सम्पादकीय

स्त्रियां अपने लिए कोई हदें तय ना करें; राजनीति में बढ़ता प्रतिनिधित्व भी महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए जरूरी है

Gulabi
2 March 2022 8:26 AM GMT
स्त्रियां अपने लिए कोई हदें तय ना करें; राजनीति में बढ़ता प्रतिनिधित्व भी महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए जरूरी है
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मैं अपने जीवन को एक संघर्ष की तरह परिभाषित करना चाहूंगी
निरुपमा राव का कॉलम:
मैं अपने जीवन को एक संघर्ष की तरह परिभाषित करना चाहूंगी। एक जद्दोजहद- स्वतंत्र, पेशेवर महिला के रूप में अपनी पहचान बनाने की और खासतौर पर हमारे जैसे समाज में महिलाओं के लिए तय किए गए स्टीरियोटाइप को तोड़ने की। विदेश सेवाओं में बिताए गए वर्षों ने मेरे जीवन को निर्धारित किया है और महिलाएं क्या कुछ हासिल कर सकती हैं, इसकी हदबंदियों को आगे भी धकेला है।
मैंने मात्र 22 वर्ष की आयु में विदेश सेवा में प्रवेश किया था। यह उस चहारदीवारी से बहुत अलग दुनिया थी, जिसे मैंने बड़े होते समय जाना था। मेरा जन्म केरल के मलप्पुरम में हुआ था। मुझे अपने पुश्तैनी घर के आसपास फैली हरियाली याद आती है। मेरे पिता सैन्य अधिकारी थे, इस कारण मेरा आरम्भिक जीवन भारत के अनेक कैन्टोनमेंट कस्बों में बीता।
मुझे और मेरी बहनों को हमारे माता-पिता जितनी ही अच्छी शिक्षा मिली। मैं निरंतर पढ़ती रहती थी। आधुनिक भारत का इतिहास मुझे आकृष्ट करता था। ज्ञान के प्रति मेरी भूख को भड़काने में पिता के द्वारा दी गई किताबों ने अहम भूमिका निभाई। उन्हीं के प्रोत्साहन से मैंने अखबारों को पढ़ना और मौजूदा घटनाओं पर रेडियो प्रसारणों को सुनना शुरू किया। मुझ पर मां का भी गहरा असर पड़ा था।
वे बहुत मेधावी महिला थीं और अपनी तीनों बेटियों के लिए उन्होंने बड़े सपने देखे थे। वे अपने परिवार की पहली यूनिवर्सिटी ग्रेजुएट थीं। मैं उनकी पहली संतान थी, इसलिए विशेषकर मेरे लिए उन्होंने बहुत ऊंचे मानदण्ड तय किए थे। मेरे पैरेंट्स बहुत खुली सोच वाले थे और वे अपनी बेटियों को अपने मित्रों और परिचितों के बेटों की ही तरह जीवन में सफल होते देखना चाहते थे।
मुझे कभी इस कॅरिअर का चयन करने पर खेद नहीं हुआ। राजनय के कॅरिअर में हमें जीवन के बहुत सारे सबक सीखने को मिलते हैं। इसमें हम यह समझते हैं कि युद्ध कैसे होते हैं और उन्हें कैसे टाला जा सकता है, वार्ताएं सफल और विफल कैसे होती हैं और कैसे अपने जीवन की ही तरह विदेश सेवा में भी हमें दूरदर्शी, सुदृढ़, अपने हितों के प्रति सचेत और जिम्मेदारीपूर्ण होना चाहिए। मैं डिप्लोमेट इसलिए बनी, क्योंकि मुझमें अपने आसपास की दुनिया को जानने की उत्सुकता थी।
मुझमें इतिहास के प्रति गहरी रुचि थी। मैं जानना चाहती थी कि स्वतंत्र भारत के मूल्य क्या हैं और उससे मैं कैसे प्रभावित होती थी। मैं हमेशा प्रश्न पूछती थी और जवाबों की तलाश करती थी। मैं किसी लीक पर नहीं चली और अपना रास्ता तय किया। दुनिया की ऐसी कोई फील्ड नहीं है, जिसमें महिलाएं कामयाबी नहीं पा सकतीं। डिप्लोमेसी की दुनिया में मैंने एक बार भी नहीं सोचा कि मैं पुरुषों की दुनिया में एक महिला हूं। मैंने हमेशा यही माना कि मैं हर वो चीज कर सकती हूं, जो पुरुष कर सकते हैं।
मेरे दिमाग में कोई सीमाएं नहीं थीं। यकीनन, चुनौतियां भी कम नहीं थीं। मेरा विवाह एक आईएएस अधिकारी से हुआ था। मेरे सामने दो विकल्प थे। पहला यह कि मैं एक परम्परागत विवाहित महिला की भूमिका निभाते हुए नौकरी छोड़ दूं, क्योंकि दिल्ली को छोड़कर ऐसी कोई जगह नहीं थी, जहां मैं और मेरे पति साथ रहकर काम कर पाते। दूसरा विकल्प यह था कि हम पति-पत्नी इस बात को स्वीकार करते कि हम हमेशा साथ नहीं रह सकेंगे।
हमने दूसरा विकल्प चुना, अलग-अलग रहे, छुटि्टयों के दौरान कुछ समय के लिए ही हम मिल पाते थे। मेरे पति की पोस्टिंग कर्नाटक में अनेक जगहों पर होती रही, जबकि मैं विदेश में स्थित भारतीय दूतावासों में सेवाएं देती रही। हमारे दोनों बच्चों को भी इस तरह के जीवन के साथ एडजस्ट करना पड़ा, जिसमें वे अपने माता-पिता को यदा-कदा ही साथ देख पाते थे।
यह एक बहुत ही गैरपरम्परागत वैवाहिक जीवन था, लेकिन परस्पर कमिटमेंट और भरोसे के कारण हमारा रिश्ता कायम रहा। मैंने हमेशा अपने निजी और पेशेवर जीवन के बीच एक संतुलन बनाने की कोशिश की थी। आज जब मैं पीछे लौटकर देखती हूं तो अपने इस अद्भुत जीवन के प्रति धन्यवाद के भाव से भर जाती हूं। डिप्लोमेसी की फील्ड में महिलाओं का प्रवेश अभी भी नया ही है। एक अरसे में इसमें पुरुषों का दबदबा रहा है।
अभी चंद दशक पहले तक यही माना जाता था कि कूटनीति, सम्प्रभु राष्ट्रों की आपसी वार्ताओं और राजनय में भला महिलाओं का क्या काम। वास्तव में महिलाओं के प्रति समाज के रवैए में बदलाव की शुरुआत आजादी के बाद हुई, जब प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि भारत की आत्मा स्त्रैण है, पौरुषपूर्ण नहीं है। वे महिलाओं को राजनय में देखना चाहते थे, लेकिन वे भी महिलाओं के द्वारा विवाह के बाद नौकरी छोड़ने के नियम को बदल नहीं सके थे, जिससे अनेक चमकदार कॅरियरों का अंत हो गया।
अंतरराष्ट्रीय मामलों, आर्थिक विकास और राष्ट्रीय सुरक्षा सम्बंधी मसलों में दिलचस्पी रखने वाली महिलाओं के लिए डिप्लोमेसी में कॅरिअर बनाना एक बहुत संतोषजनक और सशक्त करने वाला विकल्प हो सकता है। मैंने 1973 में विदेश सेवाओं को जॉइन किया था, तब से अब तक महिला राजनयिकों के लिए बहुत नए अवसर निर्मित हो चुके हैं।
अभी तक दो महिलाओं ने विदेश सचिव की भूमिका निभाई है और भारतीय मिशन की प्रमुख, राजदूत, उच्चायुक्त जैसे महत्वपूर्ण पदों पर भी पहुंची हैं। विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता भी एक महिला रह चुकी हैं। राजनीति में बढ़ता प्रतिनिधित्व भी महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए जरूरी है। समाज में संवैधानिक मूल्यों के प्रति जागरूकता बढ़ाना भी कम जरूरी नहीं।
मैंने अपना रास्ता चुना और उस पर कायम रही
12 साल की उम्र से ही मेरा यह सपना था कि मुझे भारतीय विदेश सेवा जॉइन करनी है। 21 साल की उम्र में मैं सिविल सेवा परीक्षा में सम्मिलित हुई। मई 1973 का वो दिन मैं कभी भुला नहीं सकूंगी, जब मेरे घर पर एक टेलीग्राम आया। उसमें यह सूचना थी कि भारतीय विदेश सेवा और प्रशासनिक सेवा के परीक्षार्थियों में मुझे पूरे देश में पहला स्थान मिला है!
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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