सम्पादकीय

डरावने शब्दों का आडंबर

Rani Sahu
27 July 2023 2:28 PM GMT
डरावने शब्दों का आडंबर
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By: divyahimachal
हिमाचल में देव संस्कृति का पक्ष हिदायतें देता रहा या अब प्रलय के समुद्र में जब तबाही का शोर हुआ, तो पूछा जाएगा कि ‘देव तुम कब आओगे’। तबाही से बर्बाद हुए पहाड़ के जिस हिस्से में देव संस्कृति का आदेश मौखिक होकर भी रेखांकित होता है, वहीं लोगों की इस खुशहाली पर यह दाग क्यों चस्पां है। हम जिसे मानते, जिसकी मन्नतों में खुद को संवारते, वह तब कहां था जब पहाड़ दरक गया या बादलों ने आसमान को हमारे आंगन में तोड़ दिया। पहाड़ जहां टूटता है, वहां देव संस्कृति के प्रतीक ढूंढें या जब उफान पर नदियां होती हैं, तो वहां देवताओं के चिन्ह खोजें। जो भी हो कहर होने के बाद देवता बोल रहा है, तो अस्तित्व के प्रश्र क्यों डरावने शब्दों में अभिव्यक्त हो रहे हैं। क्या आदमी का गुनाह किसी प्राकृतिक आपदा में परिलक्षित होता है या देव संस्कृति हमें अवैज्ञानिक छोर पर कूट डालेगी। कुछ देवताओं की वाणी में गूर डराने लगे हैं और यह मानवता के विरुद्ध भयावह उपाय होगा। आश्चर्य यह कि देवता तब नहीं बोलता जब अवैध खनन माफिया खड्डों या नदी नालों की इज्जत छीन रहा होता है। पिछले कुछ सालों में नशे की खेती जब पहाड़ की मर्यादा को चीर कर अप्रासंगिक बना दी गई, कोई देव इसके विरुद्ध नहीं बोला। पर्यटन के रास्तों पर पहाड़ की संस्कृति को दाग लग गए।
मर्डर, बलात्कार, लूट और अवैध कारोबार के साम्राज्य में पहाड़ के चप्पे-चप्पे पर पर्यटन के नाम पर कानून-व्यवस्था लुट गई, कोई देवता नहीं बोला। देवता तब भी नहीं बोला, जब बाढ़ में फंसे पर्यटक को सौ रुपए में मैगी खानी पड़ी या बीस का पानी पचास में मिला। हमारी देव संस्कृति भी हमारी तरह भोली है। अंधेरे में तीर मारने की क्षमता में हमें यह मालूम नहीं हुआ कि क्यों हर साल जंगल में आग लगती है। ऐसे कितने देवस्थल हैं जहां आग ने सब कुछ भस्म कर दिया। हम जनता के विश्वास को छिन्न-भिन्न नहीं करना चाहते, लेकिन बारिश की त्रासदी में सबसे अहम भूमिका बचाव और राहत कार्यों की है। आपदाओं की फेहरिस्त में मुकदमा यूं तो इनसानी फितरत का है, लेकिन देव परंपराएं अब विज्ञान को नजरअंदाज करके घोर मुगालते में हंै। आस्था होना एक बात है, लेकिन विकास के साथ मनुष्य की आंखें खुल जाना अलग बात है। देवताओं के गूढ़ रहस्य में गूर का भगवान बने रहना अगर खतरे में नहीं है, तो भयंकर बारिश आने की सूचना व सजा पिछले दशहरे या शिवरात्रि में सुना देनी चाहिए थी। आश्चर्य है कि देवता को कभी स्की विलेज के विरोध में शरीक होते देखा गया, तो अब कई रज्जु मार्गों के खिलाफ देव की भूमिका परिलक्षित होती है।
देवता फिर डराने लगे हैं। मौसम के प्रकोप को एक अज्ञानी भी बड़े आकार में व्यक्त कर सकता है, तो देव समाज इसके विरुद्ध सारे विनाश को रोक के दिखाए। बेशक पुरातन संस्कृति में प्रकृति के हर प्रतीक की ईश्वरीय तुलना हुई है। हर नदी देवी है, तो पेड़-पौधों में दिव्य ऊर्जा मानी गई है। पूजे तो रास्ते भी जाते और पूजी जाती हैं परंपराएं, लेकिन क्या प्राकृतिक प्रकोप की भविष्यवाणी सुनने के लिए हम देव संस्कृति पर विश्वास करेंगे। क्रोध में देव हमें और डराएंगे, तो क्या इस डर का सौदा सिक्कों में होता है। यह होने लगा है। सडक़ों पर ऐसी देव संस्कृति की टोलियां अब इस निगरानी में रहती हैं कि किसी वरदान की कीमत जुटाई जाए। ऐसे किस्से सामने आ चुके हैं जब देवता की पालकी उठाए लोगों का चरित्र शराब में धुत्त होकर इतना गिर गया कि शिकायत पुलिस तक पहुंच गई। हमारा एक सांस्कृतिक व सामाजिक पक्ष देव समाज के रुतबे व आस्था को ऊंचा स्थान देता है और इसके कारण प्रदेश की छवि देवभूमि की आभा में महिमामंडित है, लेकिन अब इसका भी दुरुपयोग होने लगा है। इस बाढ़ के बाद समाज व सरकार प्रदेश को उबारने की कोशिश में हैं, तो देव समाज खरी और आशाजनक बातें करने के बजाय डरावने शब्दों का आडंबर न रचे। अगर आम आदमी ऐसी किसी अफवाह फैलाने का दोषी हो सकता है, तो आपदा के बीच देव संस्कृति के प्रतिकूल मुखौटे भी हटाने होंगे।
Rani Sahu

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