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By: divyahimachal
संसद का 96 साल पुराना भवन अब अतीत हो चुका है। प्रधानमंत्री मोदी और अन्य नेताओं के विदाई संबोधनों के साथ ही पुराने भवन को अलविदा कहकर नए संसद भवन में प्रवेश भी हो चुका है। अब पुराना संसद भवन एक राष्ट्रीय धरोहर, एक लंबा इतिहास, संसदीय संग्रहालय और लोकतंत्र का प्रतिबिम्ब है, जिससे संविधान निर्माताओं, हमारे पुरखों और 7500 से अधिक सांसदों की असंख्य यादें जुड़ी हैं। पुराना सदन उन घटनाओं, बहसों और निर्णयों का साक्षी रहा है, जिन्होंने भारत के लोकतंत्र को एक सुगढ़ आकार और विकास दिया। संसद भवन में वे असंख्य नाद आज भी गूंज रहे हैं, जो अस्पष्ट और अनसुने लग सकते हैं, लेकिन वे अभिव्यक्ति और संवाद की स्वायत्तता के जीवंत प्रमाण हैं। हमने 1997 से 2020 के कोरोना-काल तक लोकसभा की प्रेस दीर्घा में बैठकर संसदीय कार्यवाहियों को साक्षात देखा है, लिहाजा सुना भी है। कई ऐतिहासिक संबोधन भी सुने हैं। देवेगौड़ा और गुजराल सरकारों का एक साल से भी कम समय में पतन देखा है। किसी की निजी और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर सदन और सरकारें काम नहीं कर सकतीं, यह सोच भी सुनी है। अटल बिहारी वाजपेयी सरीखे कद्दावर और निर्णायक प्रधानमंत्री की सरकार मात्र एक वोट से गिरती भी देखी है। उस दिन लोकतंत्र को बिकते भी देखा है, लेकिन लोकतंत्र तो सनातन और शाश्वत है, लिहाजा लौट आया।
हम लोकसभा में परमाणु करार पर राजनीतिक विभाजन के भी साक्षी रहे हैं और डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार को गिरते-गिरते बचते भी देखा है। लोकसभा में एक भाजपा सांसद ने नोटों से भरा बैग खोल कर पूरे सदन को स्तब्ध कर दिया था, लिहाजा ‘नोट के बदले वोट’ के राजनीतिक भ्रष्टाचार को बेनकाब होते भी देखा है। ‘प्रश्न के बदले नकदी घूस’ के भ्रष्टाचार पर 11 सांसदों की बर्खास्तगी का ऐतिहासिक निर्णय भी सुना है। हम खाद्य सुरक्षा, सूचना का अधिकार, मनरेगा, अनिवार्य नि:शुल्क शिक्षा से लेकर अनुच्छेद 370, तीन तलाक, जीएसटी, एक पद-एक पेंशन आदि ऐतिहासिक संशोधनों और कानूनों के पारित किए जाने के भी प्रत्यक्ष साक्षी रहे हैं। हम 13 दिसंबर, 2001 को संसद पर आतंकी हमले के भी चश्मदीद रहे हैं और एक बड़े पत्थर के पीछे छिप कर जान बचाई थी। अब चूंकि मोदी कैबिनेट ने संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण के बिल को स्वीकृति दी है, लिहाजा नए संसद भवन के ‘विशेष सत्र’ में यह बिल पेश और पारित किया जा सकता है, लेकिन हम स्पष्ट कर दें कि महिला आरक्षण कानून 2029, यानी अगले आम चुनाव, से पहले क्रियान्वित किया जाना संभव नहीं है। संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से बिल पारित होने के बाद यह संवैधानिक बाध्यता और दायित्व भी है कि उसकी राज्यों की 50 फीसदी से अधिक विधानसभाएं भी पुष्टि करें। 10 वर्षीय जनगणना का काम भी 2026 तक जारी रह सकता है।
फिर आरक्षित सीटों के मद्देनजर परिसीमन का काम भी किया जाना है। हम संसद में महिला आरक्षण पर सपा, राजद और जनता दल-यू आदि राजनीतिक दलों का कड़ा विरोध देख चुके हैं। बिल की प्रतिलिपियां तक फाड़ दी गई थीं। जद-यू के शरद यादव तो ‘मरने’ तक तैयार थे, लेकिन ऐसे बिल का सामाजिक तौर पर विरोध कर रहे थे। बहरहाल आज मुलायम सिंह यादव, शरद यादव सरीखे विरोधी नेता ‘दिवंगत’ हो चुके हैं। बेशक मौजूदा परिदृश्य में यह सब कुछ संभव न हो, क्योंकि लोकसभा में तो भाजपा का प्रचंड बहुमत है, लेकिन 180 महिला सांसदों का निर्वाचन और आरक्षण किया जाना है, तो एक निश्चित प्रक्रिया अनिवार्य है। उसमें वक्त लगेगा। फिलहाल लोकसभा में 78 और राज्यसभा में 29 महिला सांसद हैं। यह अनुपात क्रमश: 14.4 और 12 फीसदी है, जबकि रवांडा जैसे गरीब, पिछड़े मुल्क में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 61 फीसदी से भी ज्यादा है। संभवत: यह भी प्रावधान किया जा रहा है कि अनुसूचित जाति, जनजाति के लिए जो संसदीय सीटें आरक्षित हैं, उनकी कुल संख्या में से एक-तिहाई को उन्हीं समूहों की महिलाओं के लिए आरक्षित किया जा सकता है। जब बिल संसद में पेश किया जाएगा, तो तस्वीर बिल्कुल साफ होगी। उसके आधार पर हम विश्लेषण करेंगे कि महिला आरक्षण कितना कारगर रहेगा। महिला सशक्तिकरण के लिए लंबे समय से मांग उठती रही है कि महिलाओं को संसद तथा राज्यों की विधानसभाओं में 33 फीसदी आरक्षण दिया जाना चाहिए। इसके लिए कई बार संसद में बिल पेश किए गए। अब यह सपना साकार होने का समय आ गया है।
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