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अगर आप लंबे समय तक किसी को जंजीरों में जकड़कर रखते हैं
अगर आप लंबे समय तक किसी को जंजीरों में जकड़कर रखते हैं, तो वह जंजीर तोड़कर आजाद हो जाएगा। अगर आप किसी स्त्री को हमेशा के लिए बुर्के के अंधेरे में ढककर रखना चाहें, तो वह रोशनी में आ नृत्य करने लगेगी। सऊदी अरब में उस दिन वैसा ही कुछ देखने को मिला। जहां सिर्फ बुर्का नहीं, महिलाओं को नकाब पहनकर निकलना होता है, ताकि एक बाल भी किसी को दिखाई न पड़े, उसी सऊदी अरब के जजान शहर की एक सड़क पर तीन किशोरियों ने सांबा नृत्य किया।
उन्होंने अपने लंबे बाल हवा में लहराए। कुछ लोगों का कहना है कि वे किशोरियां विदेशी थीं। लेकिन सऊदी अरब में तो स्थानीय-विदेशी, तमाम महिलाओं को अपना पूरा शरीर ढककर रखना होता है। कठोर मजहबी कानून तोड़ने पर दंड भुगतना पड़ता है। पिछले कुछ वर्षों में सऊदी अरब ने अलबत्ता कुछ पुराने और कठोर कानून खत्म किए हैं। वहां औरतों को वाहन चलाने का अधिकार नहीं था, वह अधिकार उन्हें मिला है। वहां सिनेमा और थिएटर देखने जाने की महिलाओं को इजाजत मिली है।
जिस देश में सार्वजनिक स्थलों पर स्त्री-पुरुष के बात करने पर सिर काट लिए जाते थे, वहां संगीत के कन्सर्ट आदि में पुरुषों के साथ महिलाएं भी होती हैं। स्त्री-पुरुष, दोनों को एक साथ बैठकर ऐसे कार्यक्रम देखने का अधिकार भी मिला है। सऊदी सरकार ने तो अब यहां तक कह डाला है कि महिलाओं के लिए बुर्का पहनना अनिवार्य नहीं है। हालांकि देश से बाहर अकेले घूमने जाने का अधिकार सऊदी महिलाओं को अभी तक नहीं मिला है, पर संभव है, यह अधिकार भी उन्हें जल्दी ही मिल जाए।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता को दबाए रखने से किसी को कोई लाभ नहीं मिलता। पुरुषों को तमाम अधिकार स्वतः प्राप्त होंगे और स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं होगा-या उनके अधिकार सीमित होंगे, मनुष्य का बनाया हुआ यह नियम पृथ्वी का सबसे भीषण, बर्बर और अन्यायपूर्ण नियम है। अपनी ही प्रजाति पर यह वीभत्स अत्याचार है। 21वीं शताब्दी में भी दुनिया में सर्वत्र स्त्री नामक मनुष्य को पूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं है, क्योंकि उसके शरीर के एक-दो अंग पुरुष नामक मनुष्य के शरीर के अंग से नहीं मिलते।
सऊदी अरब की तरह सलाफी बर्बरता और वहाबी कट्टरता से जर्जर देश में भी स्वतंत्रताकामी महिलाएं सड़क पर उतर आई हैं, तनकर खड़ी हुई हैं। वाहन चलाना गैरकानूनी है, यह जानते हुए भी वाहन चलाकर उन्होंने अपना विरोध दर्ज किया है। बुर्के के बगैर चलना-फिरना कानून के खिलाफ है, यह जानकर भी सड़क पर बुर्का फेंककर उन्होंने इस अन्यायपूर्ण कानून पर एतराज जताया है। कोड़ा खाकर और जेल में सड़कर भी उन्होंने डर से अपनी जुबान बंद नहीं की।
ईरान की लड़कियों ने हवा में बुर्का उड़ाते हुए बुर्के की अनिवार्यता को चुनौती दी है। कट्टरवाद से ग्रस्त देशों की महिलाएं जब बुर्का और हिजाब के अंधेरे से बाहर निकल रही हैं, तब भारतीय उपमहाद्वीप के अपेक्षाकृत उदार कानूनों के बीच पली-बढ़ी मुस्लिम स्त्रियों को खुश होकर हिजाब और बुर्का लपकते हुए देखना अजीब ही लगता है। हिजाब और बुर्का भारतीय उपमहाद्वीप की पोशाकें नहीं हैं। ये मरुस्थल की पोशाकें हैं।
मरुस्थल की पोशाक अपने शरीर पर लपेटकर महिलाएं कब तक खुद को अंधेरे में कैद रखेंगी? एक दिन वे भी सऊदी अरब की महिलाओं की तरह आजादी पाने के लिए सड़क पर उतर आएंगी। एक दिन वे भी बुर्का फेंक अपने पूरे शरीर में आजादी का उल्लास लपेटकर सड़क पर नृत्य करेंगी। स्वतंत्रता हम सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। यह अधिकार इस या उस बहाने से छीना नहीं जा सकता।
हर मनुष्य का, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, जन्मगत स्वभाव है कि वह पूर्ण स्वतंत्रता के लिए लड़ता है, उठ खड़ा होता है। बेहतर जीवन स्थिति के लिए, बेहतर परिवेश के लिए, आर्थिक आजादी के लिए स्वतंत्रता बहुत जरूरी है। और अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाली महिलाएं जानती हैं कि सिर्फ पोशाक से मुक्ति ही पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है, बल्कि यह तो पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति की दिशा में पहला कदम है।
इसलिए जुझारू महिलाएं सिर्फ पोशाक के बंधन से निकलकर खामोश नहीं होतीं, बल्कि वे पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति की दिशा में कदम बढ़ाती हैं। सच यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्रियों के लिए कदम-कदम पर बेड़ियां हैं। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि शादी के बाद संतान को जन्म देकर दुनिया की असंख्य स्त्रियां अपने कामकाज, प्रदर्शन और करियर का अंत कर डालती हैं। कभी-कभी मेरे मन में प्रश्न उठता है कि संतान जन्म देने की इतनी जरूरत आखिर क्यों है।
मैंने पाया है कि विकसित-प्रतिष्ठित समाज की जंजीर तोड़ देने वाली साहसी स्त्रियां भी उम्र के तीसवें वसंत के पास पहुंचकर संतान को जन्म देने के लिए व्याकुल हो उठती हैं। यह व्याकुलता अपनी इच्छा पूर्ति के लिए है या पुरुषवर्चस्ववादी समाज की रीति-नीतियों का अनुपालन करने के लिए? ज्यादातर महिलाएं अपने लिए नहीं, बल्कि खानदान को चलाए रखने के लिए अपने परिवार से संतान पैदा करने की जो मांग आती है, उसकी पूर्ति के लिए संतान पैदा करना चाहती हैं।
वे इसलिए भी संतान चाहती हैं, ताकि समाज उन्हें बांझ न कह सके। वे इसलिए भी संतान पैदा करने की इच्छुक होती हैं, क्योंकि वे बचपन से सुनती आई हैं कि संतान पैदा करने और मातृत्व को प्राप्त होने में ही स्त्री जीवन की सार्थकता है। ऐसे में, महिलाएं यह भ्रम पाल लेती हैं कि संतान पैदा करने की इच्छा खुद उनकी ही है। संतान पैदा करने का एक तर्क यह भी है कि बुढ़ापे में संतान ही काम आती है। लेकिन यह अपने साथ-साथ अपनी संतानों की स्वतंत्रता को भी बाधित करना और पैदा होने से पहले ही उन पर अपेक्षाओं का बोझ डाल देना है।
और ऐसा तो कतई नहीं है कि संतान न पैदा करने से इस पृथ्वी पर मनुष्य का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। पृथ्वी की आबादी लगभग आठ अरब है। इतनी भारी भीड़ में नए मनुष्य को जन्म न देने की इच्छा ही तो स्वाभाविक होनी चाहिए। लेकिन उन महिलाओं को कौन समझाए, जिनमें यह धारणा बहुत मजबूत है कि संतान को जन्म न देने से खुद उनका जीवन व्यर्थ हो जाएगा?
अमर उजाला
Gulabi
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