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महिलाओं के अधिकार छीनने के लिए हथियार, भय या जोर-जबर्दस्ती ही नहीं, भावनात्मक मोर्चे पर जोड़-तोड़ करने की मानसिकता का भी इस्तेमाल होता है
Monika Sharma। महिलाओं के अधिकार छीनने के लिए हथियार, भय या जोर-जबर्दस्ती ही नहीं, भावनात्मक मोर्चे पर जोड़-तोड़ करने की मानसिकता का भी इस्तेमाल होता है। हाल ही में राजस्थान के दीगोद में रक्षाबंधन पर बहनों से भाई के लिए पिता की संपत्ति में अपने हक का स्वैच्छिक त्याग करने/करवाने की अपील चर्चा का विषय बनी। तहसीलदार कार्यालय से जारी इस सरकारी प्रेस नोट के मुताबिक, जब किसी खातेदार की मौत होती है, तो उसके स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में बेटे-बेटी व पत्नी का नाम उसकी जगह खाते में दर्ज हो जाता है। बहन-बेटियां पीहर अथवा पैतृक संपत्ति में अपना हक स्वैच्छिक रूप से त्याग करना भी चाहती हैं, पर लापरवाह खातेदार समय पर हक त्याग नहीं कराते हैं, जिससे रिश्तों में खटास आ जाती है। चर्चा में आने के बाद अपील जारी करने वाले अधिकारी को निलंबित कर दिया गया है।
परिवार से लेकर प्रशासनिक स्तर तक, हर मोर्चे पर बेटियों के हक को लेकर संजीदगी कम, स्वार्थ ज्यादा दिखता है। हैरान-परेशान करने वाली यह अपील औरतों के मामले में ही संभव है, जिसमें हक और त्याग, दोनों की बात एक साथ हो रही हो। हालांकि इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि पैतृक जमीनों के झगड़ों से जुड़े कई व्यावहारिक पहलू भी हैं, जो समय रहते कानूनी रूप से हल होने चाहिए। आज हर क्षेत्र में बेटियां बेटों के बराबर भागीदारी कर रही हैं, माता-पिता का सहारा बन रही हैं। ऐसे में संपत्ति के बंटवारे के मसले में बंधी-बंधाई लीक पर चलने वाली सोच का पीछा छूटना ही चाहिए। दरअसल, यह भावनात्मक खेल भी शायद इसीलिए खेला जा रहा है कि अब बेटियां कानूनन पैतृक संपत्ति में बराबर की हकदार हैं। 2005 का हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम इस हक को पुख्ता करता है। इसके अलावा, बीते साल सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में व्यवस्था दी थी कि 2005 से पहले भी अगर किसी पिता की मृत्यु हो गई हो, तो भी बेटियों को संपत्ति में बेटों के बराबर हिस्सेदारी मिलेगी।
सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून के विरोधाभास को खत्म करते हुए कहा था कि बेटों की ही तरह बेटियां भी जन्म के साथ पैतृक संपत्ति में बराबर की हकदार हैं। इस प्रावधान के मुताबिक, अब वैधानिक रूप से बेटियों के जन्म के समय से ही उनके हमवारिस होने के अधिकारों को मान्यता दी गई है। पैतृक संपत्ति का हक केवल धन या जमीन पाने का मामला भर नहीं है। यह बेटियों की समानता और सुरक्षा से जुड़ा पहलू भी है। 'औरतों का अपना कोई घर नहीं होता' जैसी बातें किस्से-कहानियों में ही नहीं, असल जिंदगी में भी देखने-सुनने को मिलती रही हैं। बेटियां हमेशा एक परायेपन के भाव को जीती हैं। शादी के बाद उनके हिस्से आने वाले कई समझौते और शोषण के हालात की एक प्रमुख वजह उनके पास कोई संपत्ति या आर्थिक संबल न होना भी रहा है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि मायके में 'पराया धन' और ससुराल में ताउम्र 'पराये घर की' मानी जाने वाली औरतों के पास संकट से समय कोई आसरा ही नहीं होता।
संविधान द्वारा प्रदत्त समान नागरिक अधिकारों के बावजूद इस मामले में अधिकारहीन और आर्थिक मोर्चे दूसरों पर निर्भर रहने के चलते कितनी ही औरतों को असहनीय परिस्थतियों में जीना पड़ता है। हमारे पारिवारिक ढांचे में बेटियों को लेकर एक परंपरागत सोच का ही हमेशा दबदबा रहा है। ऐसे में विवाहित बेटियों को पैतृक संपत्ति में हिस्सा मिलना सही मायने में उनके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार्यता देने वाली बात है, तो
अविवाहित बेटियों के लिए जीवन भर की सुरक्षा। देखने में आता है कि माता-पिता की मृत्यु के बाद अपने ही घर में अविवाहित बेटियों का जीना दूभर हो जाता है। ऐसे में पैतृक संपत्ति में स्त्रियों से अपने हक का स्वैच्छिक त्याग करने की यह अपील वाकई अजीब लगती है। कितना अच्छा हो कि भावनाएं और संवेदनाएं बेटियों को कानूनी हक देने से जुड़ी व्यावहारिक उलझनें खत्म करने के लिए हों, न कि उन्हें अपने अधिकार से महरूम करने के लिए।
Rani Sahu
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