सम्पादकीय

महिला मतदाताओं को बेचारगी के तमगे से उबरने की आवश्यकता

Subhi
29 Jan 2022 5:22 AM GMT
महिला मतदाताओं को बेचारगी के तमगे से उबरने की आवश्यकता
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कांग्रेस पार्टी ने हाल ही में 'लड़की हूं, लड़ सकती हूंÓ नारे से उत्तर प्रदेश के चुनाव अभियान का आरंभ करते हुए एक 'पोस्टर गर्लÓ को प्रस्तुत किया।

कांग्रेस पार्टी ने हाल ही में 'लड़की हूं, लड़ सकती हूंÓ नारे से उत्तर प्रदेश के चुनाव अभियान का आरंभ करते हुए एक 'पोस्टर गर्लÓ को प्रस्तुत किया। कुछ ही समय बाद पोस्टर गर्ल ने यह कहते हुए स्वयं को अलग कर लिया कि कांग्रेस उनके चेहरे का इस्तेमाल करना बंद करे और किसी दूसरे माडल को चुने। इस घटना के कई मायने निकाले जा सकते हैं। इसे देश में राजनीति को करवट लेने और महिलाओं की चुनावों के प्रति बढ़ती समझ के साथ स्वयं निर्णय लेने की क्षमता विस्तार के तौर पर देखा जाना चाहिए.......

आप क्या सचमुच राजनीति की पोस्टर गर्ल बनना चाहती हैं? अपनी पहचान आरक्षण की दुर्बल सीढ़ी पर चढ़कर ही बनाना चाहती हैं? 'अबला, बेचारगी की टिकुली आपके माथे पर लगाकर टिकट दिया जाए, आप ऐेसा ही चुनाव लडऩा चाहती हैं? या सेलिब्रिटी की पहचान से आकर्षण के जाल में वोट कस लेना चाहती हैं? एक और आखिरी सवाल, क्या वाकई आपको अच्छा फील हो रहा है जब एक पार्टी 40 प्रतिशत टिकट आरक्षण में आधी आबादी को तौल रही है?

ये जरूरी सवाल उन लोगों से हैं जो इस माहौल को गढऩे वाले हैं। या इस समाज से उनकी कन्नी कटी हुई है कि आज 'आधी आबादीÓ स्वाभिमान के साथ स्वालंबन के बूते खड़ा होना सीख चुकी है। उसे ऐसी बैसाखियों की आड़ में 'कोमलÓ समझने का समय नहीं रहा है।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस का एक कथ्य है- धर्म का लाभ उठाकर वोट मांगना धर्म का अपमान है। आज के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में इस कथ्य को देखें तो कुछ ऐसा दिखता है- आधी आबादी की निर्बलता का लाभ उठाकर वोट मांगना नारी का अपमान है। दरअसल हाल ही में मतदाता दिवस था तो इस अवसर पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की यह पंक्ति इंटरनेट मीडिया पर सरपट लाइक हुई जा रही थी। नेताजी यदि आज जीवित होते तो यही सोचते कि आधी आबादी को राजनीतिक दलों ने कैसे सेंटीमेंट और सेलिब्रिटी की पुतली बनाकर चुनावी अखाड़े में उतार दिया है। कहां तो उन्होंने उस कठिन दौर में रानी झांसी रेजिमेंट खड़ी कर स्त्री के स्वाभिमान और स्वालंबन को जागृत किया था। निश्चित ही आज के राजनीतिक दलों में आधी आबादी को इस तरह से दयनीयता का पात्र बना हुआ देख नेताजी यही कथ्य गढ़ते और साथ ही ऐसा करने वालों को चेताते भी

'अंडरएस्टिमेटÓ करना बंद कीजिए : आज जिन संस्कारों से देश पुष्पित और पल्लवित हो रहा है वहां टैलेंट देखा जाता है। उसी के बूते मुकाम हासिल होता है। 21वीं सदी के 22वें वर्ष में आप उन्हें 19 आंक कर 'अंडरएस्टिमेटÓ करें यानी उनके मूल्य को कम करके आंके, यह ठीक नहीं है। बात बात पर हम जिस अमेरिका का उदाहरण देते हैं वह कमला हैरिस को उपराष्ट्रपति बनाकर इतरा रहा है। भारत तो स्वाधीनता के 75वें वर्ष में प्रवेश करने पर अमृत महोत्सव मना रहा है, क्योंकि अब तक वह इस तरह के कई प्रेरक मिसाल पेश करता आया है। राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक और राज्यपाल से लेकर मुख्यमंत्री तक यहां राजनीति के गौरवान्वित इतिहास लिखे जाते रहे हैं। फिर ऐसे में राजनीतिक दलों का छुटभैयापन, दुर्बलता, निर्बलता के चश्मे से देखना उनकी राजनीतिक इतिहास की कमजोर समझ का परिचायक ही हो सकता है। कहा जा सकता है कि आधी आबादी के प्रति उनका सोच जिस तरह का है वह निश्चित रूप से उनका इस ओर से असंबद्ध होने की भावना को ही प्रदर्शित करता है। आज के दौर में तो इस परिपाटी से उबरने की आवश्यकता है कि हम उन्हें पहले बेचारगी की तरह प्रस्तुत करें और जनता रूपी वोट बैंक, विशेषकर महिला मतदाताओं के बीच वोट की पेशकश करें।

दिखावटी आरक्षण : राजनीतिक दल यह घोषणा करते हैं कि चुनाव में टिकट वितरण के दौरान वे महिलाओं को 40 प्रतिशत आरक्षण देंगे। जिस दावे को आज 21वीं सदीं के 22 साल बाद पेश किया जा रहा है, इस तरह की पहल तो 20वीं सदी के सातवें-आठवें दशक से भी पहले ही कर देनी चाहिए थी, जब लंबे समय तक सत्ता में उनका दौर था। इंदिरा गांधी के विचार, उनकी राजनीति से हम सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन उनके प्रशासन की अनदेखी नहीं कर सकते। यही कांग्रेस उस दौर में महिलाओं को राजनीति में कितना आगे बढ़ा सकी उसकी तस्वीर देश के समक्ष है। केवल परिवार की वंशावली में महिलाओं को राजनीति में उतारा जाता रहा। तब 'लड़की हूं, लड़ सकती हूंÓ की भावना कहां धूमिल थी। बेटियों के लिए उस दौर में आज की अपेक्षा कहीं अधिक स्वाभिमान जागृत कराने की जरूरत थी। लेकिन आज जब बेटियां अपने दम पर हर क्षेत्र में गौरवगाथा लिख रही हैं तब दिखावटी आरक्षण का ढोल पीटा जा रहा है।

इतना ही नहीं, दिखावटी आरक्षण का चीरहरण भी किया जा रहा है। ऐसे चेहरे तलाशे जाते हैं जो सेंटीमेंट और सेलिब्रिटी से भरपूर हों। अब ये दोनों ही श्रेणी एकदम विपरीत हैं, तो स्वाभाविक है कि टिकट के लिए अलग-अलग चेहरों की भी खोज होती है। रिसर्च होता है। इसी कड़ी में तो उत्तर प्रदेश के प्रचलित उन्नाव कांड में पीडि़ता की मां को टिकट का प्रस्ताव दिया गया। स्वाभाविक है उन्हें क्यों चुना गया? जनता से संवेदनाओं के नाम पर वोट निकलवाने के लिए। अब घर बैठकर तो चुनाव जीता नहीं जाएगा। घर-घर जाकर अपने प्रचार में यही कहना है, 'मैं चूल्हा चौका करने वाली औरत हूं। न भाषण देना जानती हूं।

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