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![श्रमबल में महिलाओं की जगह श्रमबल में महिलाओं की जगह](https://jantaserishta.com/h-upload/2023/02/13/2541559-12.webp)
नृपेंद्र अभिषेक नृप: भारत में महिलाओं के रोजगार के लिए कृषि भी एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र रहा है, मगर पिछले तीन दशकों में देश में कृषि-रोजगार में भारी गिरावट देखने को मिली है। ऐसे में अक्सर लोग कृषि से हटकर अनौपचारिक और आकस्मिक रोजगार की ओर पलायन कर रहे हैं, जहां काम काफी छिटपुट और प्राय: तीस दिनों से भी कम का होता है।
किसी भी देश के विकास का पैमाना इस बात से भी तय होता है कि उसमें महिला श्रमबल की भागीदारी कितनी है। भारत में पिछले कुछ दशकों में महिलाओं ने भले कई क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान दिया है, लेकिन समाज के साथ-साथ श्रम भागीदारी में आज भी उनकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। हमारे यहां महिला को सिर्फ घर संभालने वाले सदस्य के तौर पर देखा जाता है, जबकि पुरुष को कमाऊ सदस्य के तौर पर। यानी प्राचीन समय से चली आ रही लिंगभेद की परंपरा अब भी बरकरार है और लगता नहीं कि यह पूरी तरह खत्म हो सकेगी।
हालांकि बीते दो दशक में वैश्विक स्तर पर महिलाओं की शिक्षा के स्तर में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज हुई है, साथ ही प्रजनन दर में गिरावट देखने को मिल रही है। इन दोनों कारकों के चलते दुनिया भर में वैतनिक श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी काफी बढ़ी है। हालांकि भारत के मामले में स्थिति सामान्य और स्पष्ट नहीं है। भारत का सामाजिक ढांचा शुरू से ही अलग रहा है, जिसमें महिलाओं को घर की दहलीज लांघने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है।
फिर भी आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण 2018-19 के मुताबिक पंद्रह वर्ष से अधिक आयु वर्ग की महिला श्रमबल भागीदारी दर (एलएफपीआर) ग्रामीण क्षेत्रों में तकरीबन 26.4 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 20.4 प्रतिशत है। बीते वर्षों में लैंगिक समानता की दिशा में सरकार द्वारा किए गए प्रयासों को कोरोना महामारी ने काफी प्रभावित किया है, जिसके चलते महिलाओं और लड़कियों के समक्ष मौजूद असमानता की गहरी खाई और चौड़ी हुई है।
विश्व स्तर पर देखें तो लगभग आधी महिला आबादी काम करती है। हाल ही में कई देशों में महिला श्रमबल में वृद्धि के कारण रोजगार में महिला और पुरुषों के बीच का अंतर कम हुआ है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा जारी रिपोर्ट 'विश्व रोजगार और सामाजिक दृष्टिकोण-रुझान 2020' में यह बात सामने आई है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत के अलावा पाकिस्तान, बांग्लादेश और उत्तरी अफ्रीका के देशों- मोरक्को, मिस्र और ट्यूनीशिया में भी यही स्थिति है।
सामाजिक स्तर पर महिलाओं की खराब स्थिति के चलते ही उनका रोजगार जनसंख्या औसत भी बेहद खराब श्रेणी में है, जो खुले तौर पर लैंगिग असमानता को प्रदर्शित करता है। फिर भी, भारत की बाजार अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी के रुझान इसके विपरीत दिशा में बढ़ रहे हैं। तीव्र प्रजनन क्षमता के बावजूद, महिलाओं द्वारा शिक्षा अर्जित करने में व्यापक वृद्धि हुई है और पिछले दो दशक में पर्याप्त आर्थिक विकास हुआ है, फिर भी काम करने वाली भारतीय महिलाओं की हिस्सेदारी समय के साथ कम हो गई है।
भारत को रोजगार के क्षेत्र में लैंगिक समानता प्राप्त करने के लिए बड़े पैमाने पर प्रयास करने की जरूरत है। इन प्रयासों में आर्थिक अवसर, कानूनी संरक्षण और भौतिक सुरक्षा जैसे कारक सम्मिलित होंगे। गौरतलब है कि महिलाएं पहले से हमारी अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं और अनौपचारिक क्षेत्र में कम पारिश्रमिक वाली नौकरियां कर रही हैं। ऐसे में उनमें उचित कौशल निर्माण को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।
भारत सरकार कौशल प्रशिक्षण पर जोर देती रही है। महिलाएं शहर के लिए आवश्यक कुछ सेवाएं प्रदान करने की दृष्टि से उपयुक्त हैं। हालांकि महिलाओं को काम के परंपरागत क्षेत्रों तक ही सीमित रखने का कोई कारण नहीं है। वे अगर उचित कौशल से युक्त हों, तो उनमें परंपरगत रुकावटों को दूर करने और नए रोजगार में खुद को बेहतर साबित करने की स्वाभाविक योग्यता होती है।
राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था चूंकि शहरों पर आधारित होती जा रही है, इसलिए महिलाओं के लिए रोजगार के अवसरों का सृजन भी मजबूरन शहरों को केंद्र में रखकर ही करना पड़ेगा। मगर अगर सरकार का उद्देश्य अपने कार्यबल में महिलाओं का काफी बड़ा अनुपात शामिल करना है, तो अपने यहां शहरी सेवाओं में मौजूद खामियों को दूर करना होगा। महिलाओं को ग्रामीण अर्थव्यवस्था से भी जोड़ना होगा।
जिन महिलाओं का संपर्क शहरों तक नहीं हो पाता, उनके घर के पास और उनकी इच्छा की समयावधि में काम को तरजीह देनी चाहिए। इसके लिए पहले से महात्मा गांधी रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत उन्हें पहले से तय मजदूरी की दर पर सौ दिनों का रोजगार देने का प्रावधान है। मगर 2018 में एक सर्वेक्षण से पता चला कि ऐसे कामों में महिलाओं की भागीदारी कम हो रही है।
ग्रामीण समाज में यह अधिक स्पष्ट तौर पर दिखता है। परिवार का आकार घटने और दबाव में ग्रामीण पुरुषों के होने वाले पलायन की वजह से महिलाओं के बगैर भुगतान वाले काम बढ़ गए हैं। ओईसीडी की रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय महिलाएं हर दिन औसतन 352 मिनट घरेलू कामों में लगाती हैं। पुरुष बगैर भुगतान वाले काम में जितना वक्त लगाते हैं, उसके मुकाबले यह 577 फीसद अधिक है। यह आपूर्ति की समस्या है, जिसका समाधान किया जाना चाहिए।
अक्सर देखा गया है कि इसकी मार गरीबों पर अधिक पड़ती है। बगैर भुगतान वाले कार्यों में लगी होने की वजह से महिलाएं रोजगार के लिए जरूरी शिक्षा और कौशल हासिल नहीं कर पाती हैं। इससे वे कार्यबल से लगातार बाहर बनी रहती हैं। ऐसे में बुजुर्गों और बच्चों की देखरेख के लिए आश्रय बनने चाहिए, ताकि श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ सके।
ग्रामीण भारत में इस समस्या के समाधान के लिए यह जरूरी है कि श्रमिकों की मांग से संबंधित समस्याओं का समाधान किया जाए। साथ ही इसके लिए लैंगिक जरूरतों के हिसाब से नीतियां बननी चाहिए, ताकि महिलाओं पर बगैर भुगतान वाले कार्यों का बोझ कम हो। इसका समाधान किए बगैर श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना आसान नहीं होगा।
अक्सर महिलाओं का काम करना हमारे पुरुष प्रधान समाज में उनके पति की असमर्थता के रूप में देखा जाता है। इसके अलावा भारतीय समाज में ऐसी रूढ़िवादी धारणा भी काफी प्रबल है, जो यह मानती है कि एक महिला का स्थान केवल घर और रसोई तक सीमित है और अगर वह सामाजिक रूप से स्वीकृत दायरे से बाहर कदम रखती है, तो इससे हमारे सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों पर गहरा प्रभाव पड़ेगा।
भारत में महिलाओं के रोजगार के लिए कृषि भी एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र रहा है, मगर पिछले तीन दशकों में देश में कृषि-रोजगार में भारी गिरावट देखने को मिली है। ऐसे में अक्सर लोग कृषि से हटकर अनौपचारिक और आकस्मिक रोजगार की ओर पलायन कर रहे हैं, जहां काम काफी छिटपुट और प्राय: तीस दिनों से भी कम का होता है। कई अवसरों पर यह देखा जाता है कि जो महिलाएं श्रम बल में शामिल भी हैं, वे अपने रोजगार की प्रकृति के कारण देश के अधिकांश श्रम कानूनों के दायरे से बाहर रहती हैं, इसमें हाल ही में पारित सामाजिक सुरक्षा संहिता भी शामिल है।
अर्थव्यवस्था में महिलाओं की पूर्ण भागीदारी और समावेशन सुनिश्चित करने के लिए उनके समक्ष मौजूद बाधाओं को दूर किए जाने की आवश्यकता है, जिसमें श्रम बाजार तक पहुंच और संपत्ति में अधिकार सुनिश्चित करना और लक्षित ऋण तथा निवेश आदि शामिल हैं। कोरोना महामारी ने पुरुषों से अधिक महिलाओं के रोजगार को प्रभावित किया है।
श्रमबल में हिस्सेदारी करने वाली महिलाओं के लिए समान अवसर सुनिश्चित करने हेतु मजबूत और सम्मिलित प्रयास किए जाने की आवश्यकता है, जिसमें महिलाओं के लिए परिवहन, सुरक्षा और छात्रावास की सुविधाएं उपलब्ध कराने के साथ-साथ बच्चों की देखभाल और मातृत्व लाभ जैसे सामाजिक सुरक्षा प्रावधान किया जाना शामिल है।
क्रेडिट : jansatta.com
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