- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- शब्द भी अपनी तरंगें...
x
आंखें बाहर की ओर ही देखती हैं। धीरे-धीरे हम भूल जाते हैं कि ये भीतर भी देख सकती हैं
पं. विजयशंकर मेहता का कॉलम:
आंखें बाहर की ओर ही देखती हैं। धीरे-धीरे हम भूल जाते हैं कि ये भीतर भी देख सकती हैं। जब हम आंखें बंद करते हैं तो भी भीतर दृश्य बाहर के ही होते हैं। कबीरदासजी ने कहा था- उल्टी ज्योति कर लो। इसका मतलब ही यह है कि थोड़ा भीतर झांको। जब हम नेत्रों के साथ ऐसा प्रयोग करते हैं तो शांत होने लगते हैं। शब्दों के साथ भी ऐसा किया जा सकता है। बोलना तो हमें है और सुनना भी है। ये दोनों क्रियाएं एक साथ चलती हैं।
तो इनके साथ एक प्रयोग करें- घोलकर और छानकर। मतलब जब शब्द बाहर फेंक रहे हों तो उनमें मिठास घोलकर बोला जाए। और, जब शब्दों को सुन रहे हों तो जो अप्रिय हो, उसे छानकर भीतर लिया जाए। किसी के बोले हुए शब्दों को सुनना हो तो उस पर हमारा नियंत्रण हो नहीं सकता। इसलिए क्या सुना जाए, इस पर नियंत्रण किया जाए। यहां छानने की क्रिया काम आएगी।
बोलने पर हमारा नियंत्रण हो सकता है, तो उसमें घोलने की क्रिया करें यानी मिठास घोलें। जितना मीठा बोलेंगे, उसका सबसे बड़ा असर यह होगा कि आपके आसपास का वातावरण पॉजिटिव होगा, क्योंकि शब्द भी अपनी तरंगें लेकर आते हैं और वातावरण को प्रभावित करते हैं। दूसरों को सुनाने के लिए ही मीठा नहीं बोलना है। खुद के आसपास के वातावरण को खुशनुमा करने के लिए भी मिठास घोलकर बोलें और छानकर सुनें।
Next Story