सम्पादकीय

हिमाचल के विशेष संदर्भ में स्त्री-विमर्श

Rani Sahu
28 Nov 2021 6:55 PM GMT
हिमाचल के विशेष संदर्भ में स्त्री-विमर्श
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हिमाचल के विशेष संदर्भ में ‘स्त्री-विमर्श की चर्चा की जाए तो आज भी यह शब्द अपेक्षाकृत नया प्रतीत होता है

अतिथि संपादक : चंद्ररेखा ढडवाल, मो. : 9418111108

हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में -12
विमर्श के बिंदु
1. कविता के बीच हिमाचली संवेदना
2. क्या सोशल मीडिया ने कवि को अनुभवहीन साबित किया
3. भूमंडलीकरण से कहीं दूर पर्वत की ढलान पर कविता
4. हिमाचली कविता में स्त्री
5. कविता का उपभोग ज्यादा, साधना कम
6. हिमाचल की कविता और कवि का राज्याश्रित होना
7. कवि धैर्य का सोशल मीडिया द्वारा खंडित होना
8. कवि के हिस्से का तूफान, कितना बाकी है
9. हिमाचली कवयित्रियों का काल तथा स्त्री विमर्श
10. प्रदेश में समकालीन सृजन की विधा में कविता
11. कवि हृदय का हकीकत से संघर्ष
12. अनुभव तथा ख्याति के बीच कविता का संसर्ग
13. हिमाचली पाठ्यक्रम के कवि और कविता
14. हिमाचली कविता का सांगोपांग वर्णन
15. प्रदेश के साहित्यिक उत्थान में कविता संबोधन
16. हिमाचली साहित्य में भाषाई प्रयोग (काव्य भाषा के प्रयोग)
17. गीत कविताओं में बहती पर्वतीय आजादी
हिमाचल के विशेष संदर्भ में 'स्त्री-विमर्श की चर्चा की जाए तो आज भी यह शब्द अपेक्षाकृत नया प्रतीत होता है। कई बार तो वह इस नकारात्मक अर्थ में भी प्रयुक्त होता है कि हिमाचल में इसकी कोई आवश्यकता नहीं। तो क्या यह मान लें कि हिमाचल की स्त्री को संघर्ष नहीं करना पड़ा? उसे पुरुष का अन्याय नहीं झेलना पड़ा? क्या यहां स्त्री-पुरुष को समान अधिकार प्राप्त थे? क्या यहां की नारी अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के कारण हमेशा से सशक्त थी? अपनी उम्र के 79 साल गुजार चुकी वरिष्ठ साहित्यकार आशा शैली कहती हैं कि साठ के दशक में जब उन्होंने लिखना आरंभ किया तो स्त्री-विमर्श की कोई जरूरत नहीं थी और न ही आज है। वह मानती हैं कि हिमाचल में स्त्रियों को जीने की पूरी आजादी थी, स्त्री-पुरुष में श्रम-विभाजन नहीं था। अगर बहु-पत्नी प्रथा थी तो बहु-पति प्रथा भी थी। लेकिन मुझे लगता है कि इन दोनों ही प्रथाओं में शोषण स्त्री का था, जहां उसे अपने एकनिष्ठ प्रेम की बलि देनी पड़ती थी।
जहां तक श्रम-विभाजन की बात है, सारा श्रम ही स्त्री के हवाले था। 'आजादी की समझ भी सापेक्ष है क्योंकि स्त्री की 'कंडीशनिंग ही ऐसी थी कि उसे गुलामी का एहसास ही नहीं था। यह जरूर हो सकता है कि स्त्रियों के आत्मनिर्भर होने के कारण उन्हें अन्याय और क्रूरता का कम सामना करना पड़ा हो। हालांकि आशा शैली स्वयं रानी खैड़ा, बसंती जैसी स्वतंत्रता सैनानियों पर काम कर चुकी हैं जिनमें प्रखर स्वाधीन चेतना थी। वह 'उड़ जाना तेरा बसंतिया रूमाल का जिक्र करती हैं जो बसंती द्वारा क्रांतिकारियों को संकेत देने का काम करता था। इसलिए 'स्त्री-विमर्श शब्द भले ही नया हो, यह कहा जा सकता है कि पहाड़ की स्त्री के जीवन-संघर्ष कभी कम नहीं थे और स्त्री-चेतना भी यहां स्वाभाविक रूप से उपजी थी। अनेक सम्मानों से पुरस्कृत साहित्यकार रेखा वशिष्ठ कहती हैं कि अस्सी के दशक में जब उन्होंने लिखना आरंभ किया तो 'स्त्री-विमर्श शब्द ज्यादा प्रचलित नहीं था। आलोचना की एक खास तकनीक के तौर पर भी उसे ज्यादा साधा नहीं गया था। इसलिए उन्होंने अगर समाज में स्त्री की स्थिति, उसके संघर्ष पर लिखा तो स्वयं एक स्त्री होने के कारण। उनकी कविताएं उनके अपने अनुभवों की सहज संवेदना की स्वाभाविक परिणति थीं। जैसे 'लोकल बस उस कामकाजी स्त्री पर लिखी गई, जो फुदकती आजाद गोरैया की तलाश में बाहर निकलती है, खचाखच भरी लोकल बस में जिंदगी के धक्के खाकर वापस आती है, लेकिन गोरैया उसके संग शाम को घर नहीं लौटती। देश के किसी भी भूभाग की तरह हिमाचल में भी स्त्री के लिए सबसे बड़ा मुद्दा अस्तित्व-रक्षा का था, जन्म लेने के बुनियादी अधिकार का था। 'अजन्मी बेटी के नाम रेखा वशिष्ठ की एक कविता देखें-'….ठीक उसी क्षण/ कूड़े के ढेर पर से उठती है/ एक काली बुलबुल/ मेरी अजन्मी बेटी/ अपनी पैनी चोंच से/ उधेड़ती है मेरी कोख/ खंगोलती है मांस की तहें/ कहती है मुझसे/ छिपा लो मुझे यहीं/ इसी घनी छांव में/ मेरे पीछे पड़े हैं ब्याघ/ मेरे होने से बेचैन/ मुझे जिंदा रखना है गीत/ मैंने वादा किया था/ मुझे जनने वाली/ पहली औरत से। क्या बेटी को जिंदा रखने और अपनी उर्वरा शक्ति को अपने अधीन रखने की यह सोच स्त्री-विमर्श में नहीं आती? देवकन्या ठाकुर हिमाचल की नई पीढ़ी की रचनाकार हैं और अपने साहित्य को 'स्त्री-विमर्श की श्रेणी में रखने से परहेज नहीं करती। वह कहती हैं कि स्त्री को देवी, सुलच्छना की नहीं इनसान होने की उपाधि चाहिए। देवकन्या ने देव-संस्कृति की स्त्री-संबंधी कुप्रथाओं और मान्यताओं पर, स्त्री को संपत्ति के अधिकार से वंचित रखने पर, उनके अधिकारों पर सशक्त रूप से लिखा भी है और फिल्में भी बनाई हैं। 'पहाड़ की औरत उनकी एक बहुचर्चित कविता है जिसमें वह जानकी, पांचाली, चंद्रा, भोटड़ी, रानी रूपी जैसे शोषित स्त्रियों के किरदारों को ओढ़कर सभ्यता की सदियों से बंद पड़ी गिरहों को दोबारा खोलना चाहती हैं और पहाड़ की औरत के रूप में अपने जीवन के सत्य को उघाडऩा चाहती हैं- 'संघर्ष की जिजीविषा में/ कठोर हिमालय के सीने पर/ बर्फीली हवाओं से लड़ी हूं मैं/ जलती धूप में खेतों में/ महत्त्वाकांक्षाओं के बीजों की कसमसाहट/ और तपस्यारत खड़े ये दरख्त/ जिनके लाल सेब/ रंग हैं मेरी मेहनत के लहू से….अपने पाषाण जैसे कठोर हाथों से/ हिमालय को तोड़ती और कतरा-कतरा छिलती सदियों से/ समय के चक्र को चुपचाप भेदती/ मैं पहाड़ की औरत। उमा ठाकुर 'नधैक की कविता 'पहाड़ और औरत भी स्त्री-विमर्श के अनेक प्रासंगिक पहलुओं को उद्घाटित करती है। चूल्हे की तपन में रिश्तों का ताना-बाना बुनती, बिना धूप-छांह की फिक्र के चूल्हे से घासनी का सफर तय करती पहाड़ की औरत पहाड़ के उस पार का जीवन नहीं जानती, फिर भी बंधनों के खूंटे तोड़कर सशक्त होना चाहती है- 'सब देखा है पहाड़ ने/ वह बचपन, वह आंगन की चिरैया/ वे सतरंगी सपने बुनते-बुनते/ पीठ पर किल्टा लिए पहाड़ को लांघना/ उससे भी परे, सखी किंकरी देवी का/ बेखौफ/ उसे बचाने के लिए/ खनन माफिया से भिड़ जाना।/ सुरमी, नरजी, सती, चैखी न जाने/ कितनी ही औरतों के/ सपनों को जलते देखा है पहाड़ ने/ मौन रहकर/ ।
जहां पहाड़ ने सदियों से स्त्रियों का अतिशय श्रम देखा है, दर्द देखा है, उनका सती होना देखा है, खनन माफिया से संघर्ष देखा है, मासूम गुडिय़ा की चीखें सुनी हैं, वहां स्त्री-विमर्श की जरूरत हमेशा से थी और हमेशा रहेगी। तभी तो हिमाचल की सशक्त नारीवादी रचनाकार चंद्ररेखा ढडवाल, जो अपनी कविताओं, कहानियों, उपन्यास, लोक-साहित्य के कारण देश की पत्र-पत्रिकाओं में हमेशा चर्चा का केंद्र रहती हैं, लिखती हैं- 'औरत के हिस्से में/ आग नहीं आती/ आग के हिस्से में/ वह आती है। चंद्ररेखा अपनी छोटी-छोटी, एक वाक्य वाली कविताओं में औरत की जिंदगी के समूचे सत्य सामने धर देती हैं। औरत कैसे अपना सारा हुनर, सारी इच्छाएं पलभर में खत्म कर देती है, इस पर एक व्यंग्य देखिए- 'जलते तवे पर/ पानी छिड़क देती है/ रोटियां सेंकती औरत/ जीने का/ हुनर सीख लेती है। इसी तरह अपनी परवरिश में होने वाले सारे अन्याय को सहने वाली लड़की से वह व्यंग्य में पूछती हैं- 'लड़की! सच कहो तो/ तुम इतनी अच्छी क्यों हो? स्त्री और पुरुष के लिए प्रेम के मायने कितने अलग हैं, इस पर वह लिखती हैं- 'तुम्हारे लिए प्यार/ दूसरे को अपनी सोच की/ परिधि में ले आना यदि है / (तथाकथित उजालों के आलोक या अंधेरों की विस्मृति में एक ही बात है)/ तो तुम प्रेमी नहीं रह जाते। सदियों से चले आ रहे स्त्री के प्रेम-विमर्श को एक छोटे-से वाक्य-सूत्र में खारिज करते हुए वह कहती हैं-'मात्र पुरुष हो जाने से प्यार/ तुम्हारे लिए अधिकार और मेरे लिए अनुकंपा नहीं हो जाता। प्रेम के प्रति विशुद्ध भाव से समर्पण और अपना सर्वस्व अर्पित करने का भाव सच में स्त्री की वह कमजोरी रहा है, जिसकी वजह से उसने पुरुष के प्रेम में ही अपना वजूद ढूंढा और कभी अपनी स्वतंत्र अस्मिता को नहीं पहचाना।
स्त्री विमर्श : प्रश्नों के आगे…
हिंदी और उर्दू शायरी से पूरे देश में अपनी खास पहचान बना चुकी नलिनी विभा नाजली लिखती हैं- 'बोनसाई बनाता है वह मुझे/ निरंतर/ काटता/ छांटता/ मेरी जड़ें, शाखाएं/ कि कद्दावर न बन जाऊं/ प्रबल रहे/ उसका अहम/ बौना रहे/ मेरा अस्तित्व। लेकिन वह हिम्मत नहीं हारतीं बल्कि विराट बरगद तले उस बोनसाई को बाहर निकालने के लिए अपना अधिकार वापस पाने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई देती हैं- 'एक दिन उथले पात्र से बाहर/ उतार देनी हैं अपनी जड़ें/ धरती में गहरे फैल जाना है/ छतनार बनकर। सरोज परमार भी एक ऐसी स्त्रीवादी लेखिका हैं जिनकी कविताएं देशभर की नामी-गिरामी पत्रिकाओं में छपी हैं। उनके कविता-संग्रहों के नाम-'घर सुख और आदमी, 'मैं नदी होना चाहती हूं 'समय से भिडऩे के लिए स्त्री के संघर्ष और सरोकारों से संबंधित हैं।
उनका मानना है कि स्त्री की सोच और उसकी वैचारिकता पुरुष के चिंतन से किसी भी मायने में कम नहीं, लेकिन उसकी सृजनात्मकता रोटियां सेंकने में जल जाती हैं, कपड़े धोने के साथ धुल जाती हैं और झाड़-बुहार में झड़ जाती है। नदी के बहाने स्त्री के वजूद के कई पहलुओं की अभिव्यक्ति सरोज जी की ऐसी बहुचर्चित परिकल्पना है जो कालांतर में कई कवयित्रियों द्वारा अपनाई गई है। कभी वह नदी होकर बहना चाहती हैं, तो कभी सूखती नदी को पुनर्जीवित करना। कभी हाट-घराट, खेत-खलिहान को सारे कगार तोड़कर बहा ले जाना चाहती है, कभी वह नदी खुद ही गुमशुदा हो जाती है, तो कभी महासागर बन जाती है- 'तुम बेलाग सी बह रही थी/तुम्हारी निस्पृहता मेरे लिए/ईष्र्या का विषय है/वह कौनसा मंत्र तुम्हें ग्लेशियर की कोख से मिला है/जो दुख तुम्हारे वजूद को तोड़ता नहीं…/शायद अंदर की आग तुम्हें टिकने नहीं देती/तुम्हारे संग रहते-रहते/बहते-बहते/मैं नदी होना चाहती हूं/खोना चाहती हूं वजूद/अपनापन/होना चाहती हूं सागर/महासागर!/क्या तुम भी औरत होना चाहोगी? हिमाचल की नई पीढ़ी की उभरती रचनाकार दीप्ति सारस्वत 'प्रतिमा उथली कहे जाने वाली नदी और गहरे कहे जाने वाले समंदर के प्रेम पर व्यंग्य से टिप्पणी करती हैं- 'उथली मचलती सी, गिरती पड़ती/भागी जाती/बेताबी चाल में साफ-साफ झलकाती/समंदर गरजता, कभी शांत लहराता-सा/उसको भी/नदियों से नदियों सा प्यार होता, होगा क्या?/…और समंदर है तकता/न जाने कितनी नदियों का रास्ता/क्या ऐसा ही होता है बड़ा और गहरा होना? प्रियंवदा शर्मा भी नदी का बिंब गढ़ती हैं। उनके लिए यह ख्वाबों की उफनती नदी है जिसे वह अपने तकिए और चादर में महसूस करती हैं, कागज के पन्नों पर उतारकर सहलाना चाहती हैं, पर प्रेम की नियति आज भी सोहनी-महिवाल की दास्तान को ही रचना चाहती है- 'प्रेम के कच्चे घड़े पर सवार होकर/करना चाहती है पार/ख्वाबों की नदी/जानते हुए भी/कच्चा घड़ा डुबो देगा उसे..। दरअसल प्रेम हिमाचल के स्त्री-विमर्श का ऐसा एक पसंदीदा विषय है जिस पर सभी ने लिखा है। अदिति गुलेरी लिखती हैं- 'तुम में डूबकर/खुद को भूलें/तुमसे मिलकर/फिर न कोई साहिल ढूंढें/…मुहब्बत के झीने जाल के/इस मधुर फांस के एहसास में। शायद स्त्री के लिए प्रेम का यह भाव ही उसकी कुदरत है, उसका वजूद है, लेकिन यह मधुर फांस ही अंतत: उसकी अस्मिता को सीमित कर देती है। शैली किरण लिखती हैं- 'प्रेम में डूबकर/उससे बाहर आना कैसा है?/…जैसे कैंसर अपनी ही/कोशिकाओं की आत्मरक्षा की प्रक्रिया है/या आप उडऩा चाहते हैं/लेकिन कदम साथ नहीं देते/वे कहते हैं यह गैंग्रीन है/हर मनुष्य सर्द पैंगवीन है/उड़ान की इच्छा इतनी अदम्य है/कि आप खुशी-खुशी दर्द बांट लेते हैं/आप रोते हुए पैर काट लेते हैं। स्त्री के इस आत्महंता प्रेम ने ही पुरुषों को स्त्री-विमर्श पर फब्तियां कसने का मौका दिया है। दिलचस्प बात तो यह है कि पुरुषों ने इस बहाने बाहर की दुनिया पर लिखने का एकाधिकार हासिल कर लिया है।
यह पुरुषवादी सोच है कि स्त्री, स्त्री पर ही लिखे, बाकी विषयों को पुरुषों के लिए छोड़ दे। लेकिन स्त्री, स्त्री सरोकारों से इतर विषयों पर भी समान गति से लिख रही है। एक तरफ समाज का असंतुलित विकास है, दूसरी तरफ जीवन में बाजार की राजनीतिक दखलंदाजी। एक तरफ मध्यकाल के दकियानूसी विचार और धार्मिक अंधविश्वास लोगों पर लादे जा रहे हैं, दूसरी तरफ नए बाजार में तमाम मानव मूल्यों को नष्ट किया जा रहा है। समय के इन अंतर्विरोधों को समझने की जरूरत है। इस परिप्रेक्ष्य में आज स्त्री-विमर्श के मुद्दे भी बदल रहे हैं। चंद्ररेखा के अनुसार, स्त्री-विमर्श वंचित की चिंता है, अर्थात मजदूर, किसान व दलित के प्रति सरोकार है। पहले अपने नजरिए से अपनी जिंदगी को देखने की कोशिश ज्यादा थी, अब वस्तुपरक दृष्टिकोण से जीवन और समाज में सार्थक हस्तक्षेप है, किसी भी तरह के दमन का प्रतिरोध है। नारी लेखन आज सार्वभौमिक हुआ है। मानवता के सारे सरोकार अब स्त्री के चिंतन के मुद्दे बन चुके हैं। मीनाक्षी पॉल कहती हैं कि स्त्री-विमर्श से अभिप्राय केवल स्त्रियों के अस्तित्व का विमर्श नहीं, संपूर्ण मानवता के अस्तित्व का विमर्श है। एक ऐसे समाज की परिकल्पना उसमें निहित है जिसमें मानव प्रकृति संग समरसता से जी सके, जिसमें मशीनी और औद्योगिक विकास इनसान को वस्तु न समझे। पहले स्त्री ने समाज में अपने अस्तित्व को पहचाना और अब वह सशक्त, ज्ञानपूर्ण, कर्मठ और करुणा-परायण इच्छाशक्ति बनकर नया समाज गढऩा चाहती है। मीनाक्षी लिखती हैं कि वह सपने नहीं देखती क्योंकि 'हकीकत की मजबूत दीवारों पर लगे/ख्वाबों के जालों का कोई सबब नहीं/उन्हें जितनी जल्दी/झाड़ दिया जाए/उतना बेहतर। दीन-दुनिया की हकीकत अब ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। पर्यावरण एक ऐसा ही मुद्दा है जो सभी स्त्रियों का सरोकार है। संगीता सारस्वत लिखती हैं- 'शिमला पहाड़ों का शहर नहीं, घरों का एक पहाड़ हो गया है, तो भारती कुठियाला लिखती हैं- 'पगडंडी गांव से निकलकर/शहर आ पहुंची है/लेकिन/शहर से गांव जाती पगडंडी/जाने कहां खो गई है…/शायद/विकास के नाम पर बलि चढ़ा दी गई है। अर्पणा धीमान, वंदना राणा, कल्पना गांगटा, नीता अग्रवाल, स्नेह नेगी, ऋतिका भी स्त्री-लेखन को सशक्त करती हैं। आज स्त्री-विमर्श के सामने कई सवाल हैं। यह बहुत सुखद है कि महिला रचनाकार, आधुनिक बोध से संपन्न होकर आज के ज्वलंत प्रश्नों की आंच में तपी, प्रभावी कविताएं लिख रही हैं, जिन पर चर्चा फिर कभी। -विद्यानिधि
पुस्तक समीक्षा : प्रेम रश्मियां : विशिष्ट कहानी संग्रह
हमारे साथी, हाल ही में स्वर्गीय हो गए दिवाकर भट्ट द्वारा संपादित पत्रिका, आधारशिला में कुछ माह पूर्व एक रचना 'प्रेम रश्मियां पढऩे का सुयोग हुआ था। यह रचना मुझे कुछ अलग रूप की सारगर्भित अच्छी लगी थी। मैंने लेखक से फोन पर संपर्क साधा और रचना के लिए बधाई दी। इस प्रथम संपर्क ने श्री गंगोला से जोड़ दिया है। अब हाल में कथाकार ओमप्रकाश गंगोला का नया कहानी संग्रह 'प्रेम रश्मियां आधारशिला प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। मुझे इस संग्रह को पढऩे का अवसर दिया गया है। इस संग्रह की कथाएं अपने ढंग की, अनूठे कथ्य वाली, कुछ अलग-अलग सी लगी हैं। भाषा-शैली भी इन रचनाओं की एक अलग तरह का संगठन लिए मौलिक है। भाषा में अपने तरह का प्रवाह है जो पढ़ते जाने को बाध्य करता है। अपने दीर्घ नब्बे वर्ष के रचनात्मक जीवन में ये कहानियां और यह अभिव्यक्ति एक विशिष्टता का बोध करा रही हैं। अत: मैं कुछ लिख देने के लिए बाध्य सा हुआ हूं। लेखक से हुए संपर्क से ज्ञात हुआ है कि श्री गंगोला बहुत समय से लिख रहे हैं। उनकी उपस्थिति, साहित्य जगत में, इलाहाबाद से 1960 के दशक में प्रकाशित पत्रिका 'विकल्प में मुख्यत: अंकित हुई थी। उनकी इस कहानी को तब खुलकर भरपूर सराहा गया था। वे सामान्यत: स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं के अलावा कई समाचार पत्रों में भरपूर प्रकाशित हुए हैं। यों वे 'मनोहर कहानियों में भी छपे हैं।
तीन या चार कथा संग्रह भी उनके अब तक आए हैं। पर इस सबके बाद भी मेरा परिचय उनसे इस 'प्रेम रश्मियां नामक कथा संग्रह से ही हुआ। इस संग्रह को नाम देने वाली यह कहानी जिसे मैं मुख्यत: एक वैचारिक रचना कह सकता हूं, अद्भुत लगी। इसकी अद्भुतता कथा कह पाने में इतनी नहीं, कथा के संयोजन और उसके उद्देश्य पक्ष में अधिक है। एक साधु, संवेदनशील, पढ़ा-लिखा विचारक कोटि का व्यक्ति, चौदह हजार फुट की ऊंची खुली आकाश स्पर्श करती हरी-भरी उपत्यका में कथाकार की कहानियां लगातार सुनता है। कहानियां प्रेमात्मक हैं और उनका वाचन दिगंत तक फैली भूमि में केवल सुनने और सुनाने वाले की उपस्थिति में हुआ है। प्रत्यक्षत: यह परिवेश अपरिचित अस्वाभाविक सा लगता है, पर यहां वस्तुत: पाठक के लिए प्रेम की लीलाओं का वाचन सांकेतिक रूप से हुआ है।
केवल प्रेम संकेतों के बीच स्वयं गुप्त प्रेम को पकडऩे का प्रयत्न हुआ है। संग्रह की प्रथम और अंतिम कहानी के अतिरिक्त आगमन, लीली, समर्पण, नमोऽस्तुते भी अपनी तरह की विशिष्ट कहानियां हैं। यह कथाकार, कथा के साथ-साथ स्वयं प्रेम को अपने मूल रूप में पकडऩे की चेष्टा में दिखता है। यह चेष्टा और इस दुरूह कार्य की सांकेतिक सफलता, पाठक को इन कहानियों में मिलेगी। नमोऽस्तुते इस क्रम में अपनी तरह की अकेली कहानी है जो शायद ही कभी लिखी गई हो। सांसारिक अनुभव हमें अतींद्रिय अनुभव तक संयोगत: कैसे ले जा सकते हैं, इसे समझना हो तो यह कहानी अवश्य पढ़ी जाने योग्य है। मिलन, समर्पण, लीली, प्रेम देह कहानियां भी अपनी सामान्यता में आपको चौंकाएंगी, रंजित करेंगी।
-बल्लभ डोभाल, साहित्यकार
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