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हमें मोदी पसंद हैं- ये शब्द थे रावत समुदाय की उस महिला के, जो मोहनलालगंज में अपने पति के साथ बैठकर सरकारी योजनाओं से मिलने वाले फायदे हमें गिना रही थी
यामिनी अय्यर
हमें मोदी पसंद हैं- ये शब्द थे रावत समुदाय की उस महिला के, जो मोहनलालगंज में अपने पति के साथ बैठकर सरकारी योजनाओं से मिलने वाले फायदे हमें गिना रही थी। उसे सरकारी इमदाद के रूप में राशन और गैस मिल रहे थे, साथ ही, नए बने 'ई-श्रम कार्ड' से 1,000 रुपये बहुत जल्द मिलने का वादा किया गया था। दूसरी ओर, उसके पति की राय भी बिल्कुल स्पष्ट थी। बेरोजगारी और बढ़ती महंगाई की वजह से उसका वोट समाजवादी पार्टी को जाने वाला था। एग्जिट पोल पर यदि विश्वास करें, तो पति-पत्नी की सोच में यह अंतर कोई अपवाद नहीं था।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के तमाम हिस्सों में हिंदू महिला मतदाताओं के साथ बातचीत में हमने कुछ ऐसा ही महसूस किया। न सिर्फ घर के महिला व पुरुष सदस्यों की प्राथमिकताओं में हमें अंतर दिखा, बल्कि मोदी के साथ भावनात्मक जुड़ाव व कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिलने संबंधी वादे पर उनको भरोसा करते हुए भी हमने देखा। यह विश्वास दिल से किए गए वर्षों की मेहनत से कमाए गए हैं। दरअसल, महिला मतदाताओं के बीच विश्वास जमाने और उनसे संपर्क बनाने की एक कोशिश 2017 की उज्ज्वला योजना थी, जिसके तहत उनमें गैस सिलेंडर मुफ्त में बांटे गए थे। 2022 में यह काम मुफ्त राशन ने किया। कई महिला वोटरों ने बताया कि उन्हें अक्सर पार्टी कार्यकर्ताओं के फोन आते हैं, जो राशन ले आने की बात याद दिलाते हैं।
हालांकि, यह ताकीद महज राशन की नहीं होती थी। मोहनलालगंज में ही एक युवा गृहिणी ने (जिसने इस बार बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के बजाय संभवत: भाजपा को वोट दिया होगा) बताया, 'उनके फोटो हर जगह दिखते हैं'। यानी, लगातार स्मरण करने की इस कवायद ने लाभकारी योजनाओं को लेकर ऐसा माहौल बनाया, जिसमें प्रधानमंत्री की कल्याणकारी छवि और भाजपा के पार्टी काडर की ताकत, दोनों का संगम सुगमता से हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आम लोगों का भरण-पोषण करने वाले नेता के रूप में उभरे। यह महिलाओं की राजनीतिक लामबंदी का एक प्रभावी औजार साबित हुआ।
महिलाओं की ऐसी राय निश्चय ही हमें उन कारकों को समझने में मदद करती है, जिसने उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत सुनिश्चित की। मगर प्रधानमंत्री को लेकर बने नैरेटिव और कई महिला मतदाताओं द्वारा जाहिर की गई यह आत्मीयता भारतीय चुनाव में आए एक महत्वपूर्ण बदलाव के भी संकेत हैं, जिस पर गंभीर चर्चा किए जाने की दरकार है।
एक अहम वोट बैंक के रूप में महिला मतदाताओं का उभरना जाति पर आधारित पहचान के ढांचे को चोट पहुंचाता है। यह वही पहचान है, जिससे राजनीति की हमारी समझ प्रभावित होती रही है, विशेष रूप से उत्तर भारत में। पूर्वी उत्तर प्रदेश का नैरेटिव मुद्दे के बजाय व्यक्ति (मोदी) के ईद-गिर्द निर्मित एक नई राजनीति के उदय की ओर इशारा करता है, जिसमें नेतृत्व को उभारने के लिए पार्टी द्वारा असीमित संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता है। राजनीतिक विज्ञानी नीलांजन सरकार इसे 'विश्वास की राजनीति' कहते हैं।
महिला मतदाता विश्वास की इसी राजनीति की नींव बनकर उभर रही हैं। खासतौर से उनके लिए चलाई जाने वाली योजनाओं में उनको लाभार्थी बनाना इसमें मददगार साबित हो रहा है। हमारी बातचीत में जन-धन खाता खोलने वाली ज्यादातर महिला मतदाताओं ने उन दिनों को याद किया, जब कोविड-19 के कारण पहली बार लगाए गए लॉकडाउन के दौरान उनके बैंक खाते में पैसे आए थे। इसी तरह, उज्ज्वला भी एक लोकप्रिय योजना है और महिला मतदाताओं को मोदी से जोड़ती है, फिर चाहे कई लाभार्थियों के पास गैस सिलेंडर को फिर से भरने का साधन बेशक न हो। यही वह शुरुआती रणनीति है, जिसने प्रत्यक्ष तौर पर महिला मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में संगठित किया।
भले ही महिलाओं ने बार-बार यह बताया कि राशन से मिलने वाले फायदे बेरोजगारी या महंगाई की भरपाई नहीं कर सकते, फिर भी यह भाजपा को वोट देने की एक बड़ी वजह जान पड़ती है। हालांकि, व्यक्तिगत राजनीति और कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से महिला मतदाताओं को लुभाने की यह रणनीति सिर्फ भाजपा की नहीं है। लोकनीति के मुताबिक, पिछले साल के पश्चिम बंगाल चुनाव में भाजपा पर तृणमूल कांगे्रस की जीत में ममता बनर्जी को पसंद करने वाले पुरुष मतदाताओं की तुलना में महिला वोटरों की संख्या बहुत अधिक थी। बिहार में भी नीतीश कुमार कुछ इसी तरह की रणनीति से सफल रहे हैं।
महिलाओं व पुरुषों के बीच की ये स्पष्ट राजनीतिक प्राथमिकताएं हमारे चुनावी परिदृश्य में नए कारक के रूप में उभर रही हैं। भाजपा ने इनको प्रभावी ढंग से लामबंद किया है। यह जाति की राजनीति से बिल्कुल अलग है। साफ है, मौजूदा ढांचे में महिलाएं व्यक्तिगत राजनीति से जुड़कर एक लाभार्थी के रूप में मत डाल रही हैं। लोकतंत्र पर इसके दीर्घकालिक प्रभाव की गहन पड़ताल आवश्यक है।
और अंत में चर्चा कांग्रेस की। महिला मतदाताओं के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए ही संभवत: कांग्रेस आलाकमान ने 'लड़की हूं, लड़ सकती हूं' अभियान की कल्पना की होगी। मगर कांग्रेस उस बुनियाद को समझने और पहचानने में विफल रही, जो महिला मतदाताओं को भाजपा, और विशेष तौर पर नरेंद्र मोदी से जोड़ती है। यदि वह महिला मतदाताओं को कहीं अधिक गंभीरता से लेना चाहती है, तो उसे महिला मतदाताओं और उनकी प्राथमिकताओं को गहराई से समझने की कुव्वत खुद में पैदा करनी होगी। एक महत्वपूर्ण वोट बैंक के रूप में महिला मतदाताओं की उपस्थिति ने भारत की चुनावी राजनीति की दिशा मोड़ दी है। बेशक भारतीय राजनीति को परखने के लिए मंडल-कमंडल का विश्लेषण किया जाता है, लेकिन अब महिला मतदाताओं के लिए ये मुद्दे शायद ही मायने रखते हैं। नेताओं की भावनात्मक अपील उनको कहीं ज्यादा राजनीतिक पार्टियों से जोड़ती है। लिहाजा, अब समय आ गया है कि हम इन पर संजीदगी से ध्यान दें।
Rani Sahu
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