास का आदेश दिया, जिसने परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) द्वारा लागू वैश्विक व्यवस्था में हमारे विश्वास को तोड़ दिया। गौरतलब है कि एनपीटी पर रूस समेत कई परमाणु शक्ति संपन्न देशों ने हस्ताक्षर किए हैं।

यह संधि परमाणु हथियार वाले उन देशों को परिभाषित करती है, जिन्होंने एक जनवरी, 1967 से पहले परमाणु विस्फोटक उपकरणों का निर्माण और परीक्षण किया था और ये देश हैं-अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन। लेकिन इस संधि में निहित महान मानवीय मूल्यों को देखते हुए बाद में 191 देशों ने भी इस दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए।
यह 1970 में लागू हुई और मई, 1995 में इस संधि को अनिश्चित काल के लिए बढ़ा दिया गया। किसी भी अन्य हथियार सीमा और निरस्त्रीकरण समझौते की तुलना में ज्यादा देश एनपीटी के पक्षकार हैं, जो इस संधि की महत्ता को दर्शाता है। वास्तव में उनका विश्वास था कि परमाणु हथियारों के प्रसार से परमाणु युद्ध का खतरा गंभीर रूप से बढ़ जाएगा।
उन्होंने परमाणु हथियारों की होड़ समाप्त करने और परमाणु निरस्त्रीकरण की दिशा में प्रभावी कदम उठाने के लिए जल्द से जल्द संभव तारीख हासिल करने के अपने इरादे की घोषणा की थी। अंतरराष्ट्रीय तनाव कम करने और विभिन्न देशों के बीच भरोसे को मजबूत करने, परमाणु हथियारों के निर्माण पर विराम लगाने, सभी मौजूदा भंडारों को विघटित करने, राष्ट्रीय शस्त्रागारों से परमाणु हथियारों के उन्मूलन के लिए इस संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे।
वे सख्त और प्रभावी अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण के तहत सामान्य और पूर्ण निरस्त्रीकरण चाहते थे। यह संधि हस्ताक्षर करने वाले देशों को याद दिलाती है कि संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के मुताबिक, इन देशों को अपने अंतरराष्ट्रीय संबंधों में किसी भी देश की क्षेत्रीय अखंडता या राजनीतिक स्वतंत्रता के खिलाफ धमकी या बल प्रयोग से बचना चाहिए, या संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों से मेल नहीं खाने वाले अन्य किसी भी तरीके से बचना चाहिए और अंतरराष्ट्रीय शांति व सुरक्षा की स्थापना और रख-रखाव को हथियारों के कम से कम इस्तेमाल के जरिये दुनिया के मानव एवं आर्थिक संसाधनों को बढ़ावा देना चाहिए।
रूस ने इस संधि के आचरण और व्यवहार के सिद्धांतों का उल्लंघन किया, जब उसके सामरिक परमाणु बलों ने शनिवार, 19 फरवरी को राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की देखरेख में अभ्यास किया। इस अवसर पर रूस में एक अज्ञात स्थान पर परमाणु बलों द्वारा अभ्यास के दौरान एक रूसी यार्स अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल (आईसीबीएम) लॉन्च की गई थी।
अभ्यास के लिए एक आईसीबीएम का चुनाव स्पष्ट रूप से अमेरिका के लिए संदेश है। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि हमने वैश्विक परमाणु व्यवस्था में जनता का विश्वास जगाने वाले 'परमाणु निरोध' की व्यावहारिक बैसाखी खो दी है। और ऐसा कहते हुए हमें नहीं भूलना चाहिए कि रूस ने इस सार्वजनिक डर का इस्तेमाल केवल यूक्रेन पर अपने नियोजित हमले में किसी भी हस्तक्षेप को रोकने के लिए किया था।
इस तरह के नापाक तर्क को मानवीय कानूनों में विश्वास करने वाला कोई भी देश या समूह स्वीकार नहीं कर सकता। सबसे आश्चर्यजनक बात है कि मास्को उन तीन स्थानों में से एक है, जहां इस दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए गए थे और यह उन जगहों में से एक है, जहां इसे सुरक्षित रखा गया है। अब जबकि मानदंडों का उल्लंघन किया गया है, एक खतरनाक रास्ता खुल गया है।
रूस ने निश्चित रूप से एक बुरे राष्ट्र की तरह व्यवहार किया है और यह अन्य बुरे देशों को मानदंडों का उल्लंघन करने से नहीं रोकेगा। इसके विपरीत, पश्चिमी शक्तियों को उन असंदिग्ध देशों पर परमाणु हथियार रखने का आरोप लगाकर अपनी सेनाओं को उतारने से कोई रोक नहीं रहा है।
हमारे पास इराक का उदाहरण है, जब इराक पर सामूहिक विनाश के हथियार रखने का काल्पनिक आरोप लगाकर अमेरिका ने उस पर हमला किया और उस देश को पूरी तरह से तबाह कर दिया। इसके अलावा हमारे सामने ईरान और उत्तर कोरिया जैसी बड़ी आशंकाएं हैं, जो रूसी उदाहरण का सहारा लेते हुए भयावह संदेश दे रही हैं।
उत्तर कोरिया ने पहले भी ऐसा किया है, लेकिन उसकी हरकतों का गंभीरता से संज्ञान नहीं लिया गया। जाहिर है, एक नई विश्व व्यवस्था गढ़ने की जरूरत है। अगर हम बड़ी शक्तियों को अपने निहित स्वार्थों के लिए पूर्ण सैन्य शक्ति के उपयोग की अनुमति देते हैं, तो हम एक अराजक व्यवस्था को जन्म देंगे।
हमें यह याद रखना होगा कि वैश्विक व्यवस्था अनिवार्य रूप से चरित्र में अराजक होगी और इसे शायद वश में करने की आवश्यकता है। प्रसिद्ध ब्रिटिश विद्वान थॉमस हॉब्स का मानना है कि मनुष्य मूलतः एक स्वार्थी प्राणी है। राष्ट्र-राज्य अंततः एक मानवीय समूह हैं, चाहे उसकी राजनीतिक संरचना कुछ भी क्यों न हो।
संयुक्त राष्ट्र जैसे वैश्विक निकाय लागू मानकों के भीतर अपने आचरण को लागू करने में केवल कुछ ही बार सफल हुए हैं, वे बड़ी शक्तियों को वश में करने में कभी भी सफल नहीं हुए हैं। अपने ज्ञान में हम राष्ट्र-राज्यों द्वारा विभिन्न देशों के व्यवहारों को मानकीकृत मानते हैं। इसलिए पॉल कैनेडी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक द राइज ऐंड फॉल ऑफ ग्रेट पावर्स में तर्क दिया था कि अंतरराष्ट्रीय संतुलन में आर्थिक और तकनीकी प्रवृत्तियों के बीच एक संबंध होता है।
और इस ढांचे के भीतर, आर्थिक क्षमता, उत्पादकता और राजस्व उत्पन्न करने की क्षमता को सैन्य शक्ति के प्रमुख अवयवों के रूप में देखा गया। उन्होंने चुनिंदा पश्चिमी विस्तारवादी अनुभवों के आधार पर इस मौलिक धारणा पर भरोसा किया था और भविष्यवाणी की थी कि बड़े पैमाने पर सत्ता संघर्ष को बनाए रखने की क्षमता वास्तव में शक्ति की स्थिति की मुख्य परिभाषा होगी।
हमारी समस्याएं इस विचार ढांचे में हैं और इसी तरह वैश्विक क्षेत्र में हमारा व्यवहार भी है। भारत को ऐसी अराजक विचारधाराओं के साथ रहने के लिए अपने कवच से बाहर निकलने की जरूरत है और यूक्रेन पर हमले और परमाणु दिखावा, दोनों के संबंध में रूसी कार्रवाइयों पर चुप न रहकर एक रास्ता दिखाने की जरूरत है। हम अपनी संस्कृति और शिक्षाओं से संचार के अपने साधनों की खोज कर सकते हैं।

सोर्स: अमर उजाला

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