सम्पादकीय

मिसरी जैसे शब्द

Subhi
15 Feb 2023 5:19 AM GMT
मिसरी जैसे शब्द
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सुरेश कुमार मिश्रा: यह सर्वविदित है कि अक्षरों के बिना शब्द और शब्द के बिना भाषा नहीं हो सकती। आश्चर्य तो तब होता है जब हमारी प्रसन्नता, खिन्नता, दुख, सुख, क्रोध, खीझ, शांति, कड़वाहट, मधुरता और अन्य भावों का कारण अक्सर केवल शब्द ही होते हैं। वही शब्द जो वर्णमाला से अक्षर चुन-चुन कर मात्रा लगा-लगा कर गढ़े-रचे और बुने जाते हैं।

ऐसे भी शब्द जिनका अपना कोई अर्थ नहीं होता, जिनमें सदियों से अर्थ आरोपित किए जाते रहे हैं और अब वे शब्द एक निश्चित अर्थ के वाहक हो गए हैं, उनका भी अपना महत्त्व है। शब्द का स्वाद नहीं होता, लेकिन सुनने मात्र से उसका खट्टा, मीठा, तीखा, कसैला स्वाद हम पर पड़ना शुरू हो जाता है। चेहरे की रंगत बदलने लगती है, लाज का भाव आ जाता है, क्रोध से हाथ उठ सकता है, प्रसन्न या दुखी हो जाते हैं, हंसने-मुस्कराने लगते हैं, रोते-कलपते हैं। कभी-कभी दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं। केवल शब्द ही अपना इतना कमाल दिखा जाते हैं कि अन्य अस्त्र-शस्त्रों की जरूरत ही नहीं पड़ती।

छुटपन की यादों में आज भी कई शब्द हमारे मस्तिष्क पटल पर विचरते रहते हैं। वे बातें रह-रहकर याद आती है। यों अब किसी बहुत छोटे बच्चे को शब्दों को बोलने की कोशिश करते और उनके सामने उनके मां-पिता या अन्य रिश्तेदार को उन्हें बोलने के लिए प्रेरित करते देख कर किसी को भी अपने बचपन की वह अवस्था याद आ सकती है, जब उसने खुद को भाषा में अभिव्यक्त करना शुरू किया होगा।

याद होगी वह बचपन की बात, जहां अध्यापिका के डांट देने से कैसे मायूस हो जाते थे और प्यार के दो बोल या थोड़ी-सी प्रशंसा कर देने से सारी खुशियां बिजली की गति से तुरंत लौट आती थीं। यही हाल गृहकार्य और कक्षा कार्य पर अच्छा, बहुत अच्छा, सुंदर, बढ़िया लिख देने पर होता था। कितनी-कितनी बार उन शब्दों पर अंगुलियां फिराते थे, कैसे निहारते थे, सबको कापी दिखाते फूले नहीं समाते थे। वे शब्द न जाने किताब में कितनी-कितनी जगह लिखे होते थे, पर हमारी कापी में अध्यापिका के हाथों लिखे होने के कारण हमारे लिए विशेष बन जाते। यह सब शब्द का कमाल नहीं तो और क्या है!

शब्द भी अवस्था बदलते हैं। बचपन में प्यारे लगने वाले शब्द युवावस्था में आते-आते उबाने वाले लगते हैं। प्रौढ़ावस्था में कुछ तो वृद्धावस्था में कुछ। यह भी शब्दों का कमाल है कि युवा होते प्यार का अर्थ बदल जाता है। कैसे संभाल कर, छिपा कर, संजो कर रखे जाते थे ये शब्द। इन्हें सुनते ही मन कैसे मचल पड़ता था कि दुनिया में हम अकेले कहां हैं, कोई है जो हम पर अपनी जान न्योछावर करता है।

ये भी शब्द ही थे, जिन्होंने किसी का दिल तोड़ा था, कोई जीवन से निराश हो गया था। वे भी शब्द ही थे, जिन्होंने तसल्ली और दिलासे का काम किया था, आगे बढ़ने का हौसला दिया था, नई जिंदगी दी थी। ये शब्द बड़े मोहक होते हैं। इनका मोह ही हमें मार डालता है, अपेक्षा जगाता है, दुखी करता है, सुखी करता है, रुलाता, हंसाता है। शब्द कभी हमें सातवें आसमान पर पहुंचा देते हैं तो कभी पल में फर्श पर पटक देते हैं। एक बार के लिए चोट की पीड़ा समाप्त हो सकती है, लेकिन शब्दों की पीड़ा कई बार मरते दम तक बनी रहती है।

शब्द ही विष और शब्द ही अमृत बन जाते हैं। 'शब्द संभाल के बोलिए, शब्द के हाथ न पांव, एक शब्द औषध बने, एक शब्द करे घाव'। वे शब्द ही होते हैं जो तीखे कटाक्ष बन दिल में गहरे चुभ जाते हैं, कलेजे की पीर को बढ़ा देते हैं, आंखों से टपटप आंसू बहा देते हैं, गाली बन जाते हैं, दिलों में दरार पैदा कर देते हैं। चोट पहुंचाने वाले शब्दों के बदले जब तक उतने ही तीखे कड़वे मारक शब्द नहीं कह लेते, बदला नहीं उतार लेते, लोग कहां शांत बैठ पाते हैं।

कैसे अवसर खोजते रहते हैं कि समय मिले और इतने विष बुझे तीर चुभो दें कि अगला तड़प-तड़प के परेशान हो जाए। जितनी उसकी तड़प बढ़ती है, उतना ही आनंद शब्दबाण चलाने वाले को आता है। जब तक हिसाब बराबर नहीं हो जाता, चैन से नहीं बैठते और सोचते हैं कि ऐसे कैसे छोड़ा जा सकता है… हम किसी से उन्नीस थोड़े ही हैं जो चुप लगा जाएं!

शब्दों की दुनिया मोहक है, मादक है। यह दिलों को तोड़ती है, जोड़ती है, हंसाती-रुलाती है, जीवन बनाती-बिगाड़ती है। फिर शब्दों के साथ खिलवाड़ किया क्यों किया जाए? अच्छा बोलने के लिए कोई जूडो-कराटे नहीं सीखना पड़ता, बस शब्द चुनने होते हैं। उन्हें कहने का सलीका सीखना होता है। शब्द व्याकरण के कंकाल में उलझना नहीं चाहता है। वह सदा के लिए स्वतंत्र और लोगों पर राज करना चाहता है।




क्रेडिट : jansatta.com

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