सम्पादकीय

स्त्री का हक

Subhi
27 March 2021 1:16 AM GMT
स्त्री का हक
x
भारतीय सेना में महिला अफसरों को स्थायी कमीशन देने के मसले पर अब तक जिस तरह की जद्दोजहद चल रही थी, उसका यों भी कोई ठोस आधार नहीं था।

भारतीय सेना में महिला अफसरों को स्थायी कमीशन देने के मसले पर अब तक जिस तरह की जद्दोजहद चल रही थी, उसका यों भी कोई ठोस आधार नहीं था। इस मांग को लटकाए रखने या टालने के लिए जो तर्क दिए जा रहे थे, वे महज कुछ पूर्वाग्रहों पर आधारित थे। लेकिन अब एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को भारतीय सेना और नौसेना में महिला अफसरों को स्थायी कमीशन देने के मामले पर जो फैसला सुनाया है, उससे साफ है कि अब तक इस पर टालमटोल का कारण सिर्फ कुछ गैरजरूरी धारणाएं रहीं। शीर्ष अदालत ने साफ शब्दों में सरकार को निर्देश दिया कि वह एक महीने के भीतर इस दिशा में ठोस कदम उठाए और नियत प्रक्रिया का पालन करते हुए दो महीने के भीतर महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन दे।

समाज में महिलाओं को लेकर कैसे पूर्वाग्रह काम करते हैं, वह छिपा नहीं है। लेकिन अगर सेना जैसे संगठित संस्थानों में भी इस तरह की बेमानी धारणाओं की छाया काम करे तो यह अफसोस की बात है। अदालत ने स्थायी कमीशन पाने की कसौटी के लिए महिला अफसरों के लिए तय चिकित्सीय फिटनेस मापदंड को मनमाना और तर्कहीन बताते हुए यह तीखी टिप्पणी की कि सेना द्वारा अपनाए गए मूल्यांकन के पैमाने महिलाओं के खिलाफ भेदभाव का कारण बनते हैं। जाहिर है, इस मसले पर अदालत का रुख साफ है और उसकी टिप्पणियां व्यवस्था में गहरे पैठे सामाजिक पूर्वाग्रहों की उन परतों को उधेड़ती हैं, जिनके चलते महिलाओं को बहुस्तरीय भेदभाव का सामना करना पड़ता है। योग्यता और क्षमता होने के बावजूद सिर्फ बेमानी धारणाओं की वजह से कई बार उन्हें अपने अधिकारों तक से वंचित होना पड़ जाता है। सेना जैसे महकमे में हर मौके पर महिलाओं ने अपनी जरूरत और काबिलियत साबित की है। लेकिन अब तक घोषित-अघोषित रूप से उन्हें एक सीमा तक ही आगे बढ़ने की इजाजत रही।
इस तरह के भेदभाव के खिलाफ यह मामला जब अदालत में पहुंचा था, तब 2010 में ही दिल्ली हाईकोर्ट ने महिलाओं के हक में फैसला दिया था। उसके बावजूद केंद्र सरकार की ओर से कमांड पद नहीं देने के पीछे महिलाओं की शारीरिक क्षमताओं और सामाजिक मानदंडों का हवाला देकर इस मामले को लटकाए रखा गया। करीब साल भर पहले सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के इस रुख को निराशाजनक बताते हुए साफ शब्दों में कहा था कि सभी महिलाओं को सेना में स्थायी कमीशन दिया जाए, जो इस विकल्प को चुनना चाहती हैं। अफसोस कि शीर्ष अदालत के फैसले के बावजूद इस ओर अब तक पहल नहीं हो सकी थी।
सुप्रीम कोर्ट के ताजा रुख के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि इस दिशा में जरूरी कदम उठाए जाएंगे। यों भी कुछ पारंपरिक पूर्वाग्रहों की वजह से अगर समाज का कोई हिस्सा अपने अधिकारों से भी वंचित किया जाता है तो उन धारणाओं को दूर करना एक सभ्य और लोकतांत्रिक समाज की जिम्मेदारी है। आज महिलाओं ने हर उस जगह पर अपनी काबिलियत साबित की है, जहां उन्हें मौका मिला। ऐसे में कुछ बेमानी आग्रहों पर आधारित मान्यताओं को सांस्थानिक तौर पर घोषित या अघोषित नियम के तौर पर बनाए रखने का कोई मतलब नहीं है।
व्यवस्थागत समस्या और संसाधनों के अभाव का हल महिलाओं को अवसर से वंचित करना नहीं हो सकता। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी बेहद अहम है कि समाज पुरुषों के लिए पुरुषों द्वारा बनाया गया है और अगर यह नहीं बदलता है तो महिलाओं को समान अवसर नहीं मिल पाएगा। किसी भी समाज में अलग-अलग तबकों के बीच वर्चस्व और वंचना के चलन को शीर्ष अदालत की इस टिप्पणी के आलोक में देखा-समझा जाना चाहिए।


Next Story